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कैसे बने ‘स्वच्छ भारत’ एक ज़मीनी हकीकत

कल 22 अप्रैल को YKA एवं Wateraid India के द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लिया, बहुत अच्छा लगा और बहुत कुछ सीखा मैंने वहां पर आए हुए स्वच्छता के क्षेत्र में काम करने वाले भारत के अग्रणी लोगों के विचार सुनकर। इस इवेंट में लाली बाई, बिपिन राय, यामिनी अय्यर, सुनील अलीडिया, निपुण मल्होत्रा, वी.के. माधवन, आस्था सिंह रघुवंशी एवं 2016 के रेमैन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता बेजवाड़ा विल्सन वक्ता के रूप में शामिल हुए। आईए जाने इस विचार-विमर्श से क्या निकलकर सामने आया।

सबसे पहले लाली बाई के मैला ढोने के खिलाफ संघर्ष की कहानी। लाली बाई जो कि मध्य प्रदेश से हैं उन्होंने अपनी कहानी सुनाई जो बहुत ही प्रेरणादायक है साथ ही हमें सोचने पर मजबूर करती है कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी जाति प्रथा जारी है। उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने अपने गांव की बड़ी जातियों एवं परिवारों के खिलाफ जाने की हिम्मत जुटाई ताकि वो भी अन्य महिलाओं की तरह ही सम्मान की जिंदगी जी सकें।

उनका कहना था कि उनके [envoke_twitter_link]गांव में 11 महिलाएं थी, जिन्हे सर पर मैला ढोने का काम करना पड़ता था, पुरुष ये काम नहीं करते थे।[/envoke_twitter_link] उनके बच्चों को स्कूल में पीछे बैठाया जाता था क्योंकि उनकी माँ मेहतरायण थी, दुकानदार उनसे पैसे दूर से लेते थे यानि एक तो वो उनका काम करती थी ऊपर से जाति के बोझ तले अपमानित होती थी। एक बार ‘राष्ट्रीय गरिमा अभियान’ के आशिफ शेख़ उनसे मिले तब उन्होंने इरादा कर लिया अब वे इस काम को नहीं करेंगी। लेकिन समाज इतनी आसानी से कहां मानने वाला था, उनके पति ने उन्हें घर से निकल जाने को कहा। वे 3 साल उस गांव से बाहर अपने मायके में रहने को मजबूर हो गयी पर वो जब वापस लौटी तो [envoke_twitter_link]गांव की बड़ी जाति के लोगों ने उनके घर को आग लगा दी यह कहकर की यह काम तुम नहीं करोगी तो कौन करेगा?[/envoke_twitter_link] परन्तु उन्होंने ने हार नहीं मानी और आज वो इस प्रथा से ना केवल उक्त हैं, बल्कि अन्य महिलाओं को भी जागरूक कर रही है।

अलीडिया सुनील बेघर लोगों के लिए काम करने वाले एक एनजीओ में काम करते हैं। उन्होंने लोधी रोड पर सरकार द्वारा बनाए गए एक शेल्टर का उदहारण देते हुए समझाया कि सरकार ने शेल्टर तो बना दिया पर टॉयलेट वहां से 200 मीटर दूर बनाया वो भी सफाई के अभाव में प्रयोग करने लायक नहीं है। रात के 11 बजे से सुबह 5 बजे तक इए बंद रखा जाता था, तो रात को लोग कहां जाएंगे? यह प्रश्न उठना लाज़िमी था। सुनील एवं उनके साथियों ने अधिकारियों से बात की तो वे नज़दीक में टॉयलेट बनाने को मान गए परन्तु वे कहते है ऐसा तो एक जगह पर हुआ अन्य जगहों का क्या?

निपुण मल्होत्रा ने बताया कि कैसे उन्हें एवं उनके परिवार को संघर्ष करना पड़ा जब वे स्कूल जाने योग्य हुए क्योंकि वे दिव्यांग थे। उन्होंने कहा कि जब मुंबई एवं दिल्ली जैसे शहरो में उन्हें इतना संघर्ष करना पड़ा तो सोचो भारत के किसी गांव के दिव्यांग बच्चे एवं उनके माता-पिता पर क्या गुज़रती होगी? उन्होंने अपने जीवन से जुड़ी एक घटना के बारे में बताते हुए कहा कि एक कंपनी ने इंटरव्यू लेने और उन्हें सेलेक्ट करने के कुछ दिनों बाद उनसे कहा कि “हम आपको नहीं रख सकते क्योंकि हमारी कंपनी एक्सेसिबल (अक्षम लोगों के अनुकूल) नहीं है।” यानि उन्हें सजा मिली पर उनकी गलती की नहीं बल्कि किसी और की गलती की।
वे प्रश्न करते है “जब सरकार टैक्स लेती है तो सुविधाएं क्यों नहीं देती है?” सरकार ‘स्वच्छ भारत’,’सुगम्य भारत’ आदि जैसी नीतियां बनाती है, पर वे इन नीतियों को ज़मीनी स्तर पर कभी उतारनहीं पायी है।
आस्था सिंह कहती है कि भारत में न केवल दिव्यांग लोगों को दिक्कत सहनी पड़ती है, बल्कि ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को भी सार्वजानिक जगहों पर काफी अपमान सहना पड़ता है, खासकर कि पब्लिक टॉयलेट में।
सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक बेजवाड़ा विल्सन इस बात पर गहरी चिंता ज़ाहिर करते हैं कि भारत में लोग केवल टॉयलेट बनाने पर जोर दे रहे है पर जो अपने सर पर मैला ढोते है उनके बारे में कोई नहीं सोचता। हमलोग कैसे स्वच्छ भारत अभियान में मैला ढोने के खिलाफ एक कानून ला सकते है इस पर सोचने की ज़रूरत है। यह काम इतना आसान नहीं है, क्योंकि यह प्रथा न केवल जाति आधारित है बल्कि पीढ़ी पर भी आधारित है।
आज हर कोई टॉयलेट बना रहा है पर कौन उसे साफ़ करेगा इस पर कोई नहीं सोच रहा है।समाज में ऐसी सोच है कि केवल एक खास समुदाय यह काम करेगा पर यह गलत है। उनका यह कहना ‘[envoke_twitter_link]टॉयलेट एक बिज़नेस बन चुका है पर कौन साफ करेगा यह पता नहीं[/envoke_twitter_link]’ श्रोताओं के मन में उथल-पुथल पैदा करता है।
यामिनी अय्यर कहती हैं कि ‘स्वच्छ भारत’ का मतलब लोगों और सरकार ने खुले में शौचमुक्त भारत बनाना निकल लिया है। पर क्या केवल इस टारगेट को पा लेने से ‘स्वच्छ भारत’ का सपना संभव हो पाएगा? लोगों की आदतों को कौन बदलेगा? [envoke_twitter_link]जहां तक बात है टॉयलेट बनाने की, उसमे तो हम आगे हैं, पर क्या वे प्रयोग के काबिल हैं?[/envoke_twitter_link] इस पर सरकार कुछ नहीं कहती।
बिपिन राय कहते है [envoke_twitter_link]केवल शौचालय बनाना ही सरकार का दायित्व नहीं है[/envoke_twitter_link] बल्कि उसका मेंटेनेन्स भी सरकार की चिंता होनी चाहिए। वे कहते है ऐसे सरकारी दायित्वों के लिए संवेदनशील अफसरों की ज़रूरत है। माधवन जाते -जाते यह व्यंग कर जाते हैं कि, “लोगों को यह तो पता है की पेटीएम कितने लोग प्रयोग करते हैं, पर उन्हें यह नहीं मालूम कि उनके देश में कितने ऐसे लोग हैं जो साफ़ पानी को तरसते हैं।
वाटरएड इंडिया से वी.के. माधवन कहते हैं, “हम ऐसे समाज में रहते हैं जहां इंसान का जन्म ही अधिकतर चीजों का निर्णय कर देता है, उसके पास बहुत काम चॉइस होती है।सामाजिक ताना-बाना यह तय करता है कि लोग किससे और कैसे बात करते हैं। और यही दिक्कत होती है जब सामान्य लोग सरकारी कर्मचारियों से बात नहीं कर पाते हैं।” वे कहते है एक तरफ तो लोग साफ़ पानी को भी आरओ फ़िल्टर कर पीते हैं, जिससे 50 से 60% पानी बर्बाद होता है, जबकि दूसरी तरफ लोग पानी को तरसते हैं।
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