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ये शख्स नहीं होता तो शायद चंपारण में गांधी का सत्याग्रह भी नहीं होता

तब चंपारण में दर्द की एक नदी थी जिसमें पानी की जगह किसानों के आंसू बहा करते थे । इस नदी का स्रोत  पंचकठिया नामक  व्यवस्था थी (वो नियम जिसमें 1 बिघा ज़मीन की खेती में 5 कट्ठे में नील की खेती करना अनिवार्य बना दिया गया था) जिसे नील की फैक्ट्री के अंग्रेज मालिकों ने ब्रिटिश हुक्मरानों की मिलीभगत से तैयार किया था। यही दर्द जब विद्रोह की शक्ल में उभर कर सामने आया तो हुक्मरानों ने हमदर्दी का ढोंग रचा और पंचकठिया प्रणाली को तीन कठिया प्रणाली में बदल दिया। अंग्रेज़ों ने सभी किसानों के लिए एक नियम जारी किया था जिसके तहत 1 बिघा खेत में 3 कट्ठे में नील की खेती करना अनिवार्य था जिसे तीनकठिया व्य्वस्था कहते थें। लेकिन उससे किसानों का दर्द कम नहीं हुआ ।

नील की खेती में लागत काफी अधिक था और उत्पादन काफी कम । ऊपर से नील की फैक्ट्री चलाने वाले मालिक उत्पादों का सही मूल्य भी नहीं देते थे । ऐसे में शेख गुलाब, हरवंश सहाय , पीर मोहम्मद मुनीस, संत रावत और लोमराज सिंह जैसे लोगों ने अपने स्तर पर शोषणकारी ताकतों के खिलाफ अभियान चलाया। उनके प्रयासों से किसानों को कुछ राहत मिली लेकिन वह तपते रेगिस्तान में पानी के कुछ बूंदों के समान ही थी कंठ भीगा लेकिन शरीर की प्यास ज्यों की त्यों बनी रही। सभी इस बात से सहमत थे कि जबरदस्ती नील उत्पादन कराने की तीन कठिया प्रणाली को समाप्त किए बिना चंपारण के किसानों का भला होने वाला नहीं है। लेकिन ब्रिटिश हुक्मरान उनकी इस मांग को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं थे।

ऐसे में राजकुमार शुक्ल ने मोहनदास करमचंद गांधी को किसानों का दु:ख-दर्द जानने के लिए आमंत्रित किया। उन्हें कई चिट्ठियां लिखी। तब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में किए गए अपने प्रयासों की सफलता के कारण राष्ट्रीय क्षितिज पर उदयीमान हो रहे थे । 1916 ई. में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में शामिल होने के लिए वह भी वहां आए हुए थे। राजकुमार शुक्ल भी लखनऊ पहुंचे और गांधी जी को चंपारण आने के लिए निमंत्रण दिया। गांधीजी ने टाल दिया। राजकुमार शुक्ल ने पुनः अनुरोध किया… पुनः अनुरोध किया। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ”माय एक्सपेरिमेंट विथ ट्रुथ” यानी सत्य के प्रयोग में राजकुमार शुक्ल के बारे में कहा है- ‘राजकुमार शुक्ल नामक चंपारण के एक किसान थे । उन पर दु:ख पड़ा था । यह दु:ख  उन्हें अखरता था । लेकिन अपने इस दु:ख के कारण उनमें नील के इस दाग को सबके लिए धो डालने की तीव्र लगन पैदा हो गई थी ।

साल 2000 में राजकुमार शुक्ल पर जारी की गई डाक टिकट

इसी लगन के कारण राजकुमार शुक्ल ने लखनऊ अधिवेशन के दौरान कई बार गांधी जी से मुलाकात की और उनसे चंपारण आने के लिए अनुरोध किया। गांधीजी लखनऊ के बाद जब कानपुर गए तो राजकुमार शुक्ल भी कानपुर पहुंच गए और गांधीजी से कहा कि चंपारण यहां से काफी नजदीक है। आप यहीं से चंपारण चलिए। लेकिन उस समय गांधी जी चंपारण आने के लिए राजी नहीं हुए। उन्होंने राजकुमार शुक्ल को आश्वासन दिया कि बाद में चंपारण आएंगे।

1917 में महात्मा गांधी कोलकाता गए। इसकी सूचना राजकुमार शुक्ल को लग गई तो वह महात्मा गांधी को बुलाने के लिए कोलकाता पहुंच गए। इस बार उनका प्रयास रंग लाया और गांधी जी चंपारण आने के लिए राजी हो गए। अपनी आत्मकथा में गांधी जी ने लिखा है कि चंपारण आने से पहले उन्हें इस क्षेत्र के बारे में काफी कम जानकारी थी। लेकिन राजकुमार शुक्ल ने किसानों की दयनीय स्थिति का हवाला देते हुए उनसे इतना ज्यादा अनुरोध किया कि वह चंपारण आने के लिए बाध्य हुए। कोलकाता से चंपारण आने के लिए गांधीजी और राजकुमार शुक्ल पहले रेलगाड़ी से पटना आए। पटना में दोनों पहले डॉ राजेंद्र प्रसाद के आवास पर गए लेकिन राजेंद्र बाबू से उनकी मुलाकात नहीं हुई। फिर दोनों मौलाना मजहरुल हक से मिले। मोहनदास करमचंद गांधी और मौलाना मजहरुल हक की पहले से ही जान पहचान थी। दोनों ने लंदन में ही बैरिस्टरी की पढ़ाई की थी। 1915 के कांग्रेस अधिवेशन में भी दोनों मिल चुके थे। मौलाना मजहरुल हक ने गांधी जी को रेलगाड़ी से ही चंपारण जाने की सलाह दी और वह दोनों पटना से मुजफ्फरपुर के लिए रवाना हुए।

10 अप्रैल,1917 की देर रात दोनों मुजफ्फरपुर पहुंचे। गांधीजी के पूर्व परिचित आचार्य जे बी कृपलानी ने अपनी शिष्य मंडली के साथ मुजफ्फरपुर स्टेशन पर उनका स्वागत किया। कुछ दिनों तक मुजफ्फरपुर में रहकर उन्होंने स्थानीय वकिलों के साथ विस्तार से बात की और चंपारण के किसानों को तीनकठिया प्रणाली से मुक्त कराने के विभिन्न उपायों पर विचार किया। उन्होंने वकीलों को इस बात के लिए राजी कर लिया कि किसानो को मुकदमेबाजी के मार्फत से तिनकठिया प्रणाली के चंगुल से निकाला नहीं जा सकता । इसके लिए सामाजिक-राजनीतिक लड़ाई लड़नी होगी। उन्होंने अहिंसा का रास्ता चुना। इस तरह चंपारण गांधीजी के सत्य और अहिंसा के प्रयोग की प्रथम भूमि बनी।

लोगों को संबोधित करते महात्मा गांधी

यहां पर उन्होंने किसानों के साथ-साथ नील के मिल मालिकों और तिरहुत प्रमंडल के कमिश्नर से भी मुलाकात की। उन्होंने दोनों को समझाना चाहा। लेकिन स्थानीय कमिश्नर ने उन्हें धमकी दे दी कि किसानों के लिए काम करने की जगह तुरंत ही तिरहुत छोड़कर चले जाएं। गांधी जी को यह मंजूर नहीं था। वह राजकुमार शुक्ल और अन्य किसानों के साथ मोतिहारी चले गए। राजकुमार शुक्ल भी चाहते थे कि गांधी बेतिया के आसपास के क्षेत्र में जाकर किसानों की स्थिति का जायज़ा लें क्योंकि वहां की कोठियों के किसान ज्यादा-से-ज्यादा कंगाल थे।

अपने चंपारण प्रवास के दौरान गांधीजी अधिक से अधिक किसानों से मिलें। उनकी समस्याओं को उजागर किया। नीलहों को भी उन्होंने विनय से जीतने का प्रयास किया। जिस किसी नीलहे के खिलाफ विशेष शिकायत आती थी, गांधीजी उसे पत्र लिखते थे। लेकिन अधिकांश नीलहे अन्य भारतीयों की तरह गांधी जी का भी तिरस्कार करते। कुछ उदासीन रहते  जबकि कोई- कोई  सभ्यता और नम्रता का व्यवहार भी करते। गांधी जी और राजकुमार शुक्ल सहित सभी किसान नेताओं ने  प्रण ले रखा था कि कोठी मालिकों का व्यवहार  चाहे जैसा हो  वह सभी  विनती के अपने स्वर मैं कड़वाहट नहीं घुलने  देंगे।

गांधीजी और राजकुमार शुक्ल के प्रयासों से नीलहे किसानों की समस्याओं की जांच के लिए तत्कालीन गवर्नर सर एडवर्ड गेट में एक जांच समिति नियुक्त किया। सर फ्रेंक स्लाई इस जांच समिति के अध्यक्ष बनाए गए और मोहनदास करमचंद गांधी एक सदस्य । समिति का सदस्य बनने के लिए गांधी जी ने शर्त रखी थी कि उन्हें चंपारण के किसानों की समस्याओं पर सलाह-मशविरा करने के लिए स्थानीय लोगों से मिलने जुलने की इजाजत रहेगी और समिति में वह किसानों की हिमायत करते रहेंगे।

फ्रैंक स्लाई की अध्यक्षता वाली समिती ने चंपारण के किसानों की सारी शिकायतों को सही ठहराया और नीलहे गोरों को किसानों की बकाया राशि वापस करने के लिए बाध्य किया। जांच समिति ने तीन कठिया से संबंधित कानूनों को रद्द करने की भी सिफारिश की । तत्कालीन गवर्नर एडवर्ड गेट ने सूझबूझ का परिचय देते हुए नीलहों के प्रबल विरोध के बावजूद समिति की सिफारिशों के अनुकूल कानून बनाया और दृढ़ता से समिति की सिफारिशों को पूरा पूरा लागू कराया । यह  चंपारण के किसानों की बड़ी जीत थी। गांधीजी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं-‘ इस प्रकार सौ साल से चले आने वाले तीन कठिया के कानून के रद्द होते ही नीलहे अंग्रेज़ों के राज्य का अस्त हुआ । जनता का जो समुदाय बराबर दबा ही रहता था, उसे अपनी शक्ति का कुछ भान हुआ और लोगों का यह भ्रम दूर हुआ कि नील का दाग धोए धुल ही नहीं सकता ।

चंपारण के लोगों के बीच चेतना की जागृति के लिए मोहनदास करमचंद गांधी ने भितिहरवा में एक आश्रम भी खोला। उन्होंने शिक्षा, सफाई एवं औषधोपचार के कामों में अनेक स्वयंसेवकों को लगाया जिसमें राजकुमार शुक्ल प्रमुख थे। स्वयंसेवकों के सद्प्रयासों से जनता का विश्वास और आदर प्राप्त हुआ और  स्वतंत्रता संग्राम के लिए  सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले अनेक सिपाही तैयार होते चले गए।

चंपारण सत्याग्रह के दौरान सभी कार्यों में राजकुमार शुक्ल हमेशा गांधी जी के साथ रहे। चंपारण सत्याग्रह के बाद गांधीजी को खेड़ा में किसानों के आंदोलन के नेतृत्व के लिए जाना पड़ा। ऐसे में उन्होंने राजकुमार शुक्ल को भितिहरवा आश्रम में संगठन का काम देखने के लिए कहा। एक सच्चे अनुयायी की तरह राजकुमार शुक्ल ने गांधी जी के सारे आदेशों को माना और संगठन का काम देखना जारी रखा। उन्होंने असहयोग आंदोलन में भी बढ़कर करके भाग लिया। अपनी सारी जमा-पूंजी किसानों और गरीबों की सहायता में लगा दी। गांधी जी की अनुपस्थिति में चंपारण क्षेत्र में वह लगातार गांधीजी के सिद्धांत पर चलते हुए हुक्मरानों की गलत नीतियों का विरोध करते रहे और किसानों के लोकप्रिय नेता बने रहे। उन्होंने कई बार पत्र लिख कर गांधी जी को  फिर से चंपारण आने के लिए अनुरोध किया। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से गांधीजी की गतिविधियों की जानकारी  लेते रहे और उनका संदेश चंपारण की जनता तक पहुंचाते रहे। अंग्रेजी हुक्मरान भी  लगातार उनकी जासूसी करती रही और उन्हें तंग करने का कोई भी मौका बर्बाद नहीं होने दिया।

निलहे कोठी वाले भी राजकुमार शुक्ल को तंग करते रहे। उनको तंग करने वालों में ऐमन प्रमुख था। वह भी एक नील फैक्ट्री का मालिक था। अन्य फैक्ट्री मालिकों की तरह उसके मन में भी राजकुमार शुक्ल के लिए नफरत थी। शायद कुछ ज़्यादा ही। उसने पुलिस में  राजकुमार शुक्ल के खिलाफ कई झूठी शिकायतें दर्ज करायी- राष्ट्रद्रोह से लेकर  मछली की चोरी तक के आरोप लगे। कई बार जेल भी जाना पड़ा। लेकिन राजकुमार शुक्ल गांधीवादी रास्तों पर ही चलते रहे। पत्रों के माध्यम से गांधीजी से मार्गदर्शन भी प्राप्त करते रहे और गांधीजी से बार-बार अनुरोध करते रहे कि वह चंपारण आएँ। अपनी व्यस्तताओं के कारण जब गांधी जी चंपारण नहीं आ पाए तो उन्हें बुलाने के लिए 1929 में राजकुमार शुक्ल स्वयं ही साबरमती आश्रम पहुंच गए। परंतु अन्य कार्यक्रमों में व्यस्त रहने के कारण गांधी जी का चंपारण दौरा नहीं हो पाया । गांधीजी ने राजकुमार शुक्ल को चंपारण क्षेत्र में ही काम करने के लिए वापस भेजा।

लेकिन चंपारण वापस आने के बाद राजकुमार शुक्ल बीमार रहने लगे। इसी वर्ष 54 वर्ष की अवस्था में संघर्ष का परचम 25 वर्षों तक लगातार लहराने वाले राजकुमार शुक्ल का मोतिहारी में निधन हो गया। उनकी मृत्यु पर उन के सबसे बड़े विरोधी ऐमन ने उन्हें चंपारण का अकेला मर्द करार दिया और उनके दाह संस्कार के लिए यह कहते हुए ₹300 दिए कि उनका सारा धन दौलत या तो मैंने हड़प लिया है या मेरे खिलाफ लड़ाई करते हुए वह खर्च कर चुके थे ।

संभवत वह एक अविस्मरणीय पल रहा होगा जब एक संघर्ष पुरुष का सबसे बड़ा विरोधी उसकी संघर्षधर्मिता के पक्ष में नतमस्तक हुआ । सतबड़िया गांव में जब राजकुमार शुक्ल का श्राद्धकर्म हुआ तो उसमें डा. राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा और कई प्रमुख कांग्रेसी नेताओं के साथ-साथ निलहे कोठी का वह अंग्रेज मालिक ऐमन भी शामिल हुआ।

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