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दोष मेरे सांवले रंग में नहीं तुम्हारी सोच में है

‘अरे! तुम व्हाइट कपड़े मत पहना करो, तुम्हारा कलर डार्क है न तो यह तुम पर सूट नहीं करता…’
‘तुम्हारी शादी होनेवाली है तो रोज हल्दी-बेसन का उबटन लगाया करो, एक हफ्ते में रंग निखर जायेगा…’
‘उस कल्लूराम को देख के लगता भी है कि वह पढ़ता भी होगा…’

सांवले या गहरे रंगवाले लोगों को ऐसे ही न जाने कितने बेवकूफी भरे कमेंट्स से रोज़ दो-चार होना पड़ता है। अरे क्यों भई? अगर कोई काला या सांवला है, तो इसमें उसकी क्या गलती है और अगर कोई गोरा है या किसी का रंग साफ है, तो उसमें कौन-से सुर्खाब के पर लगे हैं कि वह आसमान से चांद तोड़ लायेगा?

ऐसा सोचने वाले लोग एक बार भी यह क्यों नहीं सोचते कि जिन लोगों पर इस तरह के कमेंट्स किये जाते हैं या जिन्हें ऐसी सलाह दी जाती है, उन पर क्या बीतती होगी? उन्हें कैसा फील होता होगा? सच तो यह है कि त्वचा या त्वचा के रंग को लेकर किये गये इस तरह के व्यंग्य में उनकी अपनी सोच झलकती है। यह उनकी अंतर्निहित टोन, विचार और मानसिकता की उस ग्रंथि से निकलती है, जो कि हमारे देश में गोरेपन की अभिलाषा से जुड़ी है। जिसका एक सिरा जातिवाद से जुड़ा है और दूसरा, श्रेष्ठता ग्रंथि से।

हमारी इसी कमज़ोरी का फायदा उठाया है विज्ञापन जगत ने, गोरेपन का उत्पाद बेचने वाली कंपनियों ने। उस पर से विज्ञापनों का स्तर भी कैसा- ‘हमारी क्रीम को लगाने से आपकी ज़िंदगी बदल जाएगी’, ‘मनचाही नौकरी, मनचाहा वर मिलेगा’, ‘अन्याय के खिलाफ़ खड़े होने की ताकत देगा’, वगैरह-वगैरह। इस तरह के विज्ञापन व्यक्ति की त्वचा के रंग को उसके आंतरिक गुणों व उसकी क्षमता से अधिक तरजीह देते हैं मानो उसकी कामयाबी में इनकी कोई भूमिका ना हो।

पिछले कुछ दिनों से ऐसे ही भ्रामक विज्ञापनों को लेकर सोशल मीडिया पर ज़ोरदार बहस जारी है। इसकी शुरुआत अभय देओल के एक पोस्ट से हुई, जिसमें उन्हें गोरेपन के उत्पादों का विज्ञापन करनेवाले तमाम सेलिब्रेटीज़ को जमकर लताड़ लगायी है। पिछले कुछ समय से इस तरह के विज्ञापनों को लेकर सरकार का रवैया भी थोड़ा सख्त हुआ है। इसके बावजूद सामाजिक स्तर पर देखें तो हम आज भी खुद को इस मानसिकता से मुक्त नहीं कर पा रहे हैं कि जो गोरा है वह निश्चित तौर से उच्च जाति का व पढ़ा-लिखा होगा और जो सांवला या काला है, वह निम्न जाति का अनपढ़ या गंवार होगा।

गोरी त्वचा न होने का जो मलाल आम भारतीय परिवारों में देखा जाता है, उसकी चपेट में सबसे ज़्यादा लड़कियां ही आती हैं। उनकी कद्र घट जाती है और उन्हें कई तरह की अप्रिय स्थितियों का सामना करना पड़ता है। यह सोच और यह मानसिकता आज भी लाखों-करोड़ों भारतीय घरों में स्त्री शोषण का कारण बना हुआ है।

द गार्डियन अखबार में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में त्वचा के गोरेपन का लक्षित बाजार 2010 में 43 करोड़ डॉलर से भी ज़्यादा का था और ये करीब 18 फीसदी की दर से हर साल बढ़ रहा है। इसी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भारतीय मध्यवर्ग किस हद तक फेयरनेस ऑब्सेस्ड है। देह के कालेपन को मिटाने की उसकी कामना दिन-ब-दिन विकराल होती जा रही है। नतीजा बाज़ार में फेयरनेस उत्पादों की बिक्री कम होने के बजाय दिन-दुनी रात चौगुनी बढ़ती ही जा रही है।

क्या वास्तव में हमारी त्वचा का रंग हमारी बौद्धिकता, हमारे विचार और हमारे कौशल को प्रभावित करता है? अगर ऐसा होता, तो स्मिता पाटिल, काजोल, बिपाशा बसु, नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे कलाकारों को तो कोई पूछता भी नहीं, जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है। हमें यह समझने की ज़रूरत है कि हम आम भारतीयों का रंग गोरा नहीं होता। कारण कि हम एक उष्णकंटिबंधीय प्रदेश में रहते हैं। यहां का मौसम, यहां की आबो-हवा इन सबके प्रभावस्वरूप हमारी त्वचा का रंग निर्धारित होता है। इसका हमारे आंतरिक गुणों और क्षमता से कोई लेना-देना नहीं।

चमड़ी तो मात्र हमारे शरीर का एक नाजुक आवरण है, जिसकी मोटाई दो मिलीमीटर से ज़्यादा नहीं होती। इसका मुख्य काम शरीर के अंगों की सुरक्षा करना है। यह शारीरिक संवेदनाओं को पैदा करने में भी सक्षम है, लेकिन इन कामों में हमारी त्वचा के रंग की कोई भूमिका नहीं है। इंसान की सुंदरता का आकलन केवल उसके बाहरी आवरण से नहीं हो सकता। यह समझने के लिए हमें अपने मस्तिष्क के बंद कपाटों को खोलना होगा।

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