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जब जनता मूलभूत सुविधाओं से मरहूम है तो लोकतंत्र सफल कैसे

संसदीय प्रणाली यूं तो दिखता बहुत अच्छा है परन्तु ऐसा प्रतीत होता है जैसे ये किसी चिराग का जिन्न है, जिसके हाथ गया शक्ति उन्हीं के हाथ में। आज़ादी से लेकर आज तक न जाने कितनी सरकारें आयीं और गईं। इस प्रणाली की समस्या यह है कि जिस संविधान को योग्य, कर्मठ, शिक्षित, उदारवादी, सभी वर्गों के हित की रक्षा करने वाले प्रतिनिधित्व की ज़रूरत थी, परन्तु उसके विपरीत अयोग्य, हिंसक,अपराधिक प्रवृति के व्यक्ति ‘सत्ता’ में आकर संवैधानिक मर्यादाओं को शर्मशार करते हैं।

भारत एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ देश है सभी लोग अपने अपने धर्म का पालन करने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन सियासी राजनीति में धर्म की राजनीति करने से भी बाज नहीं आते, जिसके कारण लोकतंत्र की गरिमा को हानि पहुँचती है। इन्हीं कारणों से देश में कई सियासी दल बन गए हैं। सभी का उद्देश्य किसी तरह से ‘सत्ता’ को हासिल करना है। संसद तक पहुंचे नहीं की अपने उद्देश्यों को पूरा करने का प्रयास शुरू हो जाता है।

आज़ादी के 70 वर्षों के बाद भी देश में गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, कमज़ोर आर्थिक नीतियाँ, ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए बनाई गई नीतियों को ठीक से पूरा नहीं करना, ऊपर से नीचे सभी सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार व्याप्त होना, उपेक्षित समाज के ऊपर होने वाले अन्यायों का बढ़ना, देश में महिला की सुरक्षा के लिए कड़े कानून की अवहेलना, देश में समान शिक्षा के दो तरफा नियम, निजी स्कूलों एवं सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर में अंतर, कट्टरपंथी संगठनो में वृद्धि, जातिवाद एवं धार्मिक तनाव में निरंतर वृद्धि ही हुई है।

इन सभी समस्याओं को लेकर किसी भी जनता के प्रतिनिधियों ने खुल कर निस्वार्थ और एकजुट होकर आंदोलन नहीं किया। राजनीतिक लाभ एवं सत्ता के लिए इन सभी समस्याओं को जानबूझ कर दरकिनार करते रहे ताकि हर पांच वर्ष के बाद जनता से इन्हीं समस्याओं के बहाने वोट मांग सके। लेकिन ये राजनीतिक पार्टियां सत्ता पक्ष में आते ही अपने कलुसित उद्देश्यों में लग जाते हैं। यही कारण है कि आज़ादी के बाद और वर्तमान में कई ऐसे जघन्य घोटाले के लिए मंत्री एवं अधिकारीयों पर आरोप लगते रहे हैं और कई मामले हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में लंबित पड़ी हुई हैं जिनके आरोपियों को आज तक क़ानूनी तौर पर कोई सज़ा नहीं दी गई है।

शहर से लेकर गाँव तक शिक्षा, पेय जल, मकान, उन्नत कृषि, व्यापार की उन्नति में संसद का ही योगदान होता है यहीं से प्रत्येक योजनाओं के लिए कोष की व्यवस्था की जाती है। अरबों-खरबों का हिसाब होता है। वरन् संसद में इन विषयों पर सिर्फ चर्चा करने के एक एक सत्र (मीटिंग) में लाखों रूपये खर्च होते है, लेकिन देश में व्याप्त समस्याओं का समाधान पूर्ण रूप से नहीं हो पाया है।

सही मायने में मैं ‘लोकतंत्र’ को तभी सफल मानूंगा जब कोई सरकार देश की जनता को उनके मूलभूत ज़रूरतों जैसे स्वच्छ पानी , बिजली , रोटी (रोज़गार ) घर एवं बच्चो के लिए शिक्षा उपलब्ध करा दे। देश की जनता की आशाओं और विश्वास के द्वारा जब कोई राजनीतिक पार्टी सत्ता में आती है तब सत्तासुख में देश की जनता को भूल जाना उस पार्टी के मंत्रियों को मिलने वाली शक्तियों का दुरुपयोग नहीं तो क्या है?

आज देश को चलाने वाले लोगों की नैतिक पृष्टभूमि की निष्पक्ष जांच करके देख लीजिये ज़्यादातर लोग किसी न किसी अपराधिक मामले में पाये जायेंगे। फिर यह और भी बेमानी लगने लगती है कि एक अपराधिक प्रवृति के व्यक्ति के हाथ में देश को चलाने की शक्ति दी जाए और वह व्यक्ति उन शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करेगा इसकी कोई गारंटी नहीं! अब देश की जनता को ही तय करना होगा की इन्हें शोषण करने वाले लोग चाहिये या जनता के दुख और दर्द को समझने वाले और उनके समस्याओं का हल निकालने वाले योग्य व्यक्तियों का समूह चाहिये ।

आज राजनीतिक और धार्मिक शक्तियों का नियंत्रण चंद पूंजीपतियों के हाथो में है ताकि ‘सत्तापक्ष दल ‘को अपने हाथों की कठपुतली बना सके। कुछ झोला छाप दलाल लोगों की कुटिल आकांक्षाओं और लालच का शिकार इस देश का सबसे कमज़ोर तबका यानी गरीब, असहाय जनता ही है जो वर्षों से जुल्मों का शिकार होता आया है, मरता आया है, पिसता और कुचलाता आया है। कभी जाति के नाम पर! कभी धर्म के नाम पर! और कभी विकास के नाम पर! कीमत सिर्फ जनता को ही चुकानी पड़ती है। आज देश बेरोजगारी और भूखमरी से परेशान नहीं है वरन धनाढ्य ,दबंगो, नेताओं और लुच्चे लोगों के शोषण और अन्याय से परेशान है, इस प्रकार की ज्यादती और बेसलूकी भारत में सैकड़ों वर्षों से होती आ रहा है। इंसानियत के नाते इस प्रकार की असमानतापूर्ण व्यवहार का अंत अब हो ही जाना चाहिए।

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