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सहारनपुर में हुई जातीय हिंसा का सच

जाकिर चौधरी

उत्तर प्रदेश में जब से भाजपा की सरकार आई है तब से ऐसा लगता है जैसे सहारनपुर क्षेत्र को किसी की नज़र लग गयी हो। कुछ दिन पहले चिलकाना में सैनी समाज के कुछ उपद्रवी लोगों ने  दलितों पर हमला बोला। होली के अवसर पर राजपूतों और दलितों के बीच झगड़े की खबर आई थी। ताज़ा घटना को ध्यान में रखें तो सहारनपुर के ग्राम शब्बीरपुर में दलित, बाबा साहब अंबेडकर की प्रतिमा लगाना चाह रहे थे। इस स्थान पर क़ानूनी तौर पर अधिकार दलितों का ही है। इस गाँव के राजपूतों को दलितों द्वारा अम्बेडकर की प्रतिमा को लगाने तथा प्रतिमा का चबूतरा ज़्यादा ऊंचा बनवाए जाने से आपत्ति थी। इस कार्य को राजपूतों ने रुकवा दिया। दलितों में सहमति बनी कि इस कार्य को प्रशासन की अनुमति लेने के बाद ही शुरू कराया जाये। इसलिए कार्य वहीं  ठप्प हो गया।

इसके कुछ दिन बाद राजपूतों ने बिना अनुमति के महाराणा प्रताप के जन्मदिन यानि 9 मई को “शौर्य दिवस” का जूलुस निकाला। शौर्य दिवस मनाने की अनुमति तो प्रशासन ने एक पार्क में दी थी लेकिन जुलूस निकालने की अनुमति नहीं दी क्यूंकि कहीं न कहीं प्रशासन को भी किसी अनुचित घटना घटित हो सकने का अंदेशा था। शौर्य दिवस मनाने के लिया हरियाणा, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के राजपूत समुदाय के लोग इकठ्ठा हुए थे. गैरकानूनी ढंग से जलूस निकालने के बाद राजपूत समुदाय के लोगों ने संत रविदास के मंदिर के सामने ऊँची और तेज़ आवाज़ में गाने बजाये। शोर शराबे पर जब दलितों ने आपत्ति जताई तो कहासुनी और झड़प हुई। उसके फलस्वरूप राजपूत समुदाय के लोगों ने संत रविदास मंदिर के अन्दर जाकर संत रविदास की प्रतिमा को क्षति पहुंचाई। इन सभी हरकतों और घटनाओं से आप अंदाजा लगा सकते है कि किस तरह से राजपूत समुदाय के लोग दलितों को डराने और उकसाने का प्रयास कर रहे थे।

इसी बीच जब झुण्ड का एक व्यक्ति प्रतिमा को तोड़कर मंदिर से बाहर आ रहा था तभी वह अचानक से चक्कर खाकर ज़मीन में गिरा और उसकी मृत्यु हो गई। यह बात पोस्ट मॉर्टेम रिपोर्ट में भी साबित हुई कि उस व्यक्ति की मृत्यु स्वतः हुई और उसके शरीर पर किसी भी प्रकार की चोट का कोई निशान नहीं पाया गया है।

एक स्थानीय निवासी के अनुसार झड़प शुरू होने के थोड़ी देर बाद लगभग दो हज़ार राजपूत इकठ्ठा हो गए। राजपूत समुदाय के लोग फ़ोन पर फ़ोन किये जा रहे थे और सभी लोग लाठी, तलवार और अन्य हथियारों से लैस थे। उनहोंने शब्बीरपुर के गरीब, असहाय और निहत्थे दलितों पर धावा बोल दिया और लगभग 30 घरों को जलाकर नष्ट कर दिया। इसी बीच दलितो में हाहाकार मच गया और वह किसी तरह अपनी जान बचा कर सुरक्षित स्थानों पर भागे। राजपूत समुदाय की जो भीड़ दलितों पर आक्रमण कर रही थी उसमें लोग “जय राजपूताना” के नारे लगा रहे थे साथ ही साथ यह भी कह रहे थे कि “जय भीम नहीं जय राजपूताना बोलना होगा।”

आगजनी के बाद का दृश्य

उपद्रवी भीड़ के सामने जो भी आ रहा था उसे वो अपना निशाना बना रहे थे, चाहे वो छोटे और मासूम बच्चे हों या फिर गर्भवती और बूढ़ी महिलाएं। एक महीने की गर्भवती महिला को तलवार से मारा गया लेकिन सौभाग्य से वह बच गई। कई घायल व्यक्ति सहारनपुर और देहरादून के अस्पतालों में भर्ती हैं। दलित समुदाय नाराज़ है कि जहाँ एक तरफ उनसे हमेशा प्रशासन की अनुमति दिखाने को कहा जाता है वहीं दूसरी तरफ राजपूतों से कोई पूछताछ नहीं होती। यहाँ तक अवैध रूप से जुलुस निकालने के लिए भी कोई रोक टोक नहीं है। शब्बीरपुर के दलित समुदाय के कुछ वरिष्ठ लोगों ने दोषियों के खिलाफ जल्द से जल्द कार्यवाही करने और पीड़ितों के भोजन, देखरेख और पुर्नवास की व्यवस्था के लिए प्रशासन को ज्ञापन सौपा है।

इसके उपरांत सहारनपुर के रविदास छात्रावास में एक सभा बुलाई गयी जिसमें शब्बीरपुर के पीड़ित दलितों की मांगों को कैसे प्रशासन तक पहुँचाया जाए इस पर चर्चा होनी थी। उसी सभा में पीड़ितों को राहत पहुँचाने के लिए जब चंदा इकट्ठा किया जा रहा था तभी पुलिस वहां पहुँच गई और उपस्थित लोगों को भगा दिया। उसके बाद सभी लोग गाँधी मैदान पहुंच गए और वहां पर चर्चा के दौरान पी.ए.सी. ने लाठी चार्ज कर दिया। इस बर्बर लाठी चार्ज से मामला हाथ से निकल गया। इससे दलित समुदाय के लोगों में काफी आक्रोश पैदा हुआ और प्रतिरोध स्वरुप उनहोंने सरकारी बस से लोगों को निकाल कर बस को जलाया। ज्ञात हो की गुस्साए दलित समाज के लोगों द्वारा आगजनी के वाकयों में एक भी व्यक्ति को चोट नहीं पहुंची है।

सहारनपुर की इस घटना के बाद SP और DSP बार बार आते जाते रहे लेकिन शब्बीरपुर में एक बार भी जाने का कष्ट नहीं किया। पीड़ित दलितों की न तो कोई खैर खबर ली गयी और न ही कोई राहत प्रदान किया गया। वहीं दूसरी तरफ शासन-प्रशासन और स्थानीय मीडिया के लोग राजपूत समुदाय के लोगों को निर्दोष और दलित समुदाय के लोगों को उपद्रवी, दंगाई बताने के साथ साथ इनके तार नक्सलियों से जोड़ रहे हैं। जबकि सच्चाई इसके एकदम उलट है।

दलितों की तरफ से हुई सांकेतिक हिंसा स्वत:स्फूर्त थी और उनके आत्मसम्मान को कुचले जाने के प्रतिरोध में हुई। इन घटनाओं से अनुमान लगाया जा सकता है कि राज्य में एक राजपूत के मुख्यमंत्री बनने के बाद राजपूत समाज के लोगों को किसी का भी भय नहीं रहा और प्रशासन का संरक्षण भी उन्हें प्राप्त है। महाराणा प्रताप के जन्मदिवस पर तलवार और अन्य हथियार लेकर शौर्य दिवस मनाने आये और वहीं तलवारें लेकर शब्बीरपुर में दलितों को मारने और काटने पहुँच जाते हैं। इससे आप राजपूतों के द्वारा किये शोषण और दबंगई का अंदाजा लगा सकते हैं। पुलिस और प्रशासन का पक्षपातपूर्ण रवैया जगज़ाहिर है। वहीं कोई भी राजनीतिक पार्टी इस मामले में न तो खुलकर सामने आ रही है और न ही किसी भी प्रकार कोई सहायता पहुंचा रही है।

पिछले दिनों सवर्णों की बर्बरता का एक और उदाहरण रशीद्गढ़ (थाना भवन) में सामने आया जहां सवर्णों ने अम्बेडकर की एक प्रतिमा को क्षतिग्रस्त कर दिया। सहारनपुर के बडगांव में पिछले दो बार से दलित प्रधान बन रहे हैं जबकि इससे पहले वहां का प्रधान कोई राजपूत समुदाय से ही होता था। दलित प्रधान इसलिए बन रहा है क्यूंकि दलित और अन्य पिछड़ी जातियों के लोग एक जुट होकर दलित प्रधान को निर्वाचित करते हैं। यह बात राजपूतों के गले से नहीं उतर रही है।

स्थानीय मीडिया द्वारा दलित समाज, और ख़ास तौर पर भीम आर्मी से जुड़े लोगों को, गुंडे, नक्सली और दंगाई के रूप में प्रचारित किया जा रहा है ताकि शब्बीरपुर की घटना पर पर्दा डालते हुए राजपूतों के अत्याचारों को छुपाया जा सके। यह निंदनीय है और सारे सामाजिक और नागरिक अधिकार संगठनों को इस का जम कर विरोध करना चाहिए।

[ज़ाकिर चौधरी ग्लोकल यूनिवर्सिटी में BALLB के छात्र हैं और मानव अधिकार के क्षेत्र में विशेष रुचि रखते हैं]  

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