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“लेस्बियन होने के कारण मुझे हर वक्त भेदभाव का सामना करना पड़ा”

तब मुझे लेस्बियन शब्द का मतलब भी पता नहीं था लेकिन मैं जानती थी कि मैं कौन हूं। मुझे बचपन से ही पेंटिंग करना बहुत पसंद था और फिर एक दिन मैंने एक खास तस्वीर देखी जिसमें दो औरतों को प्रेम करते हुए दिखाया गया था। इस पेंटिंग को देखने के बाद मैं खुद को पहचान चुकी थी। हालांकि मेरे मां-बाप ने मुझे बहुत परेशान किया लेकिन किसी की पहचान को आप कैसे बदल सकते हैं?

मेरा जन्म पश्चिम बंगाल के एक छोटे से शहर दुर्गापुर में हुआ और मैं यहीं पली-बढ़ी लेकिन यहां के माहौल में मुझे मेरी सेक्शुएलिटी को पहचानने और जानने के मौके उस तरह से नहीं मिले जैसे मेरी बहन को मिले। कारण बस एक था कि वो हेट्रोसेक्शुअल (विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित होने वाले लोग) है और मैं होमोसेक्शुअल (समलैंगिक)। मैं केवल लड़कियों के प्रति ही आकर्षित होती हूं, और इसलिए जो मैंने महसूस किया उसे कोई और नहीं समझ सकता।

मेरी लैंगिक पहचान (सेक्शुअल आइडेंटिटी) के कारण मुझे हर वक़्त भेदभाव का सामना करना पड़ा और इस भेदभाव ने ही मुझे खुलकर सबके सामने आने के लिए प्रेरित किया। सबसे पहले मैंने अपने माता-पिता को इस बारे में बताया जिसके बाद मेरे सभी रिश्तों की सच्चाई मेरे सामने आ गई। मेरे माता-पिता का दोहरा चरित्र अचानक से मेरे सामने आ चुका था। ये वो समय था जब मेरी गर्लफ्रेंड ने मुझे छोड़ दिया और मैं यही सोचती रहती थी कि मुझमें क्या कमी है और मेरे साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है। उस दौरान हर समय हर पल मैं खुद से और इस समाज से जूझ रही थी।

जो सवाल मुझे सबसे ज़्यादा परेशान करता था और मुझे डराता था वो ये था कि मुझे क्यों मेरी पहचान छुपानी पड़ रही है? अगर मैं खुद ही अपनी पहचान को नहीं अपना सकती, उसके साथ सहज नहीं हो सकती तो किसी और से मैं ये उम्मीद कैसे कर सकती हूं?

इस कश्मकश ने मुझे कई चीज़ें सिखाई और इनमें सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है, “शोर मचाने का कोई फायदा नहीं, मेरा काम और मेरी उपलब्धियां ही मेरी कहानी कहेंगी।” मेरे माता-पिता अब भी समलैंगिकता को नहीं समझ पाते हैं और अब मुझे भी उन्हें कुछ समझाने की ज़रूरत भी महसूस नहीं होती।

मैं अब भी नहीं समझ पाती कि मैंने क्यों इतने समय तक मेरी सेक्शुएलिटी को छुपाकर रखा? मुझे सही होने के लिए किसी के अप्रूवल की ज़रूरत नहीं है। एक इंसान की सेक्शुएलिटी जैसा संवेदनशील विषय केवल समाज में बातें करने के लिए नहीं है। ये समझना चाहिए कि ये किसी की पहचान से जुड़ा हुआ है।

LGBTQ+ समुदाय के लोगों से मैं यही कहना चाहूंगी कि कभी भी हार मत मानिए, खुद पर भरोसा रखिये। लोग आपको समझेंगे और अगर वो नहीं समझ पाते हैं तो भी ये कोई मायने नहीं रखता। एक झूठी पहचान के साथ जीने का कोई अर्थ नहीं है, ना इसमें कोई सम्मान है और ना संतोष। खुद से ईमानदार होना बेहद ज़रूरी है जो आपको ताकत देगा।

आज मैं दुर्गापुर के एक पब्लिक सेक्टर बैंक में अधिकारी हूं, मेरे बहुत से सहकर्मियों को मेरी सेक्शुएलिटी, मेरी लैंगिक पहचान के बारे में पता है। शुरुआत में इनमें से कई लोगों का व्यवहार मेरे साथ अच्छा नहीं था, लेकिन अब वो मुझे समझने का प्रयास करते हैं।

दुर्गापुर जैसे छोटे से शहर में लैंगिक पहचान जैसे मुद्दों पर संवेदनशीलता और जागरूकता लाने के प्रयास के कोई खास मायने नहीं हैं। जब किसी को दी गयी शिक्षा ही आधी अधूरी या गलत हो तो उनसे कैसे सेक्शुएलिटी जैसे जटिल विषय को समझने की उम्मीद की जा सकती है? ऐसे बहुत से इंजीनियरिंग कॉलेज और शिक्षण संस्थान हैं जहां इस विषय पर जागरूकता लाने पर काम किया जा सकता है। इसके लिए सुधारवादी और प्रगतिशील लोगों को मिलकर काम करने की ज़रूरत है। एफ.एम. रेडियो, कम्युनिटी रेडियो और क्षेत्रीय न्यूज़ चैनल्स इसमें अहम भूमिका निभा सकते हैं।

मेरा ख्वाब एक ऐसे भारत का है जहां किसी भी समलैंगिक इंसान को अपनी पहचान को लेकर शर्मिंदा नहीं होना पड़ेगा। हर समलैंगिक जोड़े को भी वही अधिकार मिल पाएंगे जो कि एक हेट्रोसेक्शुअल जोड़े को आज प्राप्त हैं। और इसके लिए मैं वो हर कोशिश करुंगी जो मैं कर सकती हूं।

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अनुवाद- सिद्धार्थ भट्ट

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