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क्यों गांव की एक स्त्री लेडीज़ डिब्बे की स्त्रियों से बचना चाहती थी?

स्टेशन पर मेट्रो के रुकते ही उसकी मासूम आंखें देख रही थीं मेट्रो को। वो कुछ समझ पाती कि उससे पहले ही भीड़ ने उसे धक्का दे सवार कर दिया मेट्रो पर। उसके सिर पर एक गठरी थी, वो धक्के खाती हुई एक कोने में रूक गयी। मैंने देखा कि वो सिमटती जा रही है उसी कोने में, दूसरों से बचने की कोशिश में लगातार खुद को समेटती हुई। शायद उसमें एक असुरक्षा की भावना थी या शायद गांव से आई उस औरत को शहर के बारे में कुछ ऐसा समझाया गया था कि वो एक स्त्री होकर भी उस लेडीज़ डिब्बे की स्त्रियों से बचना चाहती थी। एक गठरी को कसकर पकड़े वो खड़ी थी, मैं देख रही थी दूसरों की टेढ़ी होती नज़रें, उस कोने में धंसती जा रही स्त्री के लिए। वो नज़रें ही तो थी जो लगातार उसे मजबूर कर रही थी सिमटने को, मैं खुद एक छोटे शहर से इस महानगर में आई हूं।

यह मेरे लिए चौंकाने वाला था कि पढ़ी-लिखी ‘सशक्त’ महिलाओं के बीच गांव की वो अशिक्षित स्त्री इतना असुरक्षित महसूस कर रही थी। यूं मैं देखती रही हूं सभ्य समाज का रवैय्या गांव के लोगों के लिए। उस वक़्त उस स्त्री पर दया से ज़्यादा उन पढ़ी लिखी डिग्रीधारी स्त्रीवादी महिलाओं पर गुस्सा आ रहा था। मैं इसी उधेड़बुन में थी कि मेट्रो ने अपना भौपू बजा अगले स्टेशन के आने की खबर दी।

वो अपनी गठरी को ले दबे पांव आगे बढ़ रही थी कि अचानक एक नौकरीपेशा लड़की पीछे से शताब्दी एक्सप्रेस की तरह आई और उसे एक तरफ हाथ से झटका देती आगे बढ़ गई। वह गिर गई पास से निकलती स्त्रियों पर। उसका गिरना था कि दूसरी लड़कियां उसे ऐसे हिकारत से देखते हुए हाथ पांव चलाने लगी जैसे किसी ने बाल्टी भर कीचड़ डाल दिया हो उन पर। इस वक़्त उस मासूम महिला की हालत बिलकुल मेमने जैसी थी। वो नहीं जानती थी कि अगले पल उसके साथ क्या होने वाला है, मैंने उस वक़्त भी उसे अपनी गठरी को कसकर पकड़े हुए देखा।

भीड़ इतनी थी कि मेरा उस तक पहुंचना नामुमकिन था। वो संभालने में लगी ही थी खुद को कि एक आधुनिका बोल उठी “कहां-कहां से आ जाते हैं ना जाने, ऐसे लोगों की वजह से ही अब मेट्रो में भी गन्दगी होने लगी है, इन लोगों को तो चढ़ने ही नहीं देना चाहिए, जाहिल कहीं के।” इतना सुन वो स्त्री सूनी निगाहों से भक देखने लगी उसे। मैं उस तक पहुंचती इससे पहले ही भीड़ ने निकाल फेंका था उसे मेट्रो से बाहर उसकी मंज़िल पर।

मेरे लिए वह आधुनिकता से लबरेज़ मेट्रो का भयावह नज़ारा था। हालांकि अक्सर ऐसे मामले मेट्रो में देखने को मिल ही जाते हैं, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि जिन बड़े-बड़े शहरों में सबकी समानता, विकास के ऊपर भाषण दिए जाते हैं उन्हीं शहरों की यह स्थिति क्यों है? इन डिग्रीधारी लोगों को कौन समझाए कि आधुनिकता केवल लिबास में बदलाव से नहीं बल्कि विचारों में बदलाव से आती है। अक्सर मैं देखती हूं ऐसे लोगों को जिनके रहन-सहन में तो तेजी से प्रगति हो रही है पर सोच- विचार अभी भी कूडे़ के ढ़ेर जैसे हैं। जहां से केवल बदबू की ही उम्मीद की जा सकती है। मैं या मुझ जैसी कई लड़कियां छोटे शहरों से यहां अपने सपने पूरे करने आती हैं, मुझे डर लगता है कि कल को मैं भी कहीं आधुनिकता के इस जाल में उलझकर तो नहीं रह जाऊंगी!

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