ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर ने अमृतसर शहर आने के बाद 13 अप्रैल 1919 की सुबह इस बात का ऐलान कर दिया कि यहां किसी भी तरह की जनसभा को सरकारी मंजूरी नहीं है। अगर किसी भी तरह से कोई सभा होगी भी तो इससे बल पूर्वक निपटा जायेगा। लेकिन ये संदेश शहर के गिने चुने हिस्सों तक ही सीमित रह गया।
अप्रैल 13-1919, सिख धर्म का पावन पर्व बैसाखी होने के कारण बड़ी संख्या में श्रद्धालू, गुरुद्वारा श्री हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर अमृतसर) में माथा टेक रहे थे। इसी दौरान लोग श्री हरमंदिर साहिब से कुछ ही दूरी पर मौजूद जलियांंवाला बाग में जुटना शुरू हो गये। शाम 4:30 बजे सार्वजनिक सभा का आह्वान पहले ही हो गया था। जालियावाला बाग सभी तरफ से दीवारों से घिरा था और उसमे प्रवेश और निकास के बस पांच संकरे मार्ग थे।
सभा शुरू होने के कुछ ही समय बाद जनरल डायर अपनी 50 सिपाहियों की टुकड़ी के साथ वहां पहुंचा और बिना किसी चेतावनी के, निहत्थे आम लोगों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। 10 मिनट तक लगातार कुछ 1650 राउंड फायर किए गए, सरकारी आंकड़ों में मरने वालों की संख्या 389 और घायलों की संख्या 1200 बताई गयी। लेकिन हकीकत में ये आंकड़ा इससे कहीं ज़्यादा भयानक था। ये कांड तो आज़ादी से पहले का है लेकिन आज़ादी के बाद भी, इस तरह के हत्याकांड बदस्तूर जारी हैं। बस इस तरह के गुनाहों का नामकरण कुछ और हो गया हैं।
1927-28 के हिन्दू-मुस्लिम दंगों में हिन्दुओं का पक्ष लेने का आरोप साबित होने के बाद 1930 में मोरारजी देसाई, गोधरा के डिप्टी कलक्टर के पद से त्यागपत्र देकर गांधी जी के साथ भारत की आज़ादी के लिये अहिंसा आंदोलन में शामिल हो गये थे। लेकिन आज़ाद भारत में सबसे पहले पुलिस द्वारा चलाई गयी गोली में इनकी भी सहमति थी। तारीख 21-नवम्बर 1955, मुंबई (तब बम्बई) को महाराष्ट्र में शामिल करने की मांग पर, आंदोलनकारियों पर, पुलिस द्वारा फायरिंग हुई जहां 15 लोग मारे गए। इसके बाद 1956 में 16 जनवरी से 22 जनवरी के बीच ट्रेड यूनियन के प्रदर्शनों में एक बार फिर पुलिस ने निहत्थी जनता पर गोलियां चलाई जिसमे 90 लोग मारे गए।
1979-80 के बीच बिहार के भागलपुर में, पुलिस ने अदालत का फैसला आने से पहले ही हिरासत में लिए गए 33 लोगों की पहले आंखें निकाल दी और बाद में आंख की जगह पर एसिड डाल दिया। इस मामले में किसी भी पुलिस कर्मी को कानूनी सजा मिली हो ऐसी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। कुछ इसी तरह, अलग राज्य उत्तराखंड की मांग कर रहे आंदोलनकारियों पर, उत्तर प्रदेश पुलिस ने मुजफरनगर के पास 6 लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी। साथ ही ये भी आरोप लगा कि पुलिस द्वारा औरतो के साथ दुर्व्यवहार भी किया गया था।
साम्प्रदायिक दंगों के दौरान भी कई बार सुरक्षा बलों ने बंदूक का सहारा लिया है। 22 मई 1987 को उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में, हिंदू-मुस्लिम दंगों के दौरान यह आरोप लगा कि पी.ए.सी. के जवानों ने हाशिमपुरा मोहल्ला से 50 मुस्लिम युवकों को उठाया और मुरादाबाद के पास ले जाकर गोली मारने के बाद लाशों को नजदीकी हिंडौन नहर में फेंक दिया। इस हत्याकांड में 42 लोग मारे गए थे। इस सिलसिले में चले क़ानूनी मुकदमे में, अदालत ने सभी आरोपियों को ये कहकर बरी कर दिया था कि इस केस में पुख़्ता सुबूत मौजूद नहीं हैं। 1984, 1993 और 2002 के दंगों में भी पुलिस की कार्यशैली पर अक्सर सवाल उठते रहते हैं। शायद पुलिस अपनी ड्यूटी ईमानदारी से निभाती तो लोकतांत्रिक भारत में इस तरह के जुल्मों को अंजाम नही दिया जा सकता था।
आज़ाद भारत में ऐसे दर्जनों मामले हैं जहां पुलिस और सुरक्षा बालों ने बल प्रयोग किया है। फिर 1994 का केरला में हुआ कुथूपराम्बा हत्याकांड हो या अप्रैल 2015 में आंध्रप्रदेश के चित्तूर में पुलिस द्वारा मारे गये 20 चंदन तस्कर हों।
जब एक भारतीय सिपाही ही एक भारतीय नागरिक को कभी आंतकवादी, नक्सली या चंदन तस्कर समझकर या बताकर गोली मार देता है, तो इसे क्या कहा जा सकता है? सिपाही के कंधे पर टंगी हुई बंदूक का डर आम नागरिक के ज़ेहन में इस तरह मौजूद है कि वह खाकी वर्दी को देखकर खौफ खाता है। हम कहने को तो 1947 में आज़ाद हो गये थे लेकिन आज भी सरकार और उसके बल का डर हमारे अंदर पूरी तरह मौजूद है। अंत में एक सवाल है, जिसका जवाब मुझे नहीं मिल रहा कि अगर आज भगत सिंह, राजगुरु या सुखदेव अपने नागरिक हितों की आवाज़ उठाते तो क्या होता?
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