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हाशिए पर खड़े समाज के किरदारों का सबसे बड़ा नायक बलराज साहनी

बलराज साहनी सिनेमा की एक अविस्मरणीय शख्सियत रहे हैं। अभिनय में आज भी उन्हें एक बड़ा आदर्श माना जाता है। बलराज साहब लीक से हटकर काम करने के लिए जाने जाते थे। वह एक जुझारू एवं समर्पित कलाकार थे। बलराज साहनी- प्रेमचंद के सामाजिक- सांस्कृतिक संघर्ष में वैचारिक आदर्शों की एक समानता समझ आती है। उसके माध्यम से एक साझा संवेदना को स्पर्श किया जा सकता है। मुंशी प्रेमचंद की कहानियों का फिल्मों में रूपांतरण हुआ, कथा सम्राट की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ पर बनी ‘हीरा मोती’ में बलराज साहनी ने मुख्य किरदार अदा किया। इन दो शख्सियतों में जो कुछ साझा था, कह सकते हैं कि उसका एक अंश इस फिल्म के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ।

प्रगतिशील आंदोलन ने संस्कृति कर्म से जुड़े लोगों को साझा मंच दिया था। इस अभियान में प्रेमचंद व बलराज साहनी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। प्रेमचंद का व्यक्तित्व इस क्रांतिकारी अभियान में प्रेरणा का स्रोत था। उधर सिनेमा के स्तर पर विचारधारा के समर्थन में बलराज दलित-शोषित-वंचित किरदारों को जीवंत कर रहे थे। एक तरह से इन पात्रों को जीवंत करके इनकी तकलीफों को भी साझा कर रहे थे। फिक्र वो एहसास के जिंदा होने की वजाहत कर रहे थे। उन्होंने संस्कृतिकर्म को सहयोग का माध्यम बनाया। ऐसा भी नहीं कि बलराज ने फिल्मों को व्यवसाय नहीं माना। लेकिन उनमें लीक से हटकर भी काम करने का जज़्बा था।

यथार्थ में जीते पात्रों को जीना कठिन हुआ करता है। देसज पात्रों को निभाना भी चुनौती का काम होता है। नगरीय पात्रों की परतें उसे विशेष रूप अवश्य देती हैं। लेकिन देसज पात्रों की बात जुदा है, इस मिजाज के पात्रों को बलराज ने अनेक बार जीवंत किया। बिल्कुल अपनी मिट्टी का होने की वजह से उनके गांव के किरदारों में अपार आकर्षण है। सिनेमा ने इन्हें बड़ी पारी नहीं दी। कह सकते हैं कि पॉपुलर सिनेमा में नगरीय कहानी व पात्रों को तरजीह मिली। फिर भी कम समय में ही ग्रामीण पात्र स्मरणीय बनकर उभरे। इन किरदारों का वक्त आज भी याद किया जा सकता है।

बिमल राय को संशय था कि बलराज रिक्शावाले के किरदार को अच्छी तरह ना निभा सकें। किंतु बिमल राय की सोच को गलत होते हम सभी ने देखा। दो बीघा ज़मीन को आज भी भारतीय सिनेमा याद करता है। काबुलीवाला में भी बलराज साहनी ने अपने संजीदा अभिनय से दर्शकों को भावविभोर कर दिया। उनका मानना था कि परदे पर किसी किरदार को साकार करने के पहले उस किरदार के बारे मे पूरा होमवर्क या जानकारी हासिल की जानी चाहिए। इसलिए काबुलीवाला फिल्म करने से पहले वह बम्बई (अब मुंबई) में एक काबुलीवाले के साथ रहे।

बलराज का लेखन की ओर भी रूझान था। साठ के दशक में स्वयं के पाकिस्तानी व रूसी सफर पर आपने सफरनामे लिखे। सिनेमा के सफर पर एक आत्मकथात्मक पुस्तक भी लिखी। भारत के मुसलमानों के पाकिस्तान पलायन की पृष्ठभूमि पर बनी ‘गर्म हवा’ में बलराज साहनी केन्द्रीय भूमिका में रहे। इस फिल्म में उन्होंने एक मुस्लिम कारीगर की भूमिका अदा की। यह उनके कैरियर की बेहतरीन फिल्मों में से एक थी।

झूरी की भूमिका में बलराज साहनी का अभिनय ‘दो बीघा जमीन’ के शंभू का विस्तार सा है। प्रेमचंद के एक महत्त्वपूर्ण किरदारों को परदे पर जीवंत करने का सौभाग्य बलराज साहनी को मिला। झूरी एक मेहनतकश किसान है, सच्चाई व ईमानदारी से खेतों में डटा रहता है। गरीब किसान को कभी-कभी यह मयस्सर नहीं होता। सामंती व्यवस्था ने झूरी से उससे खेती-किसानी का हक़ भी छीन लिया है। बलराज इस परिस्थिति में उतने ही असहाय दिखाई दिए हैं, जितना शायद प्रेमचंद का पात्र ‘झूरी’ रहा होगा।

साहित्य व समाज के प्रति अभिरूचि ने उन्हें यह मुकाम दिया था। ग्रामीण परिवेश के सांचे में ढले पात्रों को परदे पर एक से अधिक बार जीवंत करने का सौभाग्य बलराज साहनी को मिला था। बलराज साहब की गंवई छवि ने आगामी राह में लगभग सभी समकालीन अभिनेताओं को ऐसे पात्र निभाने को प्रोत्साहित किया। बहुजन समाज की व्यथा का उन्हें आभास था। उन्होंने हाशिए के पात्रों को स्क्रीन पर जीवंत कर सामाजिक दायित्वों को निभाया था। इस तरह के किरदारों को व्यापक विमर्श का विषय बनाने में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। धरती के लाल, दो बीघा ज़मीन, हीरा-मोती, काबुलीवाला का ज़िक्र बलराज साहनी के बिना संभव नहीं। बिमल राय ने जो साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनाने की एक परंपरा विकसित की थी, उनके किरदारों के लिए बलराज एक स्वाभाविक पसंद थे।

बलराज साहब की फिल्मों पर यथार्थवाद व नव-यथार्थवाद आंदोलन का प्रभाव रहा। सामाजिक उत्तरदायित्व से ओत-प्रोत अभिनय कई अवसरों पर जीवंत हुआ। झूरी का चरित्र तत्कालीन ग्रामीण जीवन को दिखाता है। झूरी के किरदार में बलराज खेतों में झूमकर मेहनत का उत्सव मनाते हैं, तो कभी ‘ओ ललनवा रे ललवना’ को ठेठ गंवई अंदाज़ में गुनगुनाते देखें जा सकते हैं। वहीं असहाय विवशता में मायूसी का समंदर भी आंखों में तारी हुआ। बलराज ने बनावट के उसूलों को तिलांजलि देकर सहजता के नए स्तर भी स्थापित किए। किसान की भूमिका में पात्र व अभिनेता में विभेद नहीं किया जा सकता, वह ग्रामीण परिवेश का स्वाभाविक हिस्सा प्रतीत हुए हैं।

उस समय के अभिनेता धोती पहन कांधे पर हल व फावड़ा उठाकर गौरांवित महसूस करते थे। बलराज साहनी इस परंपरा के अग्रणी वाहकों में से एक थे। इससे पूर्व वक्त की धारा मोड़ देने वाली ‘धरती के लाल’ एवं ‘दो बीघा जमीन’ में एक ग्रामीण की भूमिका में वो नज़र आए थे। चौपाल पर हुक्के का कश लेने की उम्मीद बलराज के झूरी से ही की जा सकती थी। फिर पशुधन के प्रति आदमी की संवेदना को अभिव्यक्त करने में भी बलराज सफल रहे थे। निरंजन (धरती के लाल) एवं शंभू (दो बीघा जमीन) के पात्रों के अनुभव की झलक ‘झूरी’ में देखने को मिली। हीरा-मोती के झूरी की परिस्थितियां उस स्तर पर भले ही चुनौतीपूर्ण न हो लेकिन शोषित-दलित वर्ग की पीड़ा वही थी। यह कहा जा सकता है कि झूरी की कहानी ‘हाशिए’ की तस्वीर थी। झूरी के दुखों का मुख्य कारण शोषण का सामंतवादी केंद्र ही है।

हाशिए के लोगों की फिक्र में सिनेमा में भी अपने स्तर पर आंदोलन चलाए गए, जीवन के यथार्थ को सामने रखने की पहल हुई। नवनिर्माण के लक्ष्य को नजर में रखते हुए ग्रामीण परिवेश को भी प्राथमिकता दी गई। बलराज सरीखे कलाकारों ने जिन पात्रों के उत्थान के लिए संघर्ष किया, वो आज भी हाशिए पर हैं। शोषण, गरीबी, भूखमरी की विकराल समस्याओं से उभर नहीं सके हैं। मनरेगा जैसी महत्त्वकांक्षी योजना भी इनका भला नहीं कर सकी। समकालीन व्यवस्था सामंतवादी सत्ता के मौन समर्थन की दिशा में है।

प्रेमचंद की कहानियों के किरदार रहे झूरी-जोखू-होरी जैसे लोगों के साथ आज भी अन्याय हो रहा। जिन पात्रों की कहानी आदमी में संवेदना का सृजन करती है, उनकी स्थिति में बदलाव के लिए इस ओर से ठोस प्रयास आवश्यक हैं। क्योंकि शोषण का स्वरूप अब बदल गया है, लेकिन उसका दमनकारी चक्र वही है। उदारवादी-नव उदारवादी नीतियों की एक बड़ी कीमत झूरी, रज़िया, शंभू जैसे लोगों को चुकानी पड़ी है। बलराज साहनी सरीखे फनकारों की मेहनत को बर्बाद होते देखी है।

फोटो आभार: Lalji Verma

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