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दिल्ली से कुछ दूर ही जाइए, दिख जाएगी महिलाओं की गुलामी की दास्तां

दिल्ली से महज़ 45 किलोमीटर दूर ग्रेटर नोएडा का एक गांव बिलासपुर आज भी सामाजिक पिछड़ेपन का शिकार है। यहां आकर मुझे ऐसा महसूस होता है कि जैसे मैं किसी ऐसे दुनिया में आ गई हूं, जहां पर लड़कियों के पास कोई अधिकार नहीं है। अधिकार क्या, वो महज़ अपने मां-बाप की गुलाम हैं।

हमारे देश को आज़ाद हुए 70 साल हो चुके हैं, लेकिन आज भी लड़कियां अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं। लड़ना तो दूर की बात है गांव में तो लड़कियां बोल भी नहीं पाती हैं। ऐसी ही कहानी इस गांव की भी है। हमेशा से यहां आकर मुझे घुटन सी होती है। यहां आकर ऐसा महसूस होता है कि मैं 20 साल पीछे चली गई हूं। अधिकार छोड़िये यहां पर लड़कियों के तो खुलकर बोलने पर भी पाबंदी है।

हद तो ये है कि इनके जीवनसाथी का चुनाव बग़ैर पूछे बिना इनकी मर्ज़ी के रिश्तेदारों द्वारा कर लिया जाता है और लड़की चूं तक नहीं कर पाती है। समझ यह नहीं आता उस जीवनसाथी के साथ रिश्तेदारों को रहना होता है या फिर लड़कियों को? कुछ केसों में लड़की द्वारा सवाल पूछे जाने पर इस्लाम की दुहाई देकर उन्हें चुप करा दिया जाता है। धर्म की आड़ में अपनी मनमानी की जाती है। और जिससे मन करता है उसके साथ उसका पल्लू बांधकर खुद को अपने फ़र्ज़ से आज़ाद करा लिया जाता है। कोई इनको बताता क्यूं नहीं कि इस्लाम में पसन्द और मर्ज़ी की इजाज़त दी गई है। तो फिर क्यूं लड़की पर इतना ज़ुल्म किया जाता है?

देर से ही सही मैंने इस बारे में लिखने और बोलने की तब ठानी जब मेरे मोहल्ले की एक सादा सी बेहद हुनरमंद लड़की की शादी की गई और उसको शादी से पहले उसके जीवनसाथी को दिखाया भी नहीं गया। उसके बारे में कुछ बताया भी नहीं गया। बस एक चीज़ की तरह सजा-संवार कर किसी और के हवाले करके अपने सर से बोझ उतार दिया गया। बेटी की शादी करने के नाम पर उनको घर से इस तरह रफ़ा-दफ़ा किया जाता है, जैसे उसका घर हो ही ना।

उस लड़की के भी अपने कुछ अधिकार हैं। अपने जीवन को अपनी तरह से व्यतीत करने का हक़ है। शर्म आती है मुझे अपने देश के इस पुरुष प्रधान समाज पर जो दिखावे की इज़्ज़त के कारण अपनी बेटी को किसी के भी हवाले करके आ जाते है। धिक्कार है ऐसे मां-बाप पर जो बेटियों को अपनी जागीर समझ कर जैसे मन में आता है वैसा सुलूक करते हैं।

इसके साथ ही साथ मेरे गांव में एक और रिवाज़ है। वो है –बेटियों के पैदा होने पर ग़म मनाने का रिवाज़। अगर बेटा हुआ तो पटाखे फूटेंगे, लड्डू बटेंगे, दावते होंगी। उस बेटे पर ना जाने दादा-दादी तो क्या-क्या न्योछावर करने को तैयार रहेंगे। लेकिन जैसे ही बेटी की ख़बर गांव में दाई मां आकर दादा-दादी को सुनाती है, उनके चेहरे का रंग फीका पड़ जाता है। हद तो तब हो जाती है जब उस नवजात बच्ची यानी अपनी पोती को दादा-दादी द्वारा गोद तक में खिलाया भी नहीं जाता है। उस बेटी का पिता मुंह फेर कर खड़ा हो जाता है।

इस्लाम में कहा गया है कि खुदा जब खुश होता है तो आपके घर में बेटियां देता है। आपको बेटियों से नवाज़ता है, तो फिर यह लोग जो बेटी की शादियों पर इस्लाम की दुहाइयां देते फिरते हैं, बेटी के जन्म पर यह दुहाइयां कहां चली जाती हैं। इन सब में उस नवजात बच्ची को देखकर मेरी आंखें नम हो जाती हैं।

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