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सोशल मीडिया क्रांति ने हिंदी पत्रकारिता को कितना प्रभावित किया?

साल 2011 की बात है। तब मैं भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) में हिन्दी पत्रकारिता का स्टूडेंट था। उस समय हमारे सिलेबस में वेब पत्रकारिता नाम का एक चैप्टर था, जिसके लिये दस नंबर तय किये गए थे।

हमारे लिए पत्रकारिता का मतलब टीवी और अखबार ही थे। वेबसाइट के लिये पत्रकारिता करने का शायद ही किसी ने सोचा होगा। उसी संस्थान में हमारे एक टीचर थे दिलीप मंडल। दशकों तक मुख्यधारा की पत्रकारिता में सीनियर जगहों पर रह चुके एक वरिष्ठ पत्रकार। मीडिया पर किताब लिखने के लिये कई पुरस्कार से सम्मानित। बाद में आईआईएमसी से निकलकर इंडिया टुडे मैगजीन के मैनेजिंग एडिटर भी बने। दिलीप मंडल का ज़िक्र इसलिए क्योंकि वे हमें क्लास में एक बात कहा करते थे, वे कहते थे- आज हर कोई पत्रकार है। आज दस रुपये की पत्रकारिता का ज़माना है। उनके कहने का मतलब हुआ करता था कि साईबर कैफे में एक घंटे के दस रूपये लिये जाते थे और उस कैफे में बैठकर कोई भी फेसबुक या ट्विटर पर अपनी बात, अपनी खबर कह सकता है। अगर खबर में दम होगा तो वो दूर तक चली जाएगी।

मुझे याद है हम उनकी बातों पर यकीन नहीं किया करते थे, मतलब सिर्फ फेसबुक पर पत्रकारिता की बात हमें थोड़ी कम समझ आती थी। वक्त बदला, देश में 3जी क्रांति आई, वीडियो, इन्टरनेट पैक, स्मार्टफोन का तेज़ी से फैलाव हुआ। अब दिलीप सर की बात बिल्कुल सच दिखायी दे रही है। स्मार्टफोन ने क्रांति ला दी है, पत्रकारिता की परिभाषा बदल गयी है और इन सबमें सबसे खास बात है कि हिन्दी और हिन्दी पत्रकारिता भी कदमताल कर रही है या यूं कहिये कि हिन्दी दो कदम आगे चल रही है।

हिन्दी पत्रकारिता के इस दौर के इतिहास को जब भी लिखा जायेगा तो सोशल मीडिया की पत्रकारिता को भी उतनी ही मज़बूती से दर्ज किया जाएगा। पेपर, रेडियो, टीवी से होते हुए आज हम सब सोशल मीडिया की इस पत्रकारिता को देख रहे हैं।

मुख्यधारा के लगभग सभी हिन्दी मीडिया हाउस सोशल मीडिया पर हैं, वे वीडियो, टेक्स्ट, तस्वीर, ऑडियो सब कर रहे हैं। पहले होता यूं था कि कोई खबर अखबार में आती थी, फिर वहां से टीवी तक पहुंचती थी और फिर उस पर सोशल मीडिया में बहस का सिलसिला चलता था। फिर अखबार की जगह टीवी ने ले ली और आज सोशल मीडिया मुख्यधारा की मीडिया में एक ट्रेंड सेट करने की हैसियत में है।

कई ऐसे सर्वे आ चुके हैं जो बताते हैं कि हिन्दी पत्रकारिता पर एक खास जाति के लोगों का कब्ज़ा है, या तो संपादकों की तूती बोलती है, या फिर मालिकों की। सिफारिशों पर, भाई-भतीजावाद के आधार पर धड़ल्ले से पत्रकार बनाए जा रहे हैं। नौकरियां बांटी जा रही है, ऐसे में हाशिये के कई सवाल पत्रकारिता से गायब कर दिये जाते रहे। खासकर दलित-पिछड़ों, महिलाओं और मुसलमानों के बारे में खबर करते हुए एक खास तरह का पूर्वाग्रह दिखता रहा है। यही वजह है कि आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दों पर हिन्दी पत्रकारिता बेहद पक्षपाती रिपोर्टिंग करता रहा है, इसी तरह बाबरी विंध्वस के वक्त भी हिन्दी पत्रकारिता के पूर्वाग्रह सामने आए।

लेकिन आज उन मीडिया हाउस पर विश्वसनियता का संकट गहरा हो चला है। दलितों की जंतर-मंतर पर रैली होती है, उसमें जनसैलाब उमड़ता है, फिर भी हिन्दी के संपादक उसे अपने यहां जगह नहीं देते। लेकिन वही रैली फेसबुक के माध्यम से लाखों लोगों तक पहुंचने का सामर्थ्य रखती है। यह हिन्दी पत्रकारिता का जनतंत्रीकरण है। आज सब कुछ पब्लिक स्फियर में है। लोग अपनी भाषा में खबर लिख रहे हैं, उन्हें अपनी खबर छपवाने के लिये किसी खास जाति से नहीं होना पड़ता, या किसी खास वर्ग और खास तरीके की चीज़ें नहीं करनी पड़ती। मुझे कई ऐसे पत्रकार मिलते हैं जो सिर्फ फेसबुक पर लिख रहे हैं, वे अपनी रोज़ी-रोटी के लिये कोई और काम करते हुए भी अपने भीतर की पत्रकारिता को ज़िन्दा बचा पा रहे हैं।

कई ऐसे लोग हैं जो सिर्फ फेसबुक पर और हिन्दी में पत्रकारिता करने की वजह से पैसा भी कमा रहे हैं, बाज़ार ने हिन्दी को इंटरनेट पर विशेष महत्व दिया है, 60 प्रतिशत से ज़्यादा लोग इंटरनेट पर अपनी क्षेत्रीय भाषा में लिख-पढ़ रहे हैं। खबरों को जानने के लिये आज किसी अखबार या टीवी का मोहताज नहीं रहना पड़ रहा है। लोग सोशल मीडिया पर अपनी भाषा में खबर लिख-पढ़-देख रहे हैं। आज बस्तर से कोई लाइव कर रहा है, कोई राजस्थान में हुई घटना पर प्रतिक्रिया दे रहा है, मीडिया के ओवी वैन धीरे-धीरे अप्रसांगिक हो रही हैं।

याद कीजिए रोहित वेमुला की आत्महत्या को। यह सोशल मीडिया ही थी जिसने इस घटना को राष्ट्रीय बना दिया और जब मैं राष्ट्रीय कह रहा हूं तो इसका मतलब है गांव-गांव में हिन्दी में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाला वर्ग, न कि सिर्फ वे टीवी चैनल जो दिल्ली की किसी गली की खबर को भी राष्ट्रीय बनाकर पेश करते हैं।

सोशल मीडिया पर चल रही पत्रकारिता का ही नतीजा है कि ऊना में हुए दलितों पर जुल्म के बाद के गुस्से को पूरे देश में फैला दिया गया। जब तेजबहादुर यादव सेना के भोजन की खराब हालत पर विडियो पोस्ट करता है तो वो भी हिन्दी पत्रकारिता ही कर रहा होता है और यह पत्रकारिता ज्यादा जनसरोकारी है। जनता के करीब है न कि किसी पूंजी और पार्टी का एजेंडा।

हिन्दी पत्रकारिता आज इतने सालों बाद अपने सचमुच के स्वर्ण काल में है और इसका क्रेडिट सोशल मीडिया और इन्टरनेट को जाता है। उस स्मार्टफोन को जाता है जो वहां पहुंचता है जहां चैनलों के कैमरे नहीं पहुंच पा रहे हैं और भोपाल में हुए फर्जी इनकाउंटर को भी एक्सपोज़ करता है।

हिन्दी पत्रकारिता जनता के हाथ में है। उनके द्वारा संचालित किया जा रहा है। हज़ारों-लाखों लोग पहली बार अपनी बात कह पा रहे हैं, अपनी खबर दुनिया तक पहुंचा पा रहे हैं। लेकिन इसके कुछ खतरे भी हैं, जिन्हें दर्ज किया जाना ज़रूरी है। व्हॉट्स एप, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया आज फर्ज़ी खबरों का डस्टबीन भी बन गया है। ये खबरें लोगों को उकसा रही हैं, भीड़ को हत्यारा बना रही हैं, कोई फिल्टर नहीं है जहां से इन खबरों को रोका जा सके। एक सभ्य समाज के बतौर हमें सोशल मीडिया के हिंसक भीड़तंत्र वाली पत्रकारिता से भी बचना होगा। उसके खतरे से अपने आसपास लोगों को आगाह करना होगा, फर्ज़ी, अफवाह फैलाने वाली खबरों को रोकना होगा। एक समाज के रूप में हमारी यह परीक्षा का भी समय है। टीवी चैनलों ने हिन्दी पत्रकारिता में हिंसा और डर के जो बीज बोए थे, उसकी फसल सोशल मीडिया पर भी लहराने लगी है। इसपर लगाम लगाना ज़रूरी है।

नहीं तो एक बेहतरीन उम्मीद अंधेरे में बदलती चली जाएगी। सोशल मीडिया मुख्यधारा की मीडिया बन चुकी है, अब इसका किस ज़िम्मेदारी से हम इस्तेमाल करते हैं तय हमें ही करना है। अपने अंदर के पत्रकार को ज़िन्दा रखिए, सतर्क रखिए और खूब लिखिए..

हर सही के पक्ष में रिपोर्टर बनने की क्षमता हम सबमें बराबर है। पत्रकारिता कोई जन्मजात प्रतिभा नहीं।

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