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मिशन से शुरू हुए पत्रकारिता का उद्योग में बदलने का सफर

“खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो” – अकबर इलाहाबादी

ऐसा ही कुछ हुआ था जब अख़बार आया था, हम तोप का मुकाबला तोप से नही अपनी कलम से कर रहे थे। इस कलम की आंधी की शुरुआत खुद उन्होंने की थी जो तोप का सहारा ले रहे थे, एक अंग्रेज़ जो अंग्रेज़ों से बगावत पर उतर आया था। उसका नाम था हिक्की, जिसका काम था सूचना पहुंचाना और ऐसे शुरुआत हुई पहले अखबार हिक्कीज़ गजट की।

इसी दौरान हमारे बीच से भी एक कलम का सिपाही पैदा हो रहा था जिसका नाम था राजा राम मोहन राय। कलम की क्रांति की यह शुरुआत बंगाल से हुई और उन्होंने हिक्की के बंगाल गज़ट को बांग्ला में प्रकाशित किया। इसके बाद उर्दू में भी अखबार निकला जिसका नाम था ज़ाम-ऐ-ज़हांनुमा। इसके बाद हम आज की अपनी भाषा हिंदी पर आए और हिंदी का पहला अखबार उद्त्त मार्तण्ड 1826 में प्रकाशित हुआ, इसके जनक पंडित जुगलकिशोर थे।

इस बीच कई और अखबार भी आए, उसमें बनारस अखबार भी था। 1854 में एक और दैनिक समाचार पत्र की शुरुआत हुए, जिसका नाम था समाचार सुधा वर्षण इसके क्रांतिकारी संपादक थे श्याम सुंदर सेन। अंग्रेज़ों को इस कलम के सिपाही ने लोहे के चने चबवा दिए और अंग्रेज़ परेशान होकर एडम रेगुलेशन ले आए, इसको गाला-घोंटू कानून भी कहा गया।

महिलाएं भी कलम की इस क्रांति में पीछे नहीं थी, सन 1874 में बालाबोधिनी नाम से पहला स्त्री-मासिक-पत्र चलाया गया। इसके बाद जाना माना भारत मित्र आया जो छोटे लाल जैसे क्रांतिकारी कलम के सिपाही ही उपज थी। 20वीं सदी शुरू होते-होते तो मानो पत्रकारिता की इस क्रांति को पंख लग गए थे। 1907 में स्वराज का प्रकाशन शुरू हुआ जिसकी मुख्य लाइन थी ‘हिंदुस्तान के हम और हिंदुस्तान हमारा’।

इसके बाद वह क्रांतिकारी पत्रकार सामने आया जिसे आज भी पत्रकारिता के पैमाने के तौर पर देखा जाता है। गणेश शंकर विद्यार्थी ने 1913 में प्रताप के साथ स्वतंत्र पत्रकारिता का सफ़र शुरू किया, जिसे आज भी पत्रकारिता जगत में मील का पत्थर कहा जाता है। इसके बाद 1924 में आया कर्मवीर माखनलाल द्वारा लाया गया। फिर हमारे बापू महात्मा गांधी ने अंग्रेज़ी में यंग इंडिया प्रकाशित करना शुरू किया।

20वीं सदी में हंस जैसी पत्रिका भी आई जो आज तक कायम है और जिसके जनक कथा सम्राट प्रेम चंद थे। जैसे-जैसे पहला विश्वयुद्ध शुरू हुआ तो पत्रकारों ने नारा दिया कि ‘न एक पाई और न एक भाई देंगे युद्ध में।’ दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होते-होते उद्योग बनना शुरू हो गई। बिरला ने सबसे पहले इसकी शुरुआत की। इसके बाद सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता की प्रभाष जोशी के जनसत्ता के साथ वापसी हुई, लेकिन आज वो भी उपभोक्तावाद की चपेट में आ चुका है। मिशन से शुरू हुई पत्रकारिता आज उद्योग में बदल चुकी है। कभी क्रांति में अहम भूमिका निभाने वाली  पत्रकारिता आज चाटुकारिता में बदल चुकी है। आज पत्रकारिता की लड़ाई खुद से है ना कि किसी सरकार से। आज पत्रकारिता टी.आर.पी. से लड़ रही है, आज वो चाटुकारिता से लड़ रही है।

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