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एंकर साहब! ये आक्रामकता, ये आक्रोश और ये गुस्सा आखिर किसके लिए?

पिछले दिनों महामहिम राष्ट्रपति जी रामनाथ गोयंका अवार्ड के समारोह में बोल रहे थे, “सत्ता में बैठे लोगों से सवाल पूछने का अधिकार राष्ट्र के ‘संरक्षण’ की बुनियाद है, खासतौर से ऐसे समय में जब सबसे ऊंची आवाज में बोलने वालों के शोर में असहमति की आवाजें डूब रही हैं।” उन्होंने कहा कि “मेरी समझ से प्रेस अगर सत्ता में बैठे लोगों से सवाल पूछने में विफल रहती है तो यह कर्त्तव्य पालन में उसकी विफलता मानी जाएगी। इसके साथ ही उसे सतहीपन और तथ्यात्मकता रिपोर्टिंग और प्रचार के बीच का फर्क समझना होगा।”

इस बात को समझना होगा कि हमारे पत्रकार किससे सवाल कर रहे हैं, किनकी आलोचना कर रहे हैं, वो रिपोर्टिंग और तथ्यों की बात करने की जगह पर क्या कर रहे हैं? पत्रिकारिता की विश्वसनीयता खत्म होने लगी है, रिपोर्टिंग के नाम पर वो सोशल मीडिया से रिपोर्ट करते हैं, ट्विटर उनके इंटरव्यू के साधन है और रिपोर्टिंग का भी। जब संसद में आपकी विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे, लम्बी बहस होने लगे तो समझना चाहिए कि सब कुछ सही नही है। तथ्यों को तोड़-मरोड़ के पेश किया जाता है, झूठी खबरें बनाई और फैलाई जाती हैं।

हर शाम को सजने वाले टीवी चैनलों के कानफोड़ू कार्यक्रम जिसमे वक्ता किसी अभिनेता से कम नही होते हैं, वो हर मुद्दे के विशेषज्ञ होते हैं, दिनभर उनका काम इस टीवी से उस टीवी पर जाना होता है। और टीवी एंकर की आक्रामकता, आक्रोश और गुस्सा आखिर किसके लिए होता है? उन पर सवाल भी किसी सवाल से कम नही होता है। वो हर दिन किसी को शत्रु बना कर पेश करते हैं और उनसे ही सारे सवाल करते हैं। वो इन पर चिल्लाते हैं, डांटते हैं। बस शर्म करो-शर्म करो, मारो- मारो, गद्दार-गद्दार, देशद्रोही-देशद्रोही जैसे नफरत भरी हिंसक आवाज़ें ही सुनाई दे रही हैं।

ये आपको धीरे-धीरे नफरत करना सिखाते हैं अपने ही समाज की लोगों से। उनके मुद्दे ऐसे ही होते है जिससे वो आपके अंदर नफरतों का ज़हर डाल सके। ये नफरत इतनी फैलाई जा रही है कि हम हत्यारे बनते जा रहे हैं। आज एंकर ही जज हैं और एंकर ही वकील हैं। एंकर ही फैसला है एंकर ही सेना है।

उनकी ज़रुरत किसे है? ज़ाहिर है जो सरकार से सवाल नही कर पता उसे। आत्महत्या करते किसान, दलितों के जलते घर, शोषित होता आदिवासी जो अपने अस्तित्व की लड़ाई कर रहा है, बढती बेरोज़गारी, कुपोषण के शिकार बच्चे, ये सब कहां हैं उनकी रिपोर्ट में? झारखंड, छतीसगढ़, मणिपुर कहां हैं? वो बस दिल्ली तक ही सीमित दिखाई देता है। मीडिया अब बस एक मनोरंजन और राजनीतिक पार्टियों के प्रचार का माध्यम सा लगने लगा है।

पिछले दिनों 3 मई को media freedom day था, हमारे पत्रकार यह बताने में शर्माते दिखे कि 180 देशों की रैंकिंग में 136वां स्थान कितना सम्मानजनक है। मीडिया  के व्यवसाइकरण ने पत्रकारिता को पूंजीवाद और वर्चस्ववाद का गुलाम बना दिया है। हकीकत यही है कि ये अब सरकारों से सवाल करने से डरने लगा है।

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