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महाराणा प्रताप के युद्धों को राजपूत-मुस्लिम रंग देने के पीछे की सच्चाई

9 मई को महाराणा प्रताप जयंती होती है। इस दिन बेकार के जुलूस और बाज़ारू शो-बाज़ी के बजाये राणा प्रताप, राणा पूंजा, हाकिम खान, राजा हसन मेव, इतिहास के अनदेखे तथ्य, सामंती पागलपन, राजपूत, मनसबदारी, मुगल, दुर्गावती-दलपत शाह और डॉ कुसुम मेघवाल की राणा प्रताप पर किताब, जैसे विषयों पर सोचना आवश्यक है।

महाराणा प्रताप के नाम पर करणी सेना और भाजपा गज़ब की राजनीति खेल रही है कुछ दशकों से और पिछले कुछ सालों में ये गज़ब का पागलपन बना है। हल्दीघाटी को जीत बताकर सिर्फ भावुक राजपूतों और हिन्दुओं की भावनाओं को सींचा नहीं गया मगर मेवाड़ के संघर्ष का विरूपण भी किया गया है। दुर्भाग्यवश वामपंथ ने भी हल्दीघाटी को निर्णायक हार बताकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की है। हल्दीघाटी (1576 ई. ) में मेवाड़ हारा या जीता इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि ये संघर्ष प्रताप (1540–1597) के मरणोपरांत, 1615 ई. तक चलता रहा और तब तक अधिकतर मेवाड़ कछवाहा राजपूत मनसबदार और उनके सहयोगियों से पुनः ले लिया गया था। दोनों लेफ्ट और राइट मुद्दे से भटका रहे हैं। इतिहास और मुद्दे ये हैं –

प्रताप का संघर्ष मेवाड़ की स्वाधीनता के आलावा मनसबदारी व्यवस्था और उसके राजनीतिक दुरुपयोग के खिलाफ था, इस्लाम के नहीं। इस व्यवस्था के अनुसार एक राजा अथवा सुलतान मनसबदार था और एक इलाके के मनसबदार को सम्राट किसी भी अन्य स्थानीय संघर्ष को कुचलने के लिए भेजता था। उदहारण इसी मनसबदारी के चलते धुंधार (आमेर ) के राजपूतों को अफगानिस्तान, असम, बंगाल और महाराष्ट्र में हो रहे संघर्षों को कुचलने के लिए भेजा गया था। मारवाड़ के सैनिक भी जसवंत सिंह राठौर के नेतृत्व में अफगानिस्तान भेजे गए थे। करणी सैनिक और उनके भगवा आकाएं ये नहीं बताएंगे कि मुगल-साम्राज्य को बनाने में जयपुर और बीकानेर के मानसबदारों की क्या भूमिका थी और उनका कितना फायदा उठाया गया ? मेवाड़ में कई मुस्लिम समुदाय तब भी रहते आये हैं, जैसे-पठान जिनका खुदका मेवाड़ में योगदान था।

1572 ई. में जबतक प्रताप मेवाड़ के राणा बने तब तक अधिकतर मेवाड़ जयपुर के कछवाहा (कुशवाहा) राजपूतों के कब्ज़े में था। यहां तक कि सम्राट अकबर ने राजा मान सिंह के सम्बन्धी सामंत जगन्नाथ कछवाहा को मेवाड़ का मनसबदार बना दिया था, जिसे बाद में राणा प्रताप और राणा पून्जा भील ने खदेड़ा था ।

गौरतलब है कि करणी-सेना का नाम संभवत: बीकानेर के अंतिम महाराजा करणी सिंह बीका के नाम पर है। कोई इन गुंडों से पूछे कि  करनी सिंघजी के पूर्वज राजा राइ सिंह बीका उस ज़माने में कहां व्यस्त थे ? उन्होंने धुंधार के राजा और दिल्ली-सम्राट से मिलकर पहले मारवाड़ के प्रबल संघर्षशील राजा चन्द्रसेन राठौर को हराया, क्योंकि चन्द्रसेन भी मनसबदारी के खिलाफ था और प्रताप के सहयोगी बन सकते थे । चन्द्रसेन अपने वफादार राजपूत और जाटों को लेकर पहाड़ियों से असफल प्रयास करते रहे और 1581 में चल बसे। जिसके बाद राजा राइ बिका ने उदयजी को एक कठपुतली राजा के रूप में स्थापित किया।

राजनीतिक और शारीरिक कारणों से उन्हें मोटाराजा कहा गया, जिसने आगे जाकर मेवाड़ के खिलाफ महत्पूर्ण योगदान दिया। इसके अलावा राजा राम बीका ने सिरोही के किसी देवड़ा राजपूत सामंत से मिल कुम्बलगढ़ (मेवाड़) के कुओं में ज़हर भी डाला था , जिसके कारण प्रताप को कुम्बलगढ़ अस्थ्याई रूप से छोड़ना पड़ा। इस संघर्ष को प्रताप बनाम अकबर भी कहना गलत होगा क्योंकि ऐसा कहकर लोगों को इन तीन महान राजाओं के करतूतों से अनभिज्ञ किया जा रहा है। लोगों को केवल बीकानेर के पृथ्वीराज राठौर के प्रताप को भेजा प्रेरणादायक खत याद है मगर बीकानेर के राजा राइ राठौर की करतूतें नहीं।

मगर तथाकथित सेक्युलर हिस्टोरियन कभी इसपर ध्यान नहीं देते क्योंकि इन राजाओं ने बिना विरोध के मनसबदारी व्यवस्था अपना ली थी और मुगल सम्राटों से सम्बन्ध जोड़े , जो कि ज़ाहिर सी बात है आज के प्रसंग से एक सेक्युलर कृत्य माना जाता है । भले ही इसके बाद इन राजाओं ने पठान, मेव और मुस्लिम राजपूत विद्रोहियों को बादशाह सलामत के लिए कुचला हो। लेफ्ट राणा प्रताप को नकारने में कोई कसर नहीं छोड़ती महज़ इसलिए की आज जातीय और सम्प्रदायक तत्त्व उनका प्रयोग कर रहे हैं। किन्तु यदि इतने सारे ऐतिहासिक तथ्यों के बाद भी करणी सेना और आरएसएस प्रताप का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो वो प्रताप की गलती नहीं है, उत्कृष्ट लेफ्ट इतिहासकारों का आलसपन है।

इस पूरे इतिहास में जैसलमेर के भाटी-राजा और कोटा-बूंदी के हाडा राजाओं ने अगर प्रताप का विरोध नहीं किया तो समर्थन भी नहीं किया। भाटी या भट्टी राजा को थार में लूट-पाट से फुर्सत नहीं थी तो राव सुजान हाडा जो उदयसिंघ द्वारा राजा बनाया गया था, कछवाहों से डर और मुगल-खेमे के फायदे को देख मेवाड़ के एहसान को भूल चुका था और चुप्पी साध ली थी।

क्या प्रताप अकेले थे ? नहीं, उनके तीन साथी थे,  जिसमें से दो गैर-राजपूत थे। हाकिम खान सुर और उनके पठान। कुछ लेफ्ट के लोग इन दिनों हाकिम खान का नाम उल्लेख कर उन्हें प्रताप का सेनापति बोल रहे हैं। जी नहीं, राणा प्रताप के पास अपने कई सेनापति थे मगर हाकिम खान दखिन राजस्थान के सुर पठानों के सरदार थे।  सुर पठान आज भी राजस्थान के जालोर और नागौर ज़िलों में कई अन्य पठान बिरादरियों के साथ बसते हैं । वे राजा नहीं थे मगर सरदार थे,  क्यों उन्होंने राणा प्रताप की सहायता की इस पर इतिहासकार आज भी मूक है। दूसरे थे ग्वालियर से रामजी तोमर और उनके तोमर राजपूत मगर रामजी और उनका गुट मेवाड़ शरणार्थी था और वे भी राजा नहीं थे। केवल एकमात्र राजा ने राणा प्रताप की आदि से अंत तक सहयता की थी और वो थे  राणा पून्जा भील।

गहलोत राणा और भीलराणा ,  प्राचीन भारत को गुप्त-भारत और मध्य-काल भारत को मुगल-भारत कहना काफी भ्रामक है। क्योंकि इस दौरान भारत में ढेरों राज्य थे और कई राज्यों में दो राजा भी हुआ करते थे । जो अलग-अलग इलाकों से लगान वसूलते थे। 17वीं सदी तक ऐसी ही व्यवस्था मेवाड़ में थी मगर मेवाड़ एक मात्र अकेला नहीं था । ये व्यवस्था भारत में काफी जगह थी। यहां किलों या दुर्ग के गावों से गहलोत राणा लगान वसूलते थे, तो जंगल के पास के गावों से भील राणा लगान वसूलते थे।

मगर उस काल में दोनों गहलोत राणा और भील राणा भी कई बार क्षेत्रीय लड़ाई में पड़े  और जिस तरह प्रताप सम्राट अकबर के खिलाफ अपने हक के लिए लड़े, उसी तरह कई बार भील राणा भी अपने हक के लिए गहलोत राणा से लड़ते थे।  संधि और समझौते होते रहें। यह व्यवस्था बाद में अंग्रेज-काल में ख़त्म हुई जब मेवाड़ खुद छोटे-छोटे राज्यों -डूंगरपुर , बांसवाड़ा , उदयपुर , झालावाड़ इत्यादि में बट गया।

राणा पूंजा समर्थन को बाध्य नहीं थे फिर उन्होंने सहायता क्यों दी ? इसके तीन कारण रखे जा सकते हैं, (क) व्यक्तिगत-इसमें कोई दोराय नहीं कि अन्य गहलोत राणाओं और भील राणाओं के मुकाबले दोनों घनिष्ठ मित्र थे और केवल राजनीतिक सहभागी नहीं। (ख) राजनीतिक- जगन्नाथ कछवाहा, जो कि मेवाड़ का मुगल-सम्राट द्वारा नियुक्त मनसबदार था। वो भील राणा के राजनीतिक और क्षेत्रीय अधिकारों के खिलाफ था। (ग) ये पहली सहभागी नहीं थी, कछवाहा-मुगल राजनीति के खिलाफ इस संघर्ष में पहले राणा खेता और राणा उदयसिंह का सहभाग था । जब राणा खेता ने उदय सिंह को सपरिवार चित्तौड़ छोड़ने में सहायता दी थी। ये लड़ाई स्वाधीनता और स्वाभिमान की तो थी मगर व्यर्थ के शौर्य-प्रदर्शन की नहीं जैसा की मेवाड़ के पूर्व राणा अक्सर हारने पर करते थे और स्त्रियां जौहर । उदय सिंह पहले राणा हुए जिन्होंने इस प्रथा को त्यागा।  ये मान्यता थी कि जबतक राणा है तब तक संघर्ष है।

अतः ‘मेवाड़ के संघर्ष’ को ‘हिन्दू संघर्ष’ बोलकर मेवाड़ के मुसलमानों के योगदान को और इसे ‘राजपूत संघर्ष’ कहकर भील, जाट, मेघवाल , लोहार इत्यादि कई स्थानीय जातियों के योगदान को छिपाना अनैतिक है। इसी तरह इस तथ्य को मिटाना भी गलत है कि जिस मुगल फौज से लड़ा गया था वह विदेशी पठानों के साथ-साथ गैर-मेवाड़ी राजपूत सैनिकों से ओतप्रोत थी।

यही कहानी राणा सांगा और खानवा-युद्ध की भी है ,  जिसमें बाबर के समर्थन में पख्तून कबीलों के आलावा हिन्दू राजपूत शिलादित्य तोमर , उसकी पुरबिया (बिहारी राजपूत) फौज और मुस्लिम राजपूत राजा संघार अली भी मौजूद थे। जबकि स्थानीय प्रतिरोध में राजपूतों में केवल मेवाड़ के सांगा, मारवाड़ के रायमल, मालवा के मेदिनी राय, बाकी दो सहभागी आगरा के सुल्तान महमूद लोदी थे और मेवात के मेव राजा हसनखां। गौर कीजिये कि राजा हसन मेवाती जिस मेव समाज से थे, आज वही समाज अलवर और भरतपुर में गौरक्षकों का शिकार हो रहा है।

अंततः गहलोत समुदाय जिससे उदयपुर का राजवंश आता है, राजपूतों, जाटों, माली और कई जातियों में विद्यमान हुआ है।  मगर इनके वास्तविक (non Rajput origin ) मूल पर ज़्यादा शोध नहीं हुए हैं। यदि डॉ. कुसुम मेघवाल के शोध में गहलोतों के मूल-पूर्वज भील समाज को बताया गया है तो ये आश्चर्य वाली बात नहीं होगी क्योंकि इससे पहले भी इरावती कर्वे ने चौहान, परमार और परिहार को गुजर से बताया है और यह आज काफी इतिहासकार मानते हैं। इसके आलावा, विन्सेंट स्मिथ और पीवी रसेल ने चंडेल को गोंड और गहरवारों को खरवार से उत्पन्न बताया है। चंडेल रानी दुर्गावती और राजगोंड राजा दलपत शाह के वैवाहिक संबंंध को भी समझना मुश्किल होता अगर चंडेल “शुद्ध आर्य क्षत्रिय” हैं। यह निष्कर्ष बिलकुल सही न हो पर ‘पौराणिक मिथकों’ से ज़्यादा प्रमाण और तर्क इनके समर्थन में है।

प्राचीन क्षत्रीयों और कई बार पुराणों के पात्रों से राजपूतों ने उत्पत्ति बनाकर खुदको क्षत्रीय बनाया है  और इनके बाद मराठों, जाटों, मेव मुसलमान और यहां तक की आज अहीर भी  लगभग हर वो परिवार या समाज जो इन इलाके में ज़मींदार या बड़ा-किसान बना उसने पुराणों से अपना इतिहास टटोला और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसे ही अपने मूल-की कहानी बताकर खुदको क्षत्रीय बताया है।

आखिरकार ये क्यों भूला जाए कि प्रसिद्ध राजस्थानी महाकाव्य “पाबूजी का पड़” के नायक पाबूजी, जिन्हें कई लोग राठौर बोलते हैं, मूलतः पशुपालक ही तो थे।

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