भारतीय इतिहास में हिंदी पत्रकारिता को मूलतः चार समयखंडों में बांटा गया। पहला जब हिंदी पत्रकारिता का उदय हो रहा था लगभग 1826 से 1867। दूसरा भारतेन्दु काल (1876-1900), तीसरा महावीर प्रसाद द्विवेदी काल (1900-1920) और चौथा रहा गांधी काल, जब गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आए थे (1920-1947)।
उसके बाद से अब तक हिंदी पत्रकारिता का स्वातंत्रोत्तर (पोस्ट इंडिपेंडेंस) काल जारी है। वक़्त इसका भी एक विभाजन मांगता है और मैं इस दौर को हिंदी पत्रकारिता का ‘नारदीय’ दौर मानता हूं। ये पहले भी था लेकिन कभी मुखरता से इसका ऐलान नहीं हुआ। अब संस्थानों में इसकी मांग हो रही है, विमर्श हो रहे हैं। मुखालफत करने वाले लोग भी इसी बिरादरी के हैं। जो बात पहले तार्किक और वैज्ञानिक ना होने के आधार पर ख़ारिज कर दी जाती थी, आज उसे स्वीकृति देने की कोशिशें की जा रही हैं।
क्यूंकि देश के सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले पत्रकारिता के संस्थान से पढ़ाई का अवसर मिला और लिखने की वजह से निलंबित किया गया, इसलिए संस्थान के प्रशासन से तनातनी बनी रही। वहां बेहद सुनियोजित, व्यवस्थित और संस्थानिक स्तर पर पत्रकारिता की नई पौध को तैयार होते हुए देखा। यह बेहद दिलचस्प है कि जब पूरी पत्रकारिता की ही हालत खराब है ऐसे में हम हिंदी पत्रकारिता की बात कर रहे हैं। इसके साथ ही मैं अंग्रेज़ी को छोड़कर अन्य भाषाओं में संभावनाओं की तरफ देख रहा हूं, लेकिन दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा है।
क्या हिंदी का पत्रकार होना बस अनुवादक होना है:
अनुवादक होना बुरा नहीं है लेकिन पत्रकार होने के नाम पर केवल अनुवादक होना पेशे के साथ नाइंसाफी है जो आज की सच्चाई है।
प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बाद इंटरनेट ने हिंदी मीडिया को खासतौर पर एक नई ऊर्जा दी है। मीडिया के जानकार बताने लगे हैं कि भविष्य डिजिटल मीडिया का ही है, वो अपने आंकलन में सही भी हैं। लेकिन हिंदी पत्रकारिता की चुनौतियों पर कोई खास फर्क पड़ता नहीं दिखाई दे रहा है।
डिजिटल माध्यम की मौजूदगी ने प्रोडक्शन और डिस्ट्रीब्यूशन की कॉस्ट को बेशक कम किया है लेकिन मीडिया प्रतिष्ठानों ने इस बचत को कहीं और खर्च किए जाने की ज़रूरत नहीं समझी। उन्होंने नए रिपोर्टर नहीं बहाल किए, बल्कि उनकी जगह कंटेंट राइटर ने ले ली है। एजेंसी के सब्सक्रिप्शन ले लिए गए, वायर पर जो खबर आती है उस खबर की शक्ल बदलकर कंटेंट राइटर उसे पेश कर देते हैं। बाज़ार के बदलते हुए ट्रेंड को देखते हुए शिक्षण संस्थानों ने भी विषय-सूची में ‘टंकण’ (टाइपिंग) और ‘अनुवाद’ को ख़ासा महत्व देना शुरू कर दिया है। अगर आपकी हिंदी टाइपिंग की स्पीड अच्छी है और आप अनुवाद करना जानते हैं तो ये वक़्त आपका है।
इसलिए हिंदी पत्रकारिता में डिप्लोमा को ट्रांसलेशन साथ मिलाकर एक इंटीग्रेटेड कोर्स बना देने की ज़रूरत है। अलग-अलग डिप्लोमा की क्या ज़रूरत है, जब काम एक ही है? हालांकि ये भी कहां समझ आ पाता है कि जिन्होंने मास-कॉम में ग्रैजुएशन किया है उन्हें पत्रकारिता में ही पी.जी. डिप्लोमा क्यूं करना होता है, जबकि कोर्स के स्तर पर कोई फर्क है ही नहीं।
खबर बनाना, इन डिज़ाइन या टाइपिंग कोई राकेट साइंस तो है नहीं, इंडस्ट्री नई बहाली के नाम पर टाइपिस्ट/स्टेनोग्राफर लेना चाहती है और ये मानती है कि यही अनुभव दो-चार सालों में पत्रकार तैयार कर देगी। तो फिर आप पत्रकारिता के डिप्लोमा-डिग्री धारकों को क्यूं लेते हैं? सभी ग्रेजुएशन वालों को मौका दीजिए, उन्हें भी तो ये सब आता है।
रद्दी हो चले हिंदी अखबार:
जब मैं हिंदी के अखबारों को रद्दी बता रहा हूं, ऐसे में ये सवाल लाज़मी हैं कि क्या अंग्रेज़ी अखबारों में गुणवत्ता बची है? टिफिन में रोटी लपेटने का काम सिर्फ हिंदी अखबार ही क्यूं करें?
बेशक गुणवत्ता में गिरावट वहां भी दर्ज़ की गई है और ‘राष्ट्रीय पत्रकारिता’ की होड़ में क्या अंग्रेज़ी और क्या हिंदी? लेकिन इस होड़ में अंतर का एक कारण है- ‘लिबरल स्पेस’। आप हिंदी और अंग्रेज़ी अखबारों के ओपिनियन पेज को मिलाने की कोशिश कीजिए। अंतर साफ़ दिखना शुरू हो जाएगा। हिंदी के अखबार जो कभी अपने संपादकीय (एडिटोरियल) और अग्रलेखों के लिए जाने जाते थे, आज ‘विचार-विमर्श’ से दूरी बना चुके हैं।
द हूट की संपादक सेवंती निनन ने अपने शोध में एक वाकये का ज़िक्र किया जो आज के संदर्भ में बेहद महत्वपूर्ण है। सेवंती, फील्ड विजिट के दौरान पटना के ग्रामीण इलाकों में गई थी। वहां एक सरकारी स्कूल के शिक्षक ने बताया कि वो रोज 30 कि.मी. साइकिल चलाकर पटना जाया करते हैं जनसत्ता अखबार लाने। सेवंती ने जब उनसे पूछा कि आखिर जनसत्ता ही क्यूं? तो उन्होंने बताया कि जनसत्ता का सम्पादकीय और लेख उसकी खासियत हैं। अब ‘संपादक’ जैसी कोई संस्था बची ही नहीं है, उसकी जगह एच.आर. और मैनेजमेंट के लोगों ने ले ली है।
‘नो नेगेटिव न्यूज़’-ये क्या है:
हिंदी के अखबारों ने अपने मास्टहेड पर लिखना शुरू किया- ‘नो नेगेटिव न्यूज़’। मतलब कोई नकारात्मक खबर नहीं छापी जाएगी। आखिर ख़बरों की नकारात्मकता क्या है? इसे कैसे परिभाषित किया जाएगा? पहले संपादक तय करता था कि उसे कौन सी खबर दिखानी है, वह कितने कॉलम की होगी और लीद स्टोरी क्या जाएगी आदि। अब कोई नेगेटिव न्यूज़ के बरक्स पोज़िटिव न्यूज़ का चयन कैसे करेगा? जनसरोकार के कौन से मामले, जनता की परेशानियां, राजनीतिक गलियारों की हलचल पाठकों-दर्शकों तक लाना हमारी ज़िम्मेदारी है। इसमें नकारात्मकता का पैमाना कौन तय कर रहा होगा- पाठक, संपादक या सत्ता?
दरअसल यह नारदीय पत्रकारिता के उद्भव की एक झलक है जिसमे पत्रकारों के अन्दर भरा जा रहा है कि आपको सिर्फ आलोचना नहीं करनी है बल्कि सरकार के अच्छे कामों की तारीफ़ भी करनी है। सत्ता की तारीफ़ करने की बाध्यता को प्रतिबद्धता में तब्दील करने की व्यापक कोशिशें जारी हैं। सरकार के अच्छे कामों को दिखने के लिए उनके पास सरकारी बजट है, डीएवीपी है। हमारा काम है कि हम सत्ता के प्रति आलोचनात्मक रहें, लेकिन यह व्यक्तिगत स्तर पर भी संभव कैसे हो? मीडिया स्वामित्व को कैसे दरकिनार कर पाएंगे? आखिर जहां से कंट्रोल हो रहा है, वहीं से तो ये नेरेटिव तैयार किया जा रहा है।
दर्शकों/पाठकों आपसे माफ़ी:
बतौर हिंदी पत्रकार मैं आपसे माफ़ी मांगता हूं। लेकिन इस माफ़ी के साथ मैं ये वादा करने की स्थिति में नहीं हूँ कि अब चीज़ें बदल जाएंगी। मोटे तौर पर यह बेहद असंवेदनशील और निर्लज्ज बिरादरी है। चाहे वो भाषा के स्तर पर हो या कंटेंट के स्तर पर, हमने आपको खोखला करने की ठान ली है। आपको ट्विटर के ट्रेंड के फेर में फंसाकर मुद्दे गायब करना हमारा नया पेशा है।
यह व्यावसाईक हितों के लिए बेहतर है और व्यवसाय ही कर्म है। यह लिखते हुए मुझे अपराधबोध होता है कि हमारी स्टाइलशीट में ज़्यादातर शब्द अंग्रेज़ी के हैं, ख़बरों के नाम पर सॉफ्ट पॉर्न परोसना हमारे पेशे का हिस्सा बन चुका है। भाषा का स्तर गिर चुका है, आपके मुद्दे गायब कर हमारी दिलचस्पी अभिजीत भट्टाचार्य के ट्विटर अकाउंट में है। हमें कभी माफ़ मत कीजिएगा।
पहले पत्रकार खुद को एक्टिविस्ट कहने में झिझकते नहीं थे। वो अखबार में काम भी करते थे और सामाजिक आन्दोलनों में भी अहम भूमिका निभाते थे। लेकिन आज पत्रकार खुद के लिए भी खड़ा होने की स्थिति में नहीं है। उसे ‘क्रांतिकारी’ बताकर ख़ारिज करने का इंतजाम पूरा है। ‘राष्ट्रीय’ पत्रकारिता का ये दौर नया नहीं है। आज़ादी के आन्दोलनों में प्रेस की भूमिका कितनी अहम रही है, ये किसी से कहां छिपा है।
लेकिन आज की ‘राष्ट्रीय’ पत्रकारिता, सत्ता के साथ होने की जद्दोजेहद में है। तब यह सत्ता के खिलाफ और राष्ट्र के साथ थी। लेकिन आज सत्ता और राष्ट्र एक दूसरे के पर्याय बनाने को आतुर हैं।
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