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इन चार देशों में पीरियड्स को लेकर हैं अजीबोगरीब टैबूज़

किसी लड़की के पहले पीरियड्स उसकी ज़िंदगी में आने वाले सबसे अहम बदलाव में से एक होते हैं। ये एक ऐसा बदलाव है जो उसके शरीर और उसके दिमाग से उसे जोड़ता है, साथ ही उसके अनुभवों के हिसाब से समाज के प्रति उसकी सोच का निर्माण करता है।

पीरियड्स के एक आम शारीरिक प्रक्रिया होने के बावजूद इससे कई गलत धारणाएं और विश्वास जुड़े हुए हैं, जो केवल हमारे देश तक ही सीमित नहीं हैं। एक नज़र डालते हैं दुनिया के कुछ अलग-अलग कोनों और वहां पर पीरियड्स से जुड़े टैबूज़ पर।

1)- अफ़गानिस्तान

अफ़गानिस्तान में ये माना जाता है कि पीरियड्स के दौरान वेजाइना (योनी) को धोना नहीं चाहिए, ऐसा करने से महिलाओं में बांझपन हो सकता है।

2)- बारबाडोस

कैरबियन द्वीपों में से एक बरबाडोस में भी पीरियड्स को लेकर कुछ ऐसी गलत धारणाएं हैं, वहां पीरियड्स के दौरान महिलाओं के टैम्पोस (माहवारी के दौरान पैड्स की जगह पर इस्तेमाल किया जा सकने वाला एक विकल्प) इस्तेमाल करने को सही नज़र से नहीं देखा जाता। ऐसा माना जाता है कि जो महिलाएं टैम्पोस का इस्तेमाल करती हैं वो कुंवारी (virgin) नहीं होती और उनको एक चरित्रहीन महिला के रूप में देखा जाता है।

3)- नेपाल

हमारे पड़ोसी देश नेपाल में भी कहानी कुछ अलग नहीं है। नेपाल के कुछ हिस्सों में पीरियड्स के दौरान महिलाओं को मुख्य घर से अलग एक छोटी सी झोपड़ी में भेज दिया जाता है, यहां महिलाओं को अपना खाना और रोज़मर्रा की ज़रूरत की हर चीज़ खुद ही करनी होती हैं। इस परंपरा को चौपाड़ी कहा जाता है, यहां एक और विशेष बात ये है कि इसमें वो हर महिला आती है जिसे पीरियड्स होते हैं यानी कि 11 से 13 साल की किशोरियों को भी इस परंपरा को निभाना पड़ता है। 2005 में नेपाल सरकार के इस परंपरा पर कानूनन रोक लगाने के बाद भी यह बदस्तूर आज भी जारी है।

4)- केन्या

अफ्रीकी देश केन्या में भी पुरुषों का हर फैसले पर एकाधिकार होने के कारण महिलाओं को पैड्स या पीरियड्स के दौरान उचित साधनों का मिलना पूरी तरह से उनके पति या पिता पर निर्भर होता है। इस कारण आज भी वहां पीरियड्स के दौरान निकलने वाले खून को सोखने के लिए कई महिलाएं घास, पत्तियां और पेड़ की छाल का इस्तेमाल करती हैं।

बहुत सारे लोगों को लगता है कि पीरियड्स से जुड़ी गलत धारणाएं केवल ग्रामीण या पिछड़े इलाकों की समस्या है, लेकिन शहरी इलाकों में भी पुरुषवादी सोच के चलते पीरियड्स पर बात करने को गतल नज़र से देखा जाता है। ये नज़रिया महिलाओं में एक हीन भावना को जन्म देता है, जो उनके आत्मसम्मान पर बुरा असर डालने के साथ उनके अंदर इस मुद्दे पर बात करने में एक संकोच और शर्म पैदा करता है। इसी का विस्तार यौन हिंसा को चुपचाप सहने और सामाजिक संस्थानों जैसे स्कूलों में उनकी भागीदारी के कम होने के रूप में सामने आता है। महिलाओं को एक चीज़ की तरह दिखाने वाले और नैतिकता की दुहाई देने वाले इस नज़रिये ने ही सेक्स और गुप्तांगों पर बात करने को लेकर पैदा होने वाली शर्म को वैश्विक बनाया है।

ये शर्म और महिलाओं के आत्मसम्मान पर इसका बुरा असर उनके मानसिक स्वास्थ्य को सामाजिक रूप से तो नुकसान पहुंचाता ही है साथ ही उनके अपने शरीर पर अधिकार और उनकी पहचान पर भी एक बड़ा खतरा पैदा करता है।

ये देखा गया है कि पीरियड्स के दौरान कई महिलाओं की शारीरिक गतिविधियों जैसे चलना, दौड़ना या खेलना वगैरह पर रोक लगा दी जाती है। इससे महिलाओं में उनके शरीर के प्रति पैदा होने वाली शर्म के कारण उनके अपने शरीर से जुड़े फैसले लेने की क्षमता पर भी असर पड़ता है। जैसे मां बनने के फैसले में उनकी क्या भूमिका होनी चाहिये, या वो मां बनना भी चाहती हैं या नहीं। आत्मविश्वास और आत्मसम्मान में कमी को भी इसके एक असर के रूप में देखा जा सकता है। कुल मिलाकर पीरियड्स से जुड़ी ये धारणाएं ना केवल एक महिला के शरीर पर बुरा असर डालती है बल्कि उनके मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े सामाजिक पहलू यानी कि साइको सोशल आस्पेक्ट पर भी नकारात्मक असर डालती हैं।

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