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क्यूं ट्रिपल तलाक न्यायिक मुद्दा है धार्मिक आस्था का नहीं

जबानी तीन तलाक के मुद्दे पर माननीय उच्चतम न्यायालय में सुनवाई चल रही है जिसका प्रश्न लाखों मुस्लिम महिलाओं के हितों के साथ जुड़ा है। वहीं तीन तलाक के पैरोकार इसे धार्मिक आस्था से जोड़ कर दिखा रहे हैं और संविधान के अनुच्छेद 25, 26 और अनुच्छेद 29-30 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता का पक्ष रख रहे है जो उचित नहीं है। धर्म और उसे अपनाने की स्वतंत्रता का इससे कोई लेना देना नहीं है, अगर ऐसा होता तो बाल विवाह पर रोक लगाने वाला शारदा कानून मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा बाल विवाह की मंजूरी के बावजूद हिन्दू और मुस्लिम दोनों पर समान रूप से लागू नहीं होता।

तीन तलाक के मुद्दे पर मार्च 2016 में सायरा बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि पति के मनमाने तरीके से तलाक लेने और पहली शादी रहते हुए, दूसरी शादी करने से मुस्लिम महिलाएं कई बार भेदभाव का शिकार होती हैं। वहीं सुनवाई के दौरान ये प्रश्न खड़े किये गए कि क्या तीन तलाक के मामले अनुच्छेद 14 (समानता) और अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) का उल्लंघन नहीं है?

आज ये प्रश्न भी उठता है कि मानव अधिकारों से जुड़े सवाल को किसी धार्मिक संस्था पर छोड़ना कहां तक जायज है? ये प्राचीन बात थी जब संस्था के अभाव में विभिन्न कार्य धार्मिक संस्थाएं देखती थी जिनका आधार धार्मिक होता था। लेकिन आधुनिकता की ओर अग्रसर समाज की ज़रूरतें भी बदलती हैं और इससे लोगों की अपेक्षाएं भी। आज के जटिल समाज में किसी भी समस्या के लिए एक उचित संस्था की ज़रुरत है, ऐसे में मुस्लिम महिलाओं के तलाक से जुड़े मुद्दे को धर्म आधारित संस्थाओ पर कैसे छोड़ा जा सकता है?

इन संस्थाओं के पास न तो उचित कार्य पद्धति है और न ही उचित संसाधन। यही कारण है कि मुस्लिम महिलाओं को उचित न्याय से वंचित होना पड़ता है। कई मुस्लिम देशों में तीन तलाक का संहिताकरण (Codification) किया गया, वहीं इस पर कई कानूनी प्रवधान भी है ताकि मानवाधिकारों का संरक्षण किया जा सके।

ज़बानी तीन तलाक के संहिताकरण से वर्तमान नियमहीनता की शिकार जो महिलाएं हो रही हैं, उसे रोका जा सकेगा। मुस्लिम उलेमाओं और धर्म गुरुओं का भी मानना है कि तीन तलाक की सिंगल सिटिंग गैर इस्लामिक है। इसके खिलाफ मुस्लिम महिलाओं ने भी आवाज उठाई है। मुस्लिम महिलाओं के संगठन भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने तलाक ए बिदत यानी कि जबानी तीन तलाक के खिलाफ जन सुनवाईयां आयोजित की और सर्वे  किया जिसमे 92 फीसदी मुस्लिम महिलाएं बहु पत्नी प्रथा के खिलाफ थी।

इस्लाम स्त्री और पुरुषों में भेद नहीं करता जिसका उदाहरण इस बात से मिलता है कि मुस्लिम महिलाओं को भी सम्पति पर अधिकार उनके धार्मिक पक्षों द्वारा मान्य है। कुरान दोनों के साथ एक व्यवहार करता है, फिर भी उलेमाओं की पुरुषवादी सोच ने मुस्लिम महिलाओं के साथ न्याय नहीं होने दिया और उन्हें उन संवैधानिक अधिकारों से वंचित रखा है जो अन्य धर्म की महिलाओं को सहज ही उपलब्ध हैं।

यह सच है कि यह मुद्दे भावनात्मक हैं जिन्हें धर्म और रीती-रिवाजों से जोड़ कर देखा जाता है। ऐसे में ज़रुरत है तो रूढ़िवादी सोच को बदलने की। बढ़ती शिक्षा, माइग्रेशन और सामाजिक-आर्थिक संचरणशीलता के साथ वर्ण, जाति, धर्म, सम्प्रदाय और क्षेत्र से परे जाकर विवाह और विवाह विच्छेद अब आम होते जा रहे हैं। ऐसे में अगर संवैधानिक आधारों पर मानदंडों का संहिताकरण नहीं होगा तो नियमहीनता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इस पर कोई दो राय नहीं है कि मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता के पश्न पर किसी तरह की बाधा उत्पन्न न की जाए पर जहां मामला मानव अधिकारों से जुड़ा हो वहां पर उन्हें आगे आना होगा ताकि धर्म की आड़ में मानवाधिकारों के हनन को रोका जा सके।

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