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जब 7 साल बाद तोड़ा गया इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के सिनेट हॉल का ताला

आज कमरे की सफाई करते हुए उस वक़्त की एक पुरानी डायरी हाथ लगी, जब हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुआ करते थे। ये बात तब की है जब छात्रसंघ लगभग 7 वर्षों के प्रतिबन्ध के बाद फिर से बहाल हुआ था। छात्रसंघ के ताले टूटने के साथ ही एक और ताला टूटा था और ये था ऐतिहासिक सीनेट हॉल का ताला। ये लेख उसी बारे में है जब हमें पहली बार सीनेट हॉल के भीतरी नज़ारे का दीदार हुआ था।

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी

इलाहाबाद विश्वविद्यालय का सीनेट हॉल!! कुछ देर में एक नाटक का मंचन होने जा रहा था। गौरवमयी इतिहास समेटे इलाहाबाद विश्वविद्यालय और इस विश्वविद्यालय के अनेक ऐतिहासिक कार्यक्रमों, ऐतिहासिक तिथियों, तमाम रंगों, सुख-दुख, मिज़ाज और लहज़ों का साक्षी रहा मौन- वाचाल सीनेट हॉल!

प्रवेश करते ही शोर-गुल के माहौल ने स्वागत किया। अंग्रेज़ों द्वारा बनवाई गयी इस इमारत का जो आभामंडल बाहर से दिखता है, सूक्ष्म निरीक्षण करने पर लगता है वैसा ही या उससे भी बेहतर कलाकारी, नक्काशी और काशीदाकारी कभी भीतर भी रही होगी।

शुरुआत की लगभग एक चौथाई सीटें गद्दीदार हैं। प्रवेश द्वार बीच में है, प्रवेश करते ही आपकी बायीं तरफ गद्दीदार सीटें हैं और दायीं तरफ सामान्य लोगों के लिए सामान्य सीटें, बिना गद्दियों वाली कठोर सीटें! वैसे यहां तो हर आदमी खास है और गद्दी वाली सीटों की तमन्ना रखता है।

खैर जब मैं पहुंचा तो कार्यक्रम की घड़ी निकट थी, सो दरवाजे के ठीक बगल में दूसरी पंक्ति की ‘आम’ सीट पर बैठ गया। अपनी बायीं ओर की दीवार पर नज़र गयी तो कुछ राजाओं के नाम सफ़ेद पत्थर पर उकेरे हुए दिखे। शायद किसी प्रकार का आभार प्रकट करने हेतु लिखे गए थे।

विश्वविद्यालय का शानदार ‘लोगो’ वटवृक्ष भी पत्थर पर 3D प्रकार से उकेरा हुआ जबर लग रहा था। जैसे-जैसे कार्यक्रम की घड़ी निकट आ रही थी, भीड़ बढ़ रही थी। आयोजन मंडल भीड़ को संयोजित करने में पूरे मनोयोग से लगा हुआ था, खैर कार्यक्रम शुरू हुआ। प्रो. उमाकांत ने मंच से पर्दा हटाकर कार्यक्रम को आशीर्वाद और औपचारिक शुरुआत दी। मंच के ठीक सामने से दो छात्र दौड़ते हुए ऐसे आये मानो ‘बवाल’ हो गया हो। लेकिन जब वे मंच पर कूदे तब मालूम पड़ा कि वे नाटक के पहले किरदार हैं। तकनीकी खामियों को छोड़ दिया जाये तो काफी रोचक लग रहा था नाटक।

जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ने लगा, लोग दरवाजे से आते और वहीं खड़े होकर देखने लग जाते। ये ‘लोग’ इस गौरवमयी विश्वविद्याय की गरिमा, उसकी आभा और उसके भविष्य थे। न जाने किस गुमान ने इनकी आंखों पर अकड़ का पर्दा डाला हुआ था। गजब ढिठाई दिखाते हुए बार-2 मना करने पर भी यूं ही सीना ताने खड़े थे। थोड़ी देर तक तो आम कुर्सियों पर बैठे ‘ख़ास’ लोगों ने बर्दाश्त किया, पर जब नाटक के किसी संवाद पर तालियां या सीटियां बजती तो ये लोग भी कुर्सी की इज्ज़त भूलकर उछलने लगते।

पहले तो उन्होंने सिर्फ उछल उछलकर देखने की कोशिश की, फिर थोड़ी देर बाद उन्ही कुर्सियों पर खड़े भी हो गए जिन पर बैठना थोड़ी देर पहले ‘शान’ लग रहा था। लोगों को जब कुछ मज़ेदार दृश्य दिखते तो कुर्सियों पर ही लगभग झूम जाते थे और झूमने के इस नशे में वे ये भूले जा रहे थे कि वे कुर्सियों को पैरों तले रौंद रहे हैं। बेचारा आयोजन मंडल इतना अच्छा कार्यक्रम करवा रहा था, फिर भीड़ के इस रुख को देखकर उनके चेहरे पर एक भय का भाव साफ़ दिख रहा था।

इस विश्वविद्यालय का हर छात्र- अफसर या नेता या किसी बड़े ओहदे या बड़ी कुर्सी का ख्वाब लेकर यहां आता है और सब्र के नाम पर शून्य दिखता है। कहां कि औरों को बैठाने की कोशिश हो, ये लोग तो खुद ही ‘हुड़दंग मोड’ में आ चुके थे। साथ खड़े हमारे मित्र ने अपने आगे खड़े एक वरिष्ठ दिख रहे सज्जन को बैठने को कहा तो उनका जवाब आया, “अगवां लोग खड़ा हयन त उनका न बोलबा।” फिर हम समझ गए कि सज्जन काफी ‘वरिष्ठ’ और ये तो इनका अनुभव बोल रहा है।

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