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किसान-मज़दूर का उग्र होना : क्या हमारी देन नहीं है ?

बड़ा खतरनाक होता है जब विपक्ष न के बराबर हो और सरकार बहुत ताकतवर हो क्युकि अगर ये जनता जब विपक्ष बनती है तो सरकारें हिल जाती हैं. चुनाव जीतना और बार बार भारी बहुमत से जीतना भी एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी ले कर आता है पर जब सरकार , मीडिया सोशल मीडिया के आधार पर जनता के विकास का आकलन करती है और बड़े पोस्टर्स और विज्ञापनों में विकास की चमकीली चमक देख एक गांव का आदमी सोचता है” सरकार तो बहुत काम कर रही है , रोज़ प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बड़ी बड़ी घोषणाएं कर रहें है और फिर ये अखबारवाले भी रोज़ इनकी ही बात कर रहे हैं पहले कभी ऐसा ऐसा नहीं हुआ क्युकि पहले की सरकार काम ही नहीं करती थी” .
सरकार का एक स्वर में गुणगान सुन कर वो गांव का किसान -मज़दूर अपने सरपंच को बोलता है कि सरकार तो बहुत काम कर रही है पर तुम लोग पैसा खा रहे हो ,वो थोड़ा लड़-झगड़ कर बैंक जाता है पर किसान के हँसते हुए पोस्टर से कुर्सी सताए हुआ अधिकारी उसको भाव ही नहीं देता है फिर वो जनपद अधिकारी या जिला अधिकारी के पास जाता है पर वंहा भी उसको उस पोस्टर वाले हँसते किसान या मज़दूर जैसा विकास नहीं मिलता है . वो गुस्से में है फिर कंही किसी जुलूस में शामिल हो जाता उसके अंदर गुस्सा है फिर वो किसान -मज़दूर -दलित में बंट कर जंग लड़ता है यूनियन के बैनर के तले फिर लाठिया खाता है और गोलिया खाता है और इलज़ाम ये कि उसने सरकारी संपत्ति और वाहनों में आग लगा दी !
राजनैतिक पार्टिया किसानो को इसलिए बेफकूफ बना लेती हैं कि उन्हें पता होता है कि किसान कर्ज़े में है अगर हड़ताल करेगा तो खुद भूखा मरेगा पर इस बार ये दांव जाया गया और मंदसौर में पांच किसानो की गोली मार कर हत्या ने सरकार की उस छबि को पेश किया जो शायद जनरल डायर से भी खतरनाक है . चुनाव में, सरकार की उपलब्धियों में करोड़ो रुपए बर्बाद करने वाली ये सरकार क्यों नहीं सोचती कि देश को लम्बे समय तक भरम में नहीं डाला जा सकता . झूठे वादे. मिथ्या प्रचार, आक्रामक प्रचार , मंत्रियो के भड़काऊ भाषण , सोशल मीडिया पर हिंसक पोस्ट, मीडिया रोज़ हिंसा का महिमामंडन, चिल्लाकर चीख कर बातें करना , ऐसे माहोल में भी जनता से ‘अहिंसा’ की अपेक्षा करना अपनेआप को ही मूर्ख बनाना होता है . विडंबना ये है कि जो लोग राम के नाम पर हिंसा फैला कर राष्ट्रवाद की बातें कर रहे थे , आज वही लोग किसानो की कथित हिंसा को देख कर ‘गाँधी के देश ‘ को याद कर रहें हैं .
बड़े दोहरे लोग है हम , ‘राम’ के नाम पर हिंसा भी कर लेते हैं और ‘गाँधी’ के नाम पर हिंसा की आलोचना भी! हम देश के नाम पर लाइन में लग सकते हैं और सरकार बड़ी आसानी से हमे लम्बी लम्बी कतारों में लगा कर बहला सकती हैं पर जब ये लाइन बिखरती है तो भीड़ बन जाती हैं और तब क्या होता है कोई नहीं कह सकता .
प्रधानमंत्री जी ,आप सरकार में हैं , रोक सकते हैं ये सब. सबसे पहले खुद को रोकिये अतिप्रचार से फिर मंत्रियो को रोकिये भ्रामक असंवेदनशील बयानों देने से , सोशल मीडिया पालिसी बनाइये , मीडिया के लोगो को चीख चीख कर बात करने से रोकिये जब ये सब बातों की हिंसा नहीं करेंगे तब सड़को पर भी हिंसा नहीं होगी और हाँ ! आलोचना को सुनना सीखिए ,जब आलोचना करने की आज़ादी होती है लोग लोकतंत्र में रम जाते है पर जब ये दायरा भी नहीं मिलता तो लोग भीड़ बन कर अनियंत्रित हो जाते है.
याद रखिये , तानाशाह तब तक शासन करते हैं जब तक वो लोगो को डरा सकते हैं , लोकतंत्र में डर की कोई जगह नहीं है ,वंहा ‘विश्वाश’ ही है सबकुछ वो ही सरकारों को वर्तमान बनता है और भूत भी !
-विवेक राय

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