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खिड़की…प्रेम का झरोखा

आपकी पोस्ट पढ़ कर मुझे मेरी प्रेम कहानी याद आ गयी। लेकिन मेरी प्रेम-कहानी का अंत आपके पोस्ट से थोड़ी अलग है। मैं भी अपने माता-पिता के दवाब में आकर अपने प्यार से दूर हो गयी थी। किसी और से शादी करनी पड़ी। उम्र भी क्या थी मेरी उस वक़्त? 16-17 साल की थी मैं। इंटर में पढ़ रही। एक लड़का पढता था साथ में। उसका नानीघर मेरे ही गाँव में था। अपने गाँव में बहुत बदमाशी करता था। पढता लिखता बिल्कुल न था।तो उसे नाना-मामा के पास भेज दिया था उसके घर वालों ने। कहता कि बहुत प्यार करता है मुझसे। मैं बस हँस देती। हाँ या न, कुछ न कह पाती। जानती थी इस प्रेम कहानी को अंजाम तक न पहुँचा पाऊँगी। इसलिए हाँ न कहती। न कहने को दिल गवाही न देता। एक उम्मीद थी शायद कोई चमत्कार हो जाए। आख़िर उम्मीद पर ही तो दुनिया टिकी है।

धीरे-धीरे सपने देखने लगी थी मैं। ऐसे सपने जिसमें प्रेम था। उसकी हँसी भरी बातें थीं। बात-बात पर उसका परेशान करना था। मेरा झूठ-मूठ का गुस्साने का नाटक करना था। और सबसे बड़ी बात कि खुशियाँ थीं मेरे जीवन में। वो प्यार भरे जीवन के सपने भी अजीब थे। आज भी याद करती हूँ तो मन चहक उठता है। एक अल्हड़पन, बचपना था। या यूँ कह लीजिए कि मासूमियत और भोलापन था उस प्यार में। बस एक कमी थी। समझदारी की। कुछ समझ में नहीं आता था कि क्या करूँ। उसे हाँ कहूँ या न कहूँ। कुछ फ़ैसला न ले पाती थी। जब भी वो पूछता, मैं हँसी में टाल देती। सोचती कि सही समय आने पर उसे दिल की बात बता दूँगी।

लेकिन सही समय कभी आया ही नहीं। एक दिन कोचिंग से घर लौटी तो माँ ने बताया एक लड़का मिल गया है। अच्छे घर का है। पढ़ा-लिखा। और अच्छा कमाता भी है प्राइवेट नौकरी में। सरकारी नौकरी वाले से शादी करने की हमारी हैसियत न थी। मैंने मना किया कि अभी शादी नहीं करनी। लेकिन मेरी सुनता कौन था। बेटियों की आवाज़ सुनी ही कब जाती है हमारे समाज में। पूर्वी उत्तरप्रदेश के छोटे से गाँव की लड़की के दिल की बात दिल में ही दफ़न हो गयी। जहाँ माँ-बाप ने कहा वहाँ शादी कर ली मैंने। सब की शादियाँ तो ऐसे ही होती थीं। मेरी भी हो गयी। बस यहीं से फ़र्क है मेरी कहानी और आपकी पोस्ट में। मेरा पति वैसा नहीं जैसा आपकी दोस्त को मिला। ज्यादा मतलब नहीं उसे मुझसे। बस बिस्तर तक ही मतलब है उसे मुझसे। बाकि समय बस अपने काम से मतलब है। मैंने अपनी ज़िन्दगी के सात साल ऐसे ही गुज़ार दिए। दो बच्चों की माँ भी बन गयी।

फ़िर एक दिन अचानक से मुझे अपने मायके में वो मिला। वो अपने नाना-नानी से मिलने आया था। पूछने पर बताया कि सरकारी नौकरी हो गयी है उसकी। शादी भी दो साल पहले कर ली उसने और एक प्यारी सी बेटी भी है। उस मुलाकात के बाद धीरे-धीरे फोन पर बातें होने लगीं। एक दूसरे से सुख-दुख शेयर करने लगे। इस बार फ़िर उसने मुझसे पूछा। मैं इस बार न नहीं कह पायी। उसके प्यार को ठुकराने की हिम्मत मुझमें नहीं थी। वो भी अपनी शादी से खुश नहीं है। मैं भी नहीं। अब हमारी बातें रोज़ होती हैं। जब कभी वो मेरे शहर आता है तो मैं उससे मिलने होटल भी चली जाती हूँ।

हमारे बीच वो संबंध हैं जिसे समाज़ अवैध कहता है। लेकिन यही अवैध संबंध मेरे जीवन को सार्थकता प्रदान करता है। मेरे चेहरे पर मुस्कान देता है। मैं खुश रहने लगी हूँ अब फिर से। पिछले सात साल तो जैसे कि दुःस्वप्न के जैसे बीते थे। लगता था मैं कैद में हूँ। एक बंद कमरे में हूँ जहाँ न खिडकियां हैं और बाहर निकलने का कोई दरवाज़ा। खुलकर साँस नहीं ले पा रही थी। अब लगता है जैसे किसी ने उस बंद कमरे की खिड़की खोल दी हो। खुली हवा की साँस ले पा रही हूँ। आज़ाद तो नहीं हूँ। लेकिन हाँ ताज़ी हवा तो आ रही है। इस बंद कमरे से पूरी आज़ाद नहीं हो सकती। अपने बच्चों से बहुत प्यार करती हूँ। डरती हूँ कि आज़ादी की कीमत बच्चों से न चुकानी पड़े। लेकिन उस खिड़की को भी बंद नहीं करना चाहती।

मैं ताज़ी हवा के झोंके का अनुभव करना चाहती हूँ। वरना इस घुटन भरे कमरे में खुद को खो दूँगी। क्या मैं गलत हूँ?

#इनबॉक्स से

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