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मंदसौर कांड- “डर के दस्तावेज़ नहीं होते, डर का माहौल होता है”

दोस्तों के साथ बैठे हुए देश के हालातों पर बातचीत हो रही थी। राजनीति में दिलचस्पी रखता हूँ सो उसकी बातें आमतौर पर मेरी बातचीत का हिस्सा रहती है। गुरमेहर कौर वाले पूरे घटनाक्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय का माहौल देखकर और उससे पहले भी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों में विचारधारा विशेष की हरकतों को देखते हुए मैंने कहा कि भई। देश के हालात को देखते हुए बहुत डर लगता है, इमरजेंसी के से हालात पैदा हो रहे हैं। दोस्तों ने आलोचना की और कहा कि पगला गये हो झा! ऐसा कुछ नहीं है। गौरतलब है कि मैं आगे ज्यादा कुछ बोल नहीं पाया क्योंकि कारण पूछे गए जिसके आधार पर मैं मेरे मन के डर की बात कर रहा था। कोई तथ्यात्मक कारण मुझे मिला नहीं। इस घटना से कुछ दिनों पहले कई सेलीब्रिटीज़ और प्रभावशाली लोगों को भी ऐसा डर लगा था। फिल्म अभिनेता आमिर ख़ान को पूरे देश में आड़े हाथों लिया गया कि आख़िर किस आधार पर वो डर की बात कर रहे हैं? आमिर भी डर का तथ्यात्मक कारण नहीं दे पाए। वास्तव में कोई भी अपने डर का तथ्यात्मक कारण नहीं दे पाया। और सबूत के अभाव में उनके डर को ख़ारिज़ कर दिया गया।

अभी कुछ दिन पहले फेसबुक पर हुई एक घटना के बाद न जाने क्यूँ बहुत डरा हुआ महसूस कर रहा था। अपने प्रेरणास्रोत बड़े भाई से इस संबंध में बात भी की और अपने डरे हुए होने की बात भी कही। बहरहाल इस बार भी मैं अपने डर का कोई तथ्यात्मक कारण नहीं ढ़ूँढ़ पाया। लेकिन डर बहुत लगा। आज भाई ने एक लेख सांझा किया जो पता नहीं कैसे मेरी नज़रों से बचा रह गया था। इस लेख ने डर को लेकर मेरे कारणविहीन होने को जायज़ बताया। लेख पत्रकार रवीश कुमार का था। रवीश सर लेख में लिखते हैं कि डर के दस्तावेज़ नहीं होते, डर का माहौल होता है। डर को लेकर अपने कारणविहीन होने के कारण का पता आज लगा। शुक्रिया रवीश सर। पत्रकारिता की पारंपरिक शिक्षा नहीं ली है, लेकिन बड़े बड़े पत्रकारों के मुँह से पत्रकारिता के विषय में जो कुछ सुना, पत्रकारिता के विषय में पत्रकारिता के अध्यपकों ने जो बातें बताई उनके बाद इसी निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि वर्तमान में बहुत कम दिखने वाले पत्रकार, सच्चे मायनों में पत्रकार हैं। ज्यादातर मीडिया हाउस PR Agency बनकर रह गईं हैं। बहरहाल आप उन चुनिंदा पत्रकारों की ज़मात में खड़े नज़र आते हो जिन्हें पत्रकार कहकर बुलाया जा सकता है।

आज हालात में डर का जो माहौल पसरा हुआ है वो डरावने से भी ज़यादा डरावना है। सेना के जवान से लेकर अन्नदाता किसानों तक लगभग हर तबका डरा हुआ है। सरकार के ख़िलाफ़ बोलने वाले हर व्यक्ति के साथ उसी तरह का व्यवहार हो रहा है, जैसा राजशासन में राजा के ख़िलाफ़ बोलने वालों के साथ हुआ करता था। मध्य प्रदेश का मंदसौर जिस घटना का गवाह बना है वो निंदनीय से भी अधिक निंदनीय है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री जिस किसान की तरक्की में देश की तरक्की देखा करते थे, मध्य प्रदेश में उस किसान वर्ग पर गोलियाँ बरसाई गई। यद्यपि मैं किसानों के द्वारा किए गए हिंसक कृत्यों का पुरज़ोर विरोध करता हूँ तथापि जिन कारणों से किसान आंदोलन करने के लिए मजबूर हुए वो कारण सरकार जनित हैं। इस वर्ष फसलों की बंपर पैदावार हुई है, लेकिन फिर भी किसानों की आत्महत्या के दर बढ़ रहे हैं। किसान महाराष्ट्र के हों या मध्य प्रदेश के, व्यथित हैं। हरियाणा जैसे राज्य में भी गरीब किसानों के हालात ठीक नहीं।अनाज मंडियों पर आढ़तियों का कब्ज़ा है। किसानों और गरीबों की बात करने वाली पार्टियाँ सत्ता में आते ही दूध में पड़ी मक्खी की तरह इन किसानों और गरीबों को निकाल फेंकत़ी है।

मध्य प्रदेश की हालिया घटना का जो कारण मुख्य रुप से दिखता है वो हैं-

दूध का कम दाम

सरकार द्वारा दूध का कम दाम देना। किसानों का कहना है कि सरकार उनसे 33 रुपए प्रति लीटर के दर से दूध ले रही है जबकि उनकी लागत मूल्य 37 रुपए प्रति लीटर है। ध्यान देने वाली बात ये है कि सामान्य तौर पर भी दूध 45 रुपए – 48 रुपए के दर पर मिल रहा है।

आर्थिक नुकसान की भरपाई

पिछले दो साल सूखे जैसे हालात के कारण किसानों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए किसान सरकार से सहयोग की अपेक्षा कर रहे हैं।

फसलों के लिए ऊँची दरों की मांग

किसान लागत मूल्यों की अधिकता के कारण सरकार से फसलों के लिए ऊँची दरों की मांग कर रहे हैं। कृषि मंत्रालय के अनुसार इस वर्ष अनाजों की रिकॉर्ड पैदावार दर्ज़ की गई है, लेकिन किसानों को उचित मूल्य नहीं मिला।

बिचौलिओं का खेल

बात महज़ इतनी सी है कि हम आसमानी दामों पर सामान खरीदने को मजबूर हैं और किसानों को उनके फ़सल का उचित मूल्य मिल नहीं रहा। बीच का खेल आम लोगों की सोच से परे है। बिचौलिओं के सहारे कौन कौन अपनी तिज़ोरी भर रहा है, समझना दुरूह नहीं।

शास्त्री जी आज आपके देश में न तो किसान जयी है न ही जवान। किसी की जय हो रही है तो वो है सरकार और सरकार का समर्थन करने वाली ताकतें। समीक्षा और आलोचनाओं के घर में आग लगाया जा रहा है। मैं और बहुत से अन्य लोग डरे हुए हैं किंतु डर के तथ्यात्मक कारण हमारे पास नहीं क्योंकि डर के दस्तावेज़ नहीं होते, डर का माहौल होता है

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