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मेरी निजी पसंद को समाज क्यो नही मान रहा???

समाज में बात सिर्फ जाति, धर्म या गोत्र तक ही सीमित नही है। यहां बात हमेशा से यही रही है कि आप अपने मन से किसी को पसंद नहीं कर सकते हैं। अलग धर्म, अलग जाति या समान गोत्र मे शादी के लिए ना मानने वाले किस्सों की लिस्ट शायद थोड़ी ज़्यादा लंबी हो सकती है पर समान धर्म, समान जाति और अलग-अलग गोत्र होते हुए भी इसे स्वीकार नहीं करने वाले किस्से और लोग आज भी इस समाज का ही हिस्सा हैं। एक बच्चा अपनी मां से अपनी पसंद का ज़िक्र करे भी तो पहली प्रतिक्रिया यही आती है कि लोगों को पता चलेगा तो “लोग क्या कहेंगे?”

समान धर्म है, समान जाति है, अलग-अलग गोत्र है फिर भी लोग क्या कहेंगे यही यक्ष प्रश्न बना रहता है। क्यों बना रहता है? सिर्फ इसीलिए कि समाज अभी भी अपनी पसंद के ऐच्छिक विवाह को स्वीकारने को तैयार नहीं है। मां, बाप या समाज को अभी भी यही लगता है कि बच्चों के जीवनसाथी चुनने का अधिकार बुजु़र्गो के पास सुरक्षित होना ही चाहिए। एक अनुभव इसे सही भी ठहरा सकता है क्योंकि कम उम्र मे लिए गए निर्णय की परिपक्वता कम ही होती है, फिर भी क्या ऐसे निर्णयों को सिरे से खारिज कर देना कहां तक सही है? क्या इन निर्णयों पर विचार विमर्श नही किया जा सकता? क्या समाज अपने आने वाली पीढ़ी को इतना कच्चा और कमज़ोर समझता है कि उसे लगता है कि ये सिर्फ भावुकता वश लिया गया निर्णय है जो भविष्य मे विफल ही हो जायेगा।

कम उम्र मे लिया गया निर्णय भावुकता वश हो भी सकता है और ऐसे कई विफल उदाहरण समाज मे है जिसपे बड़े गर्व से हमारे अपने कहते है कि देखा! ये सब सही नही है इसीलिए ऐसा हुआ या इस तरह से लिया गया निर्णय कभी सही नही होता है,पर इसे समझने की जरूरत है कि इन निर्णयों मे भावुकता कितनी है और वास्तविकता कितनी है। आप भावुकता को नकार के खारिज़ कर सकते है यह बिल्कुल सही है परंतु वास्तविकता को इसी तर्ज़ पर नही नकारा जा सकता। जब कोई अपनी ज़िन्दगी बना चुका है, अपने जीवन के लक्ष्य को पा चुका है, पढ़ाई पूरी करके अपने करियर मे आगे बढ़ चुका है, कुछ बन चुका है तब नही,बिल्कुल भी नही, क्योकि वो अपना निर्णय विचार विमर्श के साथ और  जीवन को सोच कर ले सकता है क्योकि निःसंदेह इस समाज ने ही उसे इस लायक बना दिया है।

फिर भी क्यों बात वही पर आ कर रुक जाती है। क्यों बुजुर्ग ये मानने को तैयार नही की किसी की अपनी निजी पसंद कोई हो सकती है या हो सकता है और यह चुनाव उनके अपने जीवन को लेकर किया हुआ एक अच्छा निर्णय हो सकता है।और यह हमेशा अलग धर्म या जाति या समान गोत्र तक ही नही सिमटता है। सब कुछ सही होते हुए भी यह गलत है इस समाज मे क्योंकि अपनी पसंद का लिया हुआ निर्णय आप अपने बुजुर्गों के सामने कैसे रख सकते है। कोई बच्चा अपने बुजुर्गो के सामने अपना निर्णय कैसे रख सकता है? यह तो बुजुर्गों अधिकार है जिसे हमे मानना है।इस मुद्दे पर बहस तो चलती आयी है और चलती ही रहेगी लेकिन ख़ुद समाज के बुजुर्गों को ही इस पर विचार विमर्श करना है कि इसमे गलत क्या है?

अगर गलत होने का तर्क हर बार सिर्फ यही दिया जाये की आपके कम उम्र मे लिया गया अपरिपक्व निर्णय आपको बाद मे पछतावा देगा तो बुजुर्गों का लिया गया निर्णय सही ही होगा इसकी भी तो कोई गारंटी नही है और इसके भी उदाहरण इसी समाज मे भरे हुए है जिसमे बुजुर्गों के लिए निर्णय जो विफल हुए है उन्हें उन्ही की पीढ़ी ढो रही है क्योकि और कुछ नही किया जा सकता है ये तो नियति है ना। बुजुर्गों के जीवन का अनुभव निःसंदेह आने वाली पीढ़ी को लेना चाहिए क्योकि वो समाज को आगे बढ़ाने वाली अमूल्य धरोहर है परंतु आने पीढ़ी का सुझाव भी सोचनीय और विचारणीय है जिसे नकारा नही जा सकता है।

बुजुर्ग इन सुझावों को अपने जीवन के अनुभव से तौल सकते है परंतु अपनी जीवन शैली या हमेशा से चली आ रही प्रक्रिया को ही आधार मानकर नही अपितु तथ्यों और तार्किकताओं के आधार पर।आपकी आने वाली पीढ़ी आपसे अपनी मन की बात करना चाहती है, वो आज भी आपको उतना ही आदर और सम्मान देती है जितना इस देश के पुरानी पीढ़ियों ने दिया है, वो आपको नकार नही रही है और ना ही आपकी सोच को, वो तो बस यही कहना चाहती है उनके लिए निर्णय भी एक दम से गलत या अवैधानिक नही है,समाज अपना स्वरूप बदल कर और परिपक्व विचार विमर्श कर इसे सहर्ष स्वीकार कर सकता है क्योकि इसमे गलत कुछ नही है,,,कुछ भी नही है,,,

Ashutosh sharma

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