बुढ़ापा—आज नहीं तो कल सबको आना ही है। बेशक वो बुज़ुर्ग किस्मतवर हैं जो बुढ़ापे में अपनी औलाद के साथ रह पाते हैं। आज के समाज में तेज़ी से फैलते हुए ‘न्यूक्लियर फैमिली’ कल्चर ने ‘ज्वाइंट फैमिली’ के कॉन्सेप्ट का जड़ से सफाया कर दिया है। छोटे शहरों में भी अब लोग अलग-अलग, अपनी फैमिलीज़ के साथ रहना ही ज़्यादा पसंद करते हैं। अपनी फैमिलीज़ यानी अपनी बीवी /अपना शौहर और अपने बच्चे! बूढ़े माँ-बाप अब धीरे-धीरे ‘एक्सटेंडेड फैमिली’ का हिस्सा बनते जा रहे हैं।
ये बात तकलीफदेह तो है और इसका एहसास भी हम सबको है, लेकिन हम सब अपनी निजी ज़िंदगियों में ज़रूरत से ज़्यादा मसरूफ़ हैं-आखिर घर चलाना है, बॉस को भी खुश रखना है और अपने पार्टनर को भी! इतने स्ट्रेस में क्या इस मुश्किल का कोई हल है? आज के दौर की सबसे बड़ी समस्याओं में से ये एक बड़ी समस्या है, लेकिन ये वाली हमें इतनी बड़ी क्यों नहीं लगती?
हाल ही में मेरे साथ एक ऐसा ही वाकया पेश आया जिसको मैंने बहुत शिद्दत के साथ महसूस किया।
एक शाम अपनी छत पर कुछ देर चहलकदमी करने के बाद मैं सीढ़ियों से उतर ही रही थी कि मैंने देखा हमारे बराबर वाली आंटी, अम्मी से मेरे बारे में कुछ पूछ रही हैं। कुछ काम था शायद उनको, घर में भाइयों की गैरमौजूदगी की वजह से ही उन्हें मेरा ख्याल आया, ऐसा मेरा अंदाज़ा है। अम्मी और आंटी की बातचीत खत्म ना होने पाई थी कि मैं इन दोनों के सामने आ धमकी। झट से उनको नमस्ते किया जिसका जवाब हमेशा की तरह “खुश रहो बेटा, निरोग रहो!” था। वो बरसों से यही एक दुआ देती आ रही हैं। और अब जबकि होश संभालने पर इस दुआ की गहराई पर ध्यान गया, तो ये मेरी भी पसंदीदा दुआ बन गई।
खैर, दुआओं का सिलसिला खत्म हुआ और उन्होंने मुझे अपने घर के अंदर आने को कहा। बमुश्किल वो मुद्दे पर आईं और अपना सैमसंग गुरु (मोबाइल फोन) मुझे दिखाने लगीं, जो उनके बेटे ने हाल ही में उन्हें मंगवा कर दिया था। इससे पहले कि मैं इस वाकये की तफ्सीलात में जाऊं, बताना चाहूंगी कि ये बुज़ुर्ग साहिबा जिनकी उम्र लगभग 75–80 बरस के बीच होगी, कुछ 20 साल से हमारी पड़ोसन हैं। बच्चा छोटा ही था जब शौहर चल बसे। अकेले ही जैसे-तैसे परवरिश करके एकलौते बेटे को किसी काबिल बनाया।
माशाल्लाह! वह लाडला बेटा अब हमारे ही शहर के एक दूसरे कोने में अपनी एहलिया के साथ रिहाइश फरमां है। आंटी कभी-कभी Uber कैब बुक करवा लेती हैं हमसे, अपने बेटे-बहू के घर जाने के लिए। ये काम अंजाम देने में पता नहीं क्यों मुझे बुहत खुशी महसूस होती है। क्यों होती है? क्या होती है? कैसे होती है? ये सब जज करने में अपना वक़्त ज़ाया न करियेगा। हाँ! अगर कुछ करना ही है तो ज़रा कसरत से तवज़्जो फरमाइयेगा इस प्वाइंट्स पर, कहानी पूरी पढ़ने के बाद।
तो हम आंटी के घर में थे। बेचारी अपने फोन को लेकर काफी परेशान नज़र आ रही थीं, मुझसे पूछने लगीं, “बेटा! इस फोन से भी सादा कोई और फोन मिलता है क्या बाज़ार में?” मैंने जवाब में कहा, “ आंटी! मेरी नज़र में तो यह निहायती सादा और यूज़र-फ्रेंडली फोन है, इसमें क्या हो गया?” बेहद मायूसी के साथ जवाब देते हुए बोलीं, “बेटा, किसी को फोन ही नहीं मिला पा रही हूं। आजकल तो इतने बड़े-बड़े मोबाइल फोन्स आ रहे हैं, पता नहीं क्या झमेले होते हैं उनमें! मुझे कौन से गेम्स खेलने हैं, जो मैं वो फोन खरीदूं?”
आंटी के हिसाब से शायद गेम्स खेलना ही सबसे बड़ा फीचर है इस ईज़ाद का! मैंने भी रज़ामंदी में सर हिलाते हुए कहा, “चलिए, अब कोई नंबर मिलाएं, फिर देखते हैं क्यों परेशान कर रहा है ये!” मालूम ये हुआ की आंटी अपना कीपैड अनलॉक करने की कोशिश तो कर रहीं थीं लेकिन देर तक * वाले बटन पर उनका अंगूठा ठहर नहीं पा रहा था, तो आगे के स्टेप्स—जो किसी और मिलने वाले ने बताये थे, और साथ ही तंज़िया तब्सिरा भी किया कि “क्या कबाड़ा फ़ोन लिया है तुमने, अम्मा!”—कैसे फॉलो करतीं?
ख़ैर, उनकी मुश्किल आसान करने के लिए मैंने उनके फोन में कीपैड-लॉक सेटिंग ‘ऑटो’ से ‘ऑफ’ कर दी, और फोन आंटी को थमाते हुए कहा, “ये लीजिये, अब आपको जिसको कॉल करना है कर लीजिये, कोई प्रॉब्लम नहीं होगी! बस कॉन्टैक्ट लिस्ट में जाकर किसी का भी नंबर देखिए और हरे निशान वाले बटन को दबाकर कॉल करिये!”
मेरे देखते ही देखते उन्होंने अपने टीवी सही करने वाले लड़के का नंबर, जिसको वो अपने बेटे से कम नहीं मानती, खटा-खट टाइप कर डाला और फट से कॉल मिलाकर बोलीं, “बेटा, आज मेरा टीवी सही कर दे आकर, एक वही तो सहारा है! मैं अपने घर वापस आ गयी हूं…. बहुत ज़्यादा बोर हो रही हूं। और तेरी वजह से मेरे क्रिकेट मैच भी छूटे जा रहे हैं!” उसने शायद फोन की दूसरी तरफ से आज न आकर कल आने को कहा। आंटी ने फोन पर फौरन ही झिड़क कर जवाब दिया, “नहीं! कुछ भी करके आज ही आ!” और लाल वाला बटन दबाकर फोन काटते हुए मुझे अपना बैलेंस दिखाने लगीं, “देखो बेटा, कॉल भी कितनी महंगी हो गयी है आजकल!”