अमेरिकी कला समीक्षक डोनाल्ड कुस्पिट ने अपनी पुस्तक ‘द एंड ऑफ आर्ट (The End Of Art)’ में एक घटना की चर्चा करते हुए कला के अंत की बात कही थी। इस सिलसिले में उन्होनें चर्चित और अत्यंत सफल ब्रिटिश कलाकार डेमियन ईस्ट की कला के साथ हुए एक दिलचस्प हादसे का हवाला दिया था। ईस्ट ने मेफेसर गैलेरी की खिड़की में करोड़ों की कीमत का एक इंस्टॉलेशन बनाया था। लेकिन इस इंस्टॉलेशन को झाड़ू लगाने वाले कर्मचारी ने कूड़ा समझ कर फेंक दिया।
उस कर्मचारी का कहना था कि मुझे तो यह कलाकृति लगी ही नहीं थी। मैनें तो उसे कबाड़ समझ कर फेंक दिया।
यह सिर्फ एक अकेली घटना नहीं है, जहां कला को ऐसी किसी चुनौती का सामना करना पड़ा हो। कला का विकास सभ्यता के विकास के साथ जोड़ कर देखा जाता है। विकास के हर क्रम में कला की समझ के सामने एक गंभीर सवाल, एक गंभीर परिस्थितियां आकर खड़ी होती रही हैं। एम.एफ. हुसैन और वेन सूजा की चित्रकला प्रर्दशनी पर कुछ कट्टरपंथी ताकतों द्वारा उपद्रव मचाया जाता है तो उनकी स्वतंत्रता एवं अभिव्यक्ति को सीमा से बांधने जैसा ही लगता है। 2016 में इप्टा के सांस्कृतिक कार्यक्रम में कुछ दक्षिणपंथी ताकतों का हमला हुआ और उस कार्यक्रम को बीच में ही रोकने की कोशिश की गई। कई ऐसी घटनाएं सामने आती रही हैं जब कलाकारों की कलाकृतियों को गुण्डई के नाम पर बर्बाद कर दिया जाता है।हालांकि कला के समक्ष ऐसी परिस्थितियां और उसे सवालिया घेरे में लाने का ज़िम्मेदार पूर्ण रूप से कट्टरपंथी ताकतों या विचारों को नहीं बताया जा सकता। कभी-कभी प्रगतिशील कहे जाने वाले वर्गों द्वारा भी कला जगत में प्रहार होता रहा है। कला के एक युग दादावाद को इसके प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है। दरअसल, प्रथम विश्वयुद्ध के बाद मुख्य रूप से यूरोप में कला क्षेत्र में बुर्जुआवादी समाज का तेज़ी से विस्तार होने लगा था। कलाकृतियों में पूंजी निवेश भरी मुनाफे वाला और सुरक्षित व्यापार समझा जाने लगा। कलाकृतियों के दाम आसमान छूने लगे। इन सबके परिणामस्वरूप कुछ कलाकर्मियों की बुर्जुआ समाज के प्रति नफरत बढ़ गई। उन्होनें प्रतिवाद में अजीबोगरीब तरीके से कला की प्रस्तुति और प्रर्दशन करना प्रारंभ किया।
1920 में जर्मनी में शौचालय से जुड़ी एक जगह में दादावादी कलाकृतियों की प्रर्दशनी लगाई गई जिसमें प्रर्दशनी में लगी कलाकृतियों को दर्शकों को कुल्हाड़ी देकर उनसे कलाकृतियों की तोड़-फोड़ करने को कहा गया। इसी तरह दुशा नामक एक कलाकार ने मोनालिसा की प्रसिद्ध पेंटिग के फोटो चित्र में मूछें जोड़कर उसका मज़ाक उड़ाया। धीरे-धीरे जर्मनी, अमेरिका, फ्रांस आदि देशों में अराजक प्रवृत्ति के साथ-साथ प्रगितिशील विचारों वाले कलाकार भी दादावाद में दिलचस्पी लेने लगे। इस युग में कई तरह से स्थापित कला प्रवृत्तियों का मज़ाक उड़ाया गया।
कुछ दौर ऐसे भी थे जिनमें कला को एक निम्न दर्जे की श्रेणी में भी रखा गया। इसके एक बड़े उदाहरण के रूप में वॉन गाग की मशहूर सूरजमुखी श्रृंखला की पेंटिग को देखा जा सकता है। वॉन गाग की मृत्यु के 97 साल बाद इस पेंटिंग को रिकॉर्डतोड़ दाम तो मिले मगर उनके जीवन काल में उनकी चित्रकला को कुछ खास तवज्जो नहीं मिल सकी।
यहां एक और बेहद दिलचस्प अथवा दुखदायी तथ्य यह है कि हमारे समाज में कई मशहूर चित्रकारों की मृत्यु का कारण उनकी विक्षिप्तता रही है। वान गॅाग, गोगां, एडवर्ड मुंच जैसे कुछ कालजयी कलाकारों के जीवन का अंतिम दौर मानसिक विक्षप्तता का रहा है। इसका कारण बहुत हद तक उनकी पारिवारिक एवं निजी परिस्थिति रही है। मगर एक कारण उनकी कलाकृतियों को उनके जीवन काल में सामाजिक महत्ता प्राप्त ना होना भी माना जा सकता है।
वर्तमान में हमारे भारतीय समाज में कला को सबसे ज़्यादा श्लील और अश्लील की बहस के बीच गुज़रना पड़ रहा है। इस श्लील, अश्लील के पैमाने के बीच कई कलाओं का दम घुटता नज़र आ रहा है। प्राचीन काल से मंदिरों की दीवारों अथवा गुफाओं को भव्यता से चित्रित किया जाता रहा है और उसे मान्यता भी दी जाती रही है। वहीं आज के इस आधुनिक कॉरपोरेट युग में न्यूड पेंटिग को लेकर कुछ रूढ़िवादी ताकतों द्वारा भारी बवाल मचाना और उन पर हमला होते देखना कम दिलचस्पी का सबब नहीं है। इसका शिकार हुसैन और सूजा जैसे मशहूर चित्रकारों की कलाकृतियों को भी होना पड़ा है।
हुसैन को तो उनकी देवी-देवताओं की न्यूड पेंटिग के कारण एक तरह से देश निकाला की सज़ा तक भुगतनी पड़ी। न्यूड को पूर्ण रूप से अश्लील मान लेना बेमानी ही लगती है। खासकर हमारे भारतीय समाज में जहां प्राचीन संस्कृति की पहचान के रूप में मंदिरों, गुफाओं या कंदराओं में व्याप्त देवी-देवताओं के नग्न चित्रों एवं मूर्तिकलाओं को भारी दिलचस्पी एवं श्रेष्ठ कलाकृति के रूप में देख जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण खजुराहो का मूर्तिशिल्प तथा ऐतिहासिक कामसूत्र पर आधारित लघु चित्र हैं। गौरतलब बात है कि समाज का रुढ़िवादी और कट्टरपंथी वर्ग भी इन्हें पूर्ण समर्थन के साथ भारतीय संस्कृति की धरोहर मानता रहा है। ऐसे में आज के दौर में एक चित्रकार अपनी कलाकृति को न्यूड पेंटिग के रूप में पेश करता है तो रूढि़वादी और कट्टरवादी तत्वों द्वारा उसका विरोध अफसोसजनक के साथ हास्यास्पद भी लगता है।
पटना आर्ट कॉलेज के एक छात्र को उसकी वार्षिक परीक्षा के प्रोजेक्ट के रूप में महाविद्यालय की एक महिला शिक्षिका द्वारा ऐतिहासिक मुगल तथा राजस्थानी शैली में लघु चित्रण का स्वतंत्र चित्रण करने के लिए कहा गया था। मगर जब छात्र ने कामसूत्र पर आधारित लघुचित्र की प्रस्तुति की तो महाविद्यालय के शिक्षकों द्वारा उस छात्र को परीक्षा में अनुत्तीर्ण कर दिया गया। महाविद्यालय के प्राचार्य का कहना था कि किसी भी छात्र द्वारा एक महिला शिक्षिका को इस तरह का अश्लील चित्र नहीं दिया जा सकता। जबकि मुगल एवं राजस्थानी चित्रण शैली में पहले भी राजघरानों के निजी एवं अतरंग जीवन की प्रस्तुति होती रही है।
अब इसके बावजूद जब किसी कला संस्था में ही कला पर रुढ़िवादी सोच के कारण ऐसी घटना घटे तो वह कला की स्वतंत्रता पर एक गंभीर सवाल तो खड़ा करती ही है। भारतीय चित्रकार अर्पिता सिंह ने अपने एक इंटरव्यू में चित्रकला में न्यूड की ज़रूरत और समर्थन में अपनी बात रखते हुए कहा था, “मुझे न्यूड पेंटिग की ज़रूरत ऐसे लगती है कि अगर कपड़े बनाओ तो उसके लिए रंग सोचना पड़ता है जो ब्रेक पैदा करता है। मैं ब्रेक नहीं चाहती थी, मैं चाहती थी कि मैं उस शरीर को पूरा बना सकूं। इसलिए मुझे कोई ज़रूरत नहीं थी कि मैं एक और रंग से उसे ढ़ाप लूं।”