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कुष्ठरोगियों को सामाजिक सम्मान दिलाने वाले बाबा आमटे

कुष्ठ रोग एक खतरनाक और संक्रामक बीमारी है, लेकिन अगर कोई इंसान इस रोग से पीड़ित रोगियों की सेवा में पूरा जीवन लगा दे तो यकीनन वह व्यक्ति अतिविशेष है। इसी संदर्भ में पद्म विभूषण और मैगसेसे पुरस्कार विजेता मुरलीधर देवीदास आमटे, जिन्हे लोग बाबा आमटे बुलाते हैं उन्हें याद किया जाना ज़रूरी है। बाबा आमटे का जन्म 26 दिसम्बर 1914 को वर्धा, महाराष्ट्र में हुआ था। इनका परिवार एक रईस ज़मीनदार होने के साथ-साथ समाज दबदबा रखने वाला परिवार था, वकालत की पढ़ाई पूरी करके उन्होंने वर्धा से ही वकालत की शुरुआत की।

एक समय बाबा आमटे भारत की आज़ादी की लड़ाई में अमर शहीद राजगुरु के साथी बन गये थे। बाद में बाबा आमटे गांधी जी के साथ जुड़े और इन्होंने जेल में बंद क्रांतिकारियों की पैरवी की। इसी दौर में कुष्ठ रोग एक लाइलाज बीमारी तो थी ही लेकिन इसकी संक्रमण प्रवृत्ति के कारण, लोग कुष्ठ रोगी से किसी भी तरह का रिश्ता नहीं रखते थे। ब्रिटिश काल में पहले ही भारतीयों के लिये अस्पताल कम थे उस पर कुष्ठ रोग से पीड़ित व्यक्ति के लिये तो जगह का अमूमन आभाव ही रहता था। बाबा आमटे, जब गांधी जी से प्रभावित होकर समाज के निचले तबके के साथ जुड़ रहे थे, तब उन्हे कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों की बेहद दयनीय हालत का अहसास हुआ। यहीं से शुरू हुआ मुरली देवीदास आमटे का बाबा आमटे बनने का सफर।

बाबा आमटे और साधना ताई

बाबा आमटे ने कलकत्ता स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन से कुष्ठ रोग पर एक मेडिकल ट्रेनिंग का कोर्स किया। इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी साधना के साथ मिलकर कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों का निस्वार्थ इलाज शुरू किया और 1949 में करीब 250 एकड़ में फैले कुष्ठ रोगियों को समर्पित आनंदवन आश्रम की नींव रखी गई। कुष्ठरोगियों के प्रति पूर्वाग्रहों को तोड़ने और समाज को इसके प्रति जागरूक करने के लिये, बाबा आमटे रोगियों को खुद अपनी पीठ पर उठाकर लाते थे। वो हर संभव तरीके से उनकी सेवा करते थे, जिससे उनकी समाजसेवी की पहचान बनी। वहीं कुष्ठ रोग के प्रति आम जनता की सोच में भी बदलाव आया।

धीरे-धीरे बाबा आमटे के आश्रम आनंदवन से गरीब, मज़दूर और किसान जुड़ने लगे। समाज में इस चेतना को बल मिला कि कुष्ठ रोग किसी को भी हो सकता है। इसकी रोकथाम के लिये उचित इलाज ज़रूरी है ना कि रोगी से दूरी बनाकर उसे असहाय छोड़ दिया जाना। बाबा आमटे के शुरू की गई समाज की यही चेतना आज एक विशाल सामाजिक सेवा का रूप ले चुकी है। कभी मात्र कुछ रुपयों से शुरू किया गया आनंदवन का बजट आज करोड़ों में होता है। आज आनंदवन में कुष्ठ रोग के साथ कई और बीमारियों का भी इलाज होता है। यहां अब दो अस्पताल, एक यूनिवर्सिटी, एक आनाथालाय एवं दृष्टिहीन विद्यार्थियों के लिये एक स्कूल भी है। आश्रम की ये विशेषता है कि यहां इस्तेमाल होने वाली हर चीज़ का निर्माण यहीं होता है, आज भी इस आश्रम में बापू के उसूल और उनकी खादी ज़िन्दा है।

कुष्ठ रोग पर सामाजिक चेतना जगाने के साथ सामाजिक सरोकारों से जुड़े अन्य आन्दोलनों जैसे नर्मदा बचाओ आन्दोलन आदि में भी बाबा आमटे ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। साल 2008 में बाबा आमटे ने इस दुनिया को अलविदा कहा। आज इनकी गैर मौजूदगी में इनके दोनों डॉक्टर बेटे और उनकी पत्नियां इस समाज सेवी आश्रम का कार्यभार संभाल रही हैं और बाबा आमटे की विरासत को ज़िन्दा रखे हुए हैं।

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