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मोटापा बुरा है लेकिन उससे भी बुरा है आपका मोटापे पर मज़ाक

यह करीब दस साल पहले की बात है जब मैं कॉलेज में थी। इंजीनियरिंग कॉलेज के बारे में सुना था कि वहां रैगिंग तो होती है पर बाकी कॉलेज से इनका स्तर थोड़ा ऊंचा होता है, यहां कोई किसी का बेतुका मज़ाक नहीं बनाता है। यहां पर पढ़ाई के साथ मौज मस्ती और ज़िंदगी को ज़िंदादिली से जीने का सबब मिलता है। हर कोई एक दूसरे की मदद के लिए तत्पर और आगे बढ़ाने में लगा रहता है। यहां 4 साल की पढ़ाई के बाद दोस्ती इतनी प्रगाढ़ हो गयी थी कि “brother/sister from another mother” का ट्रेंड चलने लगा था।

इसी बीच मुझे समाज की एक विकृति इन मॉडर्न सोच वाले स्टूडेंट्स के साथ-साथ टीचर्स और बाकी लोगों में भी दिखी। वो थी मोटी लड़कियों के प्रति हीनभावना। जो लड़की मोटी होती वो किसी ना किसी के मज़ाक का पात्र बनी होती थी। इनकी न तो किसी से दोस्ती होती और हो भी जाती तो उस ग्रुप की वो एक funny member होती।

यही कहानी थी मेरी एक सहेली कल्पना की। पढ़ाई में अव्वल, नाक नक़्श की अच्छी, समृद्ध परिवार से आने वाली कल्पना जब 10वीं में थी तो दवाओं के साइड इफ़ेक्ट के कारण, उसे मोटापे की बीमारी हो गई थी। गर्मियों की छुट्टियां आते-आते उसका वजन इतना बढ़ गया कि उसके कज़िन और रिश्तेदार उसे अलग-अलग मज़ाकिया नामों से पुकारने लगे। दिमाग से तेज़ कल्पना के दिल पर इससे गहरी चोट लगी। घर से बाहर निकलना, खेलना-कूदना यहां तक कि लोगों के तानो से पेट भरते-भरते उसने ठीक से खाना-पीना भी बंद कर दिया।

एक ऊर्जावान लड़की मोटापे के कारण अपने आप को शर्मिंदा महसूस कर रही थी। रिश्तेदार आते और उसके मम्मी-पापा को भी हिदायत दे कर जाते – “इसके खाने पर रोक लगाओ नहीं तो कोई अच्छा लड़का नहीं मिलेगा, पढ़ाई-लिखाई से कुछ नहीं होता सुंदरता मायने रखती है।” कोई तो यहां तक बोल देता कि, “जिमन कम करके जिम ज्वाइन करवाओ” इस तरह के और न जाने कितने ही उपदेश उसे सुनने को मिलते। लेकिन अगर सही माने तो वो लोग भी गलत नहीं थे, आज जहां ज़ीरो साइज़ का ज़माना चल रहा है वहां भला एक 80-90 किलो की लड़की कैसे ‘सुंदरता के पैमाने’ पर खरी उतर पाती?

समय के साथ-साथ ये जहर और भी विषेला होता चला गया और उसने कल्पना के दिल और दिमाग को अपंग बना दिया। वज़न कम करने की हज़ार कोशिशों के बाद भी कुछ हाथ न लगा। कॉलेज तक आते-आते उसके अगिनत नाम ‘मोटू’, ‘मोटल्लो’, ‘हिप्पोपोटामस’, ‘भैंस’, ‘पहलवान’ आदि रख दिए गए। अंदर से पूरी तरह टूटी हुई कल्पना फिर भी हंसती और सबको हंसाती रहती और अपने आपको हंसी का पात्र बनाने में उसे अब कोई हिचक नहीं होती थी। सुंदरता की परिभाषा उसके लिए बदल चुकी थी और वेस्टर्न ड्रेस पहनना उसके लिए एक सपने जैसा था।

समय के साथ-साथ इंजीनियरिंग खत्म हो गयी और कॉलेज की टॉपर होने के साथ-साथ उसकी जॉब एक अच्छी आइ.टी. कंपनी में अच्छे पैकेज पर लग गई। लेकिन उसका बचपन का दोस्त मोटापा वहां भी उसका साथ छोड़ता नज़र नहीं आया। वहां भी कल्पना को वही बातें सुनने को मिली। राह चलते लोग भी कई भोंडे शब्द का प्रयोग करते। कुछ ही साल में हुनरमंद कल्पना का प्रमोशन हो गया और उसकी तनख्वाह में भी अच्छी बढौतरी हो गई।

बेटी को स्टेबल होते और उम्र बढ़ते देख अब उसके माता-पिता को उसके शादी की चिंता सताने लगी। रिश्तेदारों और कई मैरिज ब्यूरो को उसका बायोडाटा देना शुरू हो गया। लेकिन फिर से वही मोटापा उसके सारे गुणों को नज़रअंदाज़ करवाता रहा। कई लड़के वालों ने उसे ये कहकर मना कर दिया कि लड़के को लड़की पसंद नहीं है या फिर लड़की की हेल्थ थोड़ी ज़्यादा है। लेकिन इसमें भी उनकी कोई गलती नहीं। हर कोई अपने घर पर ‘सुन्दर’, सुशील और संस्कारवान लड़की बहु के रूप में चाहता है, लेकिन गौर करिएगा कि ‘सुंदरता’ सुशील और संस्कारवान होने पर कई ज़्यादा गुना हावी होती है।

बहुत मशक्कत के बाद एक जगह बात बन गयी, लड़का भी इंजीनियर था। दिखने में सांवला और हेल्थ भी अच्छी-खासी थी (अब लड़कों को मोटा तो नहीं बोल सकते ना)। शादी पक्की होते ही सब उसे फिर से हिदायतें देने लगे और अजीब-अजीब से नुस्खे बताने लगे। उसने भी योगा क्लास, एरोबिक्स और कितने ही डायटीशियन से संपर्क करके कुछ वज़न कम करने की कोशिश की और थोड़ी सफल भी हो गयी। लेकिन शादी के कुछ साल बाद फिर से वही मोटापा इस बार दानवी रूप ले कर सामने आया। हर कोई फिर से उसका मज़ाक बनाने लगा और हिदायतें देने लगा। वो भी इस बार मोटापे से परेशान हो गई। समय के साथ-साथ मानसिक और शारीरिक तौर पर वो कमज़ोर और बीमार सी हो गयी। बच्चे के होने के बाद उसकी हालत और भी ख़राब होती चली गई। यहां तक कि उसे जॉब तक छोड़नी पड़ी। बढ़ते वजन ने उसका और उसके जीवन का मनोबल तोड़ दिया था।

आज ना जाने कितनी लड़कियां हैं जो या तो बचपन से या उम्र के किसी न किसी पड़ाव पर इस मोटापे रुपी बीमारी से ग्रसित हैं। कारण चाहे दवाओं के साइड इफ़ेक्ट हो, खान-पान की गलत आदतें हो, मानसिक और शारीरिक तनाव हो या फिर शरीर को ले कर लापरवाही हो। ये मोटापा जितना एक लड़की के शरीर को दीमक की तरह खा जाता है, उससे कहीं ज़्यादा हमारे अपने लोग, रिश्तेदार, समाज और मोटापे को लेकर बने व्यंग्य और भद्दे मज़ाक उसके दिल और दिमाग को लकवाग्रस्त कर देते है। कोई भी इंसान मोटा नहीं होना चाहता, ये भी एक आम बीमारी की तरह ही एक बीमारी है ये समझना ज़रुरी है। मोटापे से ग्रस्त लोगों के साथ अनचाहा व्यवहार करना उनके मान सम्मान का मज़ाक उड़ाना बंद करके उनको शारीरिक और मानसिक रूप से इतना मजबूत बनाना चाहिए कि वो भी इस बीमारी से छुटकारा पा सकें।

माना कि मोटापा कई बीमारियों की वजह होता है, इससे उम्र कम हो जाती है और कई अन्य शारीरिक बीमारियां हो जाती हैं। लेकिन बाकी बीमारियों की तरह ही इस बीमारी में भी उन्हें हमारा साथ, हमारा प्यार और सहानुभूति मिले तो सकारात्मक व्यवहार और जीवन में डिसिप्लिन से इसपर काबू पाया जा सकता है ना कि ताने और भोंडे मज़ाक से। समाज में फ़ैल रहा ये साइज़ जीरो का ट्रेंड भी कितनी ही लड़कियों की ज़िंदगी के साथ खेल रहा है। अपने बच्चों को सही आहार, दिनचर्या और एक्सरसाइज़ के प्रति जागरूक करने से हम स्वस्थ (ना मोटे और ना ही साइज़ ज़ीरो) रह सकेंगे। समाज में फैली इस संकीर्ण सोच को हमे सबसे पहले हमारे दिल दिमाग से हटाना होगा, तभी हम सही रूप से ब्रॉडमाइंडेड हो पाएंगे।

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