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“रोल नंबर भेज देना DU में एडमिशन हो जाएगा, आखिर तुम ब्राह्मण हो”

नॉर्थ कैम्पस, दिल्ली विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग! मौक़ा था हमारे एम. फिल इंटरव्यू का, लिखित परीक्षा अच्छे अंकों से पास कर लेने पर अपनी पांच सालों की पढ़ाई पर थोड़ा भरोसा लेकर हम इंटरव्यू हॉल में पहुंचते हैं। वहां पांच पुरुष-प्रोफेसर्स के बीच सुशोभित अकेली महिला-प्रोफेसर आश्वस्त करती है कि संख्या कम है लेकिन है। उनकी मेज़ पर चाय बिस्कुट और समोसे ! वे इतने भूखे थे कि सवालों के बीच ही में समोसा खाते और चाय सुड़कते।

मुझसे पहला सवाल पूछा रसिक आलोचक महोदय ने ‘आपका स्पेशलाइज़ेशन किसमें है?’ अब सोच रही हूं कि अभी कहां स्पेशलाइज़ेशन! ख़ैर जवाब दिया कि मुझे फलाँ फलाँ लेखक कवि पसंद हैं। ‘अच्छा नागार्जुन! उनकी अकाल और उसके बाद सुनाइए’ सुनाने से पहले ही एक महानुभाव बोले ‘सुबह से बहुत बार यही सुन रहे हैं तुम भी यही सुना दो’ और ज़ोरदार ठहाका ! मैंने बचपन में मम्मी पापा के किसी रिश्तेदार के सामने पोएम सुनाने को कहा जाने पर ‘देखो एक डाकिया आया, चिट्ठी कई साथ में लाया’ वाले अंदाज़ में कविता शुरू कर दी, गलती तब हुई जब नागार्जुन जी की कानी कुतिया को सुलाने के बजाय रुला दिया मैंने। जैसे ही यह पंक्ति गलत बोली मैंने ‘कई दिनों तक कानी कुतिया बैठी रोई उसके पास’ पूरा हॉल ठहाकों से गूँज गया। और अभी तक जिस महिला-प्रोफेसर की उपस्थिति आश्वस्त कर रही थी उनकी टिपण्णी आई ‘ये तो डुबो देगी’ और भी ज़ोर से ठहाका लगा। फिर रसिक आलोचक जी ने तफ़री ली ‘अरे नहीं नहीं मैडम! समय के साथ कविता में बदलाव भी ज़रूरी है, हाँ बेटा तुम आगे सुनाओ।’ वे हंसी दबा रहे थे या मुझे सुना रहे थे पता नहीं। इस तरह के अपमान के लिए मैं तैयार नहीं थी लेकिन।

इस घटना के बाद मुझसे पूछे गए सवाल मेरे कानों तक पहुँच ही नहीं पाये। मानो कानों में पिघला हुआ सीसा डाल दिया गया हो। मुझे अंतिम सवाल याद है ‘अन्ना केरेनिना किसने लिखी है?’ यह किताब मैंने इस तरह पढ़ी थी कि अन्ना के साथ सारे द्वंद्व जिए थे। उसकी मौत पर आँसू बहाए थे। लियो टॉलस्टॉय का नाम लेने के लिए भी मेरा मुँह नहीं खुल सका। ‘बच्ची घबरा गई है’ कहकर मुझे इंटरव्यू समाप्ति की सूचना मिली और दरवाज़े के बाहर निकलते हुए भी मेरी पीठ पर उनकी हंसी गूंज रही थी।

ये गूँज कितने दिनों तक मेरे कान में गूंजती रही, वे लोग नहीं समझेंगे। मेरा चयन नहीं होगा इसे लेकर मुझे ज़रा संशय नहीं था। पर गुरुजी के चरणों में नतमस्तक ऐसे शिष्यों का चयन जिन्हें अन्ना केरेनिना नामक कोई पुस्तक भी है की जानकारी ना हो, ने हैरान किया। हिंदी विभाग में जुगाड़ के बिना कुछ नहीं होता ऐसा कहने वाले बहुत लोग मिले लेकिन मैं हमेशा सोचती थी कि काबिलियत को कोई दरकिनार भला कैसे कर सकता है। तब मेरी मुलाक़ात एक ऐसे सज्जन से हुई जिन्हें मुझसे पूरी सहानुभूति थी। ‘अरे रे! तुम तो ब्राह्मण हो फिर भी नहीं लिया? अगली बार इंटरव्यू से पहले मुझे सूचित करना’ मैं उस दिन समझी कि क्या फ़र्क़ पड़ता अगर कानी कुतिया रोई होती या सोई होती ! चयन तो निर्धारित था। सज्जन ने मेरे ज्ञान-चक्षु खोलते हुए यह भी समझाया कि कितनी सीट्स पर उनका कब्ज़ा है (अर्थात् उनके द्वारा भेजी गई कितनी सिफारिशों पर सुनवाई होगी) ‘अपना रोल नंबर और पूरा नाम भेज देना अगर उधर से कोई बड़ी सिफारिश नहीं आई तो हम तुम्हारा करवा देंगे, आखिर तुम ब्राह्मण की संतान हो’ मैंने मेरे जीवन में मेरे घर परिवार दोस्तों में कहीं ब्राह्मण शब्द का ऐसा प्रयोग नहीं सुना था।

मेरे ज़हन में उदय प्रकाश की पीली छतरी वाली लड़की के हिंदी प्रोफेसर साहब आने लगे। ये ब्राह्मणवादी स्वरुप से मेरा पहला आमना-सामना था, मुझे शर्मिंदगी हुई ! मेरे एक मित्र ने एक दिलचस्प मगर दुखद किस्सा सुनाया, हुआ यूँ कि एक छात्र नियमित रूप से प्रोफेसर के घर के काम, उनकी पत्नी के लिए सब्ज़ी तरकारी खरीदना, बीच वार्तालाप में पाँच बार पाँव छूना वगैरह वगैरह करता…प्रोफेसर ने भी कह दिया कि तुम्हारी सीट पक्की है। बस भूल यह हुई कि ‘कैटेगरी’ पूछे जाने पर उसने सकपकाकर ‘जनरल’ कह दिया(संभवतः गुरूजी को वह भी भली-भांति समझ-बूझ गया होगा) लेकिन जब इंटरव्यू लिस्ट में उसके नाम के साथ OBC लिखा देखा तो गुरूजी ने एडमिशन तो नहीं ही दिया डपटा सो अलग !

अभय मिश्रा की वो पोस्ट जिसमें वो हिंदी विभाग के बारे में बात कर रहे हैं।

जाति किस कदर दिल्ली विश्वविद्यालय के अंदर तक खोखले हिंदी विभाग का अंग है ये हिंदी विभाग से जुड़ा कोई भी शख्स जिसके अन्दर लेशमात्र भी ईमानदारी बची है नकार नहीं सकता। लाल झंडे वाले भी अपना कैंडिडेट तैयार रखते हैं। न्याय की बात करने वालों का अपना तर्क है कि उन्हें संख्या-बल चाहिए, अपनी विचारधारा वाले। मेरिट किस चिड़िया का नाम है ! योग्यता गई तेल लेने ! मेरी एक मित्र को अपने चयन पर भरोसा था और चयन हुआ भी। और भरोसा क्यों ना हो आख़िर 10000 रुपये तक के गिफ्ट्स जो महिला-प्रोफेसर के चरणों में अर्पित किये थे। (ध्यातव्य है कि ये डंके की चोट पर वाम सपोर्टर हैं) माने हमाम में सभी नंगे हैं। एक तो करेला उसपर नीम चढ़ा वाली बात यह है कि ऐसी बेशर्मी ये लोग लुक-छिपकर नहीं करते।

ख़ैर, ऐसे अनुभवों के बाद मोहभंग हो जाना स्वाभाविक ही था। फेसबुक के माध्यम से मिली जानकारी है कि इस जूता-चाट चयन-प्रक्रिया पर सवाल उठाया था दिल्ली विश्वविद्यालय के गोल्ड-मेडलिस्ट छात्र अभय मिश्रा ने! उन्होंने हाई-कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसे वे हार चुके हैं। फेसबुक पर 2016 की उनकी एक पोस्ट भी काफी चर्चा में रही थी जिसे यहां लगाया जा रहा है।

चयन मेरिट पर आधारित हो। मूल्यांकन में पारदर्शिता होनी चाहिए। यह चेतनाविहीन विभाग कितने सपनों के साथ खेलता है और कितने ही छात्रों को अवसाद की गर्त में धकेलता है! कमलानगर और मुखर्जीनगर के उन सीलन भरे कमरों में कितने सपने दम तोड़ते हैं। गाँव में दूर अपने 24-25 वर्षीय बच्चों से आस लगाए बैठे माँ-पिता से महीने का खर्च माँगते हुए कितनी बार गले में फाँस अटकती है, ये असंवेदनशील गुरु-घंटाल क्या भला कभी समझ सकेंगे ! मठ और गढ़ जाने कब टूटें और कब जाने न्याय हो ! छात्र संघर्ष ज़िंदाबाद ! बिना लाल सलाम!

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