सांसें हम रोज़ लेते हैं, पानी हम रोज़ पीते हैं, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हम रोज़ करते हैं, अन्न हम रोज़ खाते हैं और भी बहुत सारे काम हम रोज़ करते हैं जो प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े हुए हैं। तो फिर पर्यावरण संरक्षण के नाम पर बस एक या दो दिन ही क्यूं?
2009 में विश्व में सबसे ज़्यादा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन करने वाले देश पर्यावरण संरक्षण के लिए कोपेनहेगेन में इकठ्ठा हुए थे। ऐसा पहली बार हो रहा था कि दुनिया के लगभग सभी विकसित तथा विकासशील देश किसी एक मुद्दे पर एक कतार में खड़े थे। मौका था ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को सीमित करने तथा इसके लिए अधिकतम तथा न्यूनतम सीमाओं को तय करने का लक्ष्य निर्धारित कर पर्यावरण संरक्षण के लिए एक व्यापक एवंम कारगर रूप रेखा तैयार करने का।
यही नही कोपेनहेगेन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन ने जलवायु परिवर्तन नीति को एक उच्चतम राजनीतिक स्तर तक भी उठाया। यह संयुक्त राष्ट्र संघ (यूनाइटेड नेशन आर्गेनाइजेशन) के मुख्यालय के बाहर विश्व के नेताओं की सबसे बड़ी सभाओं में से एक थी। इससे पहले 1992 में विश्व के कई देशों ने एक अंतर्राष्ट्रीय संधि में शामिल होते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ फ्रेमवर्क कन्वेंशन में जलवायु परिवर्तन समस्याओं से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक रूप-रेखा तैयार की थी।
1995 में जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए वैश्विक प्रतिक्रिया को मजबूत करने के लिए विश्व के कई देशों से बातचीत शुरू की गयी। ठीक दो साल बाद यानि 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल को अपनाया गया (क्योटो प्रोटोकॉल कानूनी तौर पर विकसित देशों को ग्रीनहाउस उत्सर्जन के एक निर्धारित लक्ष्य में बांधता है)। इस तरह से लगभग 18 साल के कोशिशों के बाद क्योटो प्रोटोकॉल को अमली जामा पहनाया गया। पहली जलवायु परिवर्तन कांफ्रेंस 1979 में हुई थी। प्रोटोकॉल की पहली प्रतिबद्धता अवधि की शरुआत 2008 में हुई जो 2012 में समाप्त हो चुकी है। दूसरी प्रतिबद्धता अवधि 1 जनवरी 2013 से शुरू होकर 2020 तक खत्म हो जाएगी।
2015 का पेरिस समझौता दिसम्बर 2015 में अपनाया गया, जो संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन कन्वेंशन द्वारा जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में किये गए कार्यों और विकास में उठाए गए नवीनतम कदमों के बारे में बताता है। ‘पेरिस समझौता’ इसमें शामिल विश्व के तमाम देशों से वैश्विक तापमान को कंट्रोल करने का आह्वान करता है। इसका लक्ष्य औसत वैश्विक तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री कम करना है।
ये सारी बातें अंतर्राष्ट्रीय स्तर की हैं और पिछले कुछ दिनों से इन मुद्दों पर खूब बहस भी छिड़ी हुई है। विश्व के सबसे बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक देश अमेरिका ने इस संधि को मानने से ये कहकर इनकार कर दिया कि “ये एक झूठी धारना है और इसके पीछे चीनी सरकार का हाथ है।” मूल रूप से पेरिस जलवायु समझौते को मानने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है और ना ही किसी देश ने अपने कार्बन उत्सर्जन में कितनी कटौती की है, इसकी जांच का कोई तरीका ही अभी तक मौजूद है। जब कोई कानूनी बाध्यता नहीं है तो ऐसे में एक सवाल ये भी है कोई किसी द्वारा थोपे गए कानून को क्यूं मानें?
बहरहाल आंकड़े बताते हैं कि भारतीय नागरिक आज भी अमेरिकी और चीनी नागरिकों के मुकाबले कई गुना कम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करता है। लेकिन स्थानीय स्तर पर ये नाकाफी है। रिपोर्ट्स के मुताबिक दुनिया के 11 सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर भारत में हैं। हर साल दिसम्बर जनवरी में दिल्ली की हवाएं इतनी ज़हरीली हो जाती हैं कि लोगों का दम घुटने लगता है, स्कूलों में छुट्टियां तक करनी पड़ जाती हैं।
सारी बातें और सारे तर्क उस वक़्त काम करना बंद कर देते हैं जब हमसे पूछा जाता है कि, “हम क्या कर रहे हैं?” हमने पिछले साल क्या किया पर्यावरण संरक्षण के लिए? कितने पौधे लगाए? कितनी दफा इधर-उधर बिखरे प्लास्टिक के डब्बे को उठा कर कूड़ेदान में डाला? कितनी बार पानी पीने के बाद बोतल को क्रश किया?
हमें ये सब बातें याद नहीं रहती लेकिन जब सांस लेने में दिक्कतें आती हैं या जून के महीने में बेतहाशा गर्मी का सामना होता है या कभी अचानक से बिगड़ कर मौसम अपना अलग रूप दिखाता है, तब कुछ समय के लिए हमें पर्यावरण संरक्षण याद आता है। वैश्विक स्तर पर पर्यावरण पर चर्चा के साथ देश में भी पर्यावरण के ऊपर चर्चा की बेहद ज़रूरत है। हर साल हम किसी न किसी बड़े हादसे का शिकार भी होते हैं और उस वक़्त हम उस आपदा के लिए पर्यावरण को दोष भी देते हैं। लेकिन फिर कुछ दिनों बाद हम वो भूल जाते हैं ठीक उसी तरह जैसे सरकारें पेरिस से आने के बाद पेरिस समझौते को भूल जाती हैं।
पिछले कई दिनों से पर्यावरण का मुद्दा काफी चर्चा में रहा है, याद रहे पिछले कुछ दिनों से। यूं तो साल के 365 दिन होते हैं लेकिन हमें बाकी दिनों अपने ज़रूरतों से फुर्सत ही कहां मिलती है। कुछ याद आता भी है तो वो महज सोशल मीडिया तक ही सीमित रह जाता है। मीडिया में चली आ रही पारंपरिक और पुरानी घिसी-पिटी बातों की चर्चा एक दो दिन खूब जोर-शोर से की जाती है लेकिन अगले ही दिन उससे बेरुखी इख्तियार कर लिया जाता है। अब वक़्त है कि हम कथनी को करनी में बदलें, नहीं तो वो दिन दूर नहीं है जब आने वाली नस्लें हमें कोसेंगी और पर्यावरण से बेरुखी के बुरे परिणाम को भुगतेंगी।