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स्कर्ट पहने इन ब्रिटिश लड़कों ने सामाजिक बराबरी पर भी सवाल खड़ा किया है

ब्रिटेन के डेवोन में स्कूल प्रशासन ने करीब 30 लड़कों को शॉर्ट्स पहनकर स्कूल आने से मना किया तो उन्होंने स्कर्ट पहनकर इसका विरोध जताया। दरअसल छात्रों ने बढ़ती गर्मी के कारण स्कूल से यूनिफॉर्म बदलने की गुज़ारिश की थी, लेकिन उन्हें मना कर दिया गया। विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेने वालों ने बताया, “हमें शॉर्ट्स पहनने की इजाज़त नहीं दी गई और हम पूरा दिन गर्मी के कारण फुलपैंट पहन कर नहीं बैठ सकते।” छात्रों द्वारा किये विरोध के तरीके को कुछ लोगों ने शर्मनाक बताया तो कुछ लोगों ने इसकी सराहना करते हुए कहा कि हमें गर्व है कि बच्चों ने अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। अगर लोग महिलाओं और पुरुषों के समान अधिकारों की बात करते हैं तो स्कूल यूनिफॉर्म क्यों अलग-अलग हो?

देखा जाए तो विवाद मर्दाना और जनाना पहनावे को लेकर गहराया। मुझे नहीं पता अन्य लोग इस घटना को किस तरह से लेंगे पर जिस भारतीय समाज में मेरा जन्म हुआ वहां इस तरह से विरोध जताने को एक बेहूदा तरीका ही कहा जायेगा। अन्य देशों की तरह ही यहां भी सामाजिक रूप में औरतों की बराबरी की बात तो की जाती है पर यदि कोई पुरुष ज़नाना हरकत करें तो उसे हिजड़ा या नामर्द कहकर उसका तिरस्कार किया जाता रहा है। 2013 रामलीला मैदान की ही चर्चा को ले लीजिये, कहा जाता है कि बाबा रामदेव सूट-सलवार पहनकर वहां से निकले! क्या इस पर व्यंग नहीं बने हैं?

आधुनिक समाज के मंचों से हमेशा महिला और पुरुष की बराबरी की बात तो होती है पर महिला को पुरुष से कमतर ही समझा जाता है। पहनावे में, सोच-विचार में, चाल-ढाल में और यहां तक कि लड़ने में भी। तभी तो झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि कुछ यूं कहकर मनाई जाती है कि “खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी।”  क्या हमें सिर्फ मर्दानगी ही पसंद है? क्या हम झांसी की रानी का सम्मान सिर्फ इस वजह से ही करते हैं क्यूंकि वह मर्दों की तरह लड़ी थी? यदि नहीं! तो फिर एक महिला क्रान्तिकारी का सम्मान कुछ इस तरह भी किया जा सकता है कि “खूब लड़ी ज़नानी वो तो झांसी वाली रानी थी।”

कोई लड़की छेड़छाड़ का विरोध करे या अराजक तत्वों के सामने डट जाए तो आमतौर पर उस जुझारू महिला को मर्दानी कहने का प्रचलन सा बन गया है। उत्तर प्रदेश की पहली महिला ब्लैक बेल्ट कराटे खिलाड़ी अनीता को लोग मर्दानी गुरू कहकर बुलाते हैं। कई रोज़ पहले दिल्ली में अपने देवर को अपहरणकर्ताओं के कब्जे से छुड़ाने के लिए एक महिला नेशनल शूटर आयशा फलक ने बहादुरी और सूझबूझ से काम लिया तो मीडिया ने उसे भी मर्दानी बताया। इससे क्या प्रतीत होता है? क्या शारीरिक क्षमताओं का उपयोग सिर्फ पुरुष समाज ही कर सकता है? भले ही इस मर्दाने शब्द से बहुत सी महिलाएं खुश होती हो, इसे बराबरी की सतह पर देखती हो पर इसमें कहीं न कहीं उनके लिंग, यानि एक महिला होने का अपमान छुपा होता है।

अधिकांश पुरुष, समाज में महिला को बराबरी पर लाना तो चाहते हैं, लेकिन उनकी बराबरी पर जाना नहीं चाहते। इसका सबसे बड़ा उदाहारण यह है कि आप हज़ारों महिलाओं को पुरुष जैसी पोशाक पहने देख सकते हैं, पर कितने पुरुष महिलाओं जैसी पोशाक पहने देखे होंगे? इससे भी साफ ज़ाहिर होता है कि महिला तो खुद को पुरुष जैसा दिखाना चाहती है, किन्तु पुरुष व्यवहारिक, सांस्कृतिक और परिधानिक व्यवस्थाओं की खींची अपनी रेखाओं पर डटा हुआ है।

कुछ दिन पहले की बात है, बस में जब एक कामकाजी लड़की से दूसरी ने पूछा कि कभी ऑफिस सूट-सलवार में भी चली जाया करो? तो उसका सीधा जवाब था- “सूट-सलवार या साड़ी पहनना ऑफिस में लागू नहीं है।” उनके इस आपसी संवाद से क्या समझा जाये? यही कि पुरुष समाज के एक बड़े हिस्से को महिला की मानसिक और शारीरिक कोमलता सिर्फ बिस्तर तक ही पसंद है! निजी या कामकाजी ज़िन्दगी में उसे एक महिला का पुरुष जैसा व्यवहार ही किया जाना पसंद है।

दरअसल ब्रिटेन के इन बच्चों ने केवल विरोध ही नहीं किया है बल्कि समाज को एक आईना भी दिखाया है। अब शायद संस्कृति का राग अलापने वाले एक बार ज़रुर सोचें कि यदि महिलाओं के वस्त्र पहनना शर्म का काम है, तो महिला इन वस्त्रों को पहनकर सदियों से कितनी शर्मशार हो रही होंगी!!

ऐसा नहीं है कि पहले महिलाऐं कमज़ोर थी या अब कमज़ोर हैं। दरअसल इस पितृसत्तात्मक समाज में लड़कों को कोमलता दिखाने से मना किया जाता है। बहुत कम उम्र में ही उनसे कह दिया जाता है कि रोना या भावनाओं का प्रदर्शन करना पुरुषों का काम नहीं है। लड़कों को ताकतवर और मर्दाना दिखाया जाता है, जबकि लड़कियों को मृदुभाषी और कोमल बताया जाता रहा है।

बहरहाल इस उधेड़बुन में घुसे रहने के बाद मुझे समझ में आया कि समस्या शायद महिलाओं के लैंगिक व्यवहार या उनके पहनावे के बजाय असल में इस माहौल में ही है। इसका अंदाज़ा हम न्यूज से लेकर सामाजिक माहौल में भी लगा सकते हैं, मसलन खेल की ख़बरें आती हैं तो क्रिकेटर या फुटबॉलर का मतलब ही होता है पुरुष खिलाड़ी। जब झूलन गोस्वामी एक टूर्नामेंट में सबसे ज़्यादा विकेट लेने वाली क्रिकेटर बनीं तो उनके नाम के आगे लिखना पड़ा महिला क्रिकेटर। पर यदि भुवनेश्वर कुमार यही रिकॉर्ड बनाते हैं तो क्या उनके नाम के आगे या पीछे पुरुष क्रिकेटर लिखा जाता?

प्राकृतिक क्षमता का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, इसमें चाहें पुरुष हो या महिला- समान मौका, समान इज्जत सभी को मिलनी चाहिए। दोनों की बराबरी में कोई संदेह नहीं है, मगर एकरूपता को पागलपन ही कहा जायेगा। ना हमें महिला को पुरुष और ना पुरुष को महिला बनाना चाहिए। जो जैसे हैं, प्राकृतिक हैं। बस सामान रूप से स्वीकार करने के लिए आगे आना चाहिए।

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