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“मैं आरक्षण छोड़ दूंगा, पहले तुम अपनी विरासत तो छोड़ो”

आरक्षण एक शब्द जिसने देश की तस्वीर और तक़दीर ही बदल दी। बाबा साहब की इसी विरासत पर सियासत अपने उफान पर है। आज देश भर में उच्च जाति के लोग जो आरक्षण से वंचित हैं उनकी मांग है कि या तो हमें भी आरक्षण दो या फिर आरक्षण हटाओ।

सवाल बहुत सारे हैं। पहला तथ्य जो अचंभित करने के लिए काफी है कि 2011 -12 के वर्षों में सरकारी कर्मचारियों का कुल आंकड़ा देश के 100 फीसदी में मात्र 3 .5 प्रतिशत है, मतलब देश के कुल 496 मिलियन श्रम बल के आकार में सिर्फ 1 करोड़ 76 लाख सरकारी कर्मचारी हैं। लगभग 94 प्रतिशत प्राइवेट कंपनियों या निजी व्यापार में हैं, जिसमें आरक्षण की कोई हिस्सेदारी नहीं है।

तो फिर क्यों आरक्षण के नाम पर आरक्षण का लाभ पाने वाले वर्ग को कलंकित किया जा रहा? आइए थोड़ा इतिहास के पन्नों को टटोलते हैं और जवाब पाने की कोशिश करते हैं। आरक्षण की शुरुआत संविधान से कई वर्ष पहले की है। इसकी शुरुआत 1891 में हुई जब अंग्रेज़ भारत में राज करते थे। उस वक़्त अंग्रेज़ों ने कई नौकरियों की भर्ती निकलवाई लेकिन भर्ती प्रक्रिया में भारतीयों से भेदभाव के चलते सिर्फ अंग्रेज़ों को ही नौकरी दी जाती थी और काबिल भारतीय नौकरी से वंचित रह जाते थे।

भारतीयों ने नौकरी में आरक्षण के लिए आन्दोलन किया और सफल रहे। इस आरक्षण में ना कोई ओबीसी था, ना ही जनरल और ना ही एससी। उस वक्त आरक्षण की मांग एक भारतीय नागरिक की थी। लेकिन फिर नक्शा ही बदल गया, जितना भेदभाव अंग्रेज़ भारतीयों से करते थे उससे कहीं ज्यादा भेदभाव भारतीय उच्च जाति के लोग पिछड़ी जाति के लोगों से करते थे।

आज़ादी के बाद कई लोगों को इस बात का यकीन था कि पिछड़ों के साथ भेदभाव के चलते उन्हें नौकरियों में काबिल होने के बावजूद जगह नहीं दी जाएगी। यहीं से आरक्षण की नींव रखी गई और बाबा साहब ने संविधान लिखा जिसमें आरक्षण सिर्फ ST (7%) और SC (15%) के लिए ही रखा था। लेकिन साथ ही उनका मानना था कि इसे 10 वर्षों तक रखने की बात सही है।

लेकिन, सच्चाई इसे मानने को तैयार नहीं थी। तो सवाल उठता है आखिर क्यों? जवाब अपने आप में रूह सिहरा देने वाला है कि जिन हाथों को हजारों वर्षों से जख्म दिए जा रहे हो, उसका इलाज इतना आसान नहीं। इतिहास कहता है कि किस तरह ब्राह्मणवाद ने समाज को बांट दिया। किस तरह लोगों पर जुल्म ढाये। मंदिरो ने दान पेटियों और दान दक्षिणा से अपनी तिजोरियां भरी। नीची जाति के लोगों के मंदिरों में प्रवेश पर पाबन्दी लगाई गई, तो सवाल जायज़ है फिर आरक्षण क्यों नहीं?

हमारी लड़ाई ऊंची जातियों से नहीं है, न ही ब्राह्मण से है। हमारी लड़ाई ब्राह्मणवाद से है, उस मानसिकता से है जो कई वर्षों से क्रूरता कर हमें आगे बढ़ने से रोकती रही है। उन्हें डर था कि हम उनसे आगे न निकल जाएं। आज जब परिस्तिथियां बदल रही हैं तब उन्हें इस खतरे की घंटी का अंदाज़ा हो गया है और आरक्षण हटाने की आड़ में वो अपनी नाकामी छिपा रहे हैं।

आज देश भर में 400 से ज़्यादा जातियां आरक्षण पाने की लड़ाई लड़ रही हैं। आरक्षण मतलब विशेष अवसर। इस अवसर की ज़रूरत कल के किये गए अत्याचार से निकली है। जिस दिमाग को हज़ारों वर्षों से बंद कर दिया गया हो वो क्या करेगा?

तुम बात करते हो काबिल होने की, समानता की, तो काबिल तब बनेंगे जब सब कुछ सामान हो। साइकिल चलाने से पहले साइकिल होनी चाहिए, जिससे वो पहले पैडल पर पैर रखे फिर हैंडल पर नजर हो। 3 से 4 बार गिरे फिर साइकिल चलाना जाने। आपके पास तो वो साइकिल कब से हैं और आप सीखने की बजाए हमें वो साइकिल न देने की बात करते हैं।

डॉक्टर लोहिया ने कहा और माना भी था कि 100 लोग बैठेंगे तो 70 निकम्मे भी निकलेंगे लेकिन 3० हलचल पैदा करेंगे और ऐसा चौतरफा हमला करके जाति प्रथा की असमानता को खत्म कर सकते हैं। आरक्षण का विरोध मानवता का उपहास है। यह एक सामाजिक न्याय है जो वोट बैंक की राजनीति में तब्दील हो गया है।

बाबा साहब की इस विरासत को सामाजिक ग्रस्त करने की कोशिश की जा रही है। जिस आरक्षण को समानता का हक़ दिलाने के लिए लाया गया था आज वो हिन्दू पट्टी के जातिवाद के नाम पर बंट गई है। आज उन ब्राह्मणवादियों को इस बात का डर सताता है कि एक आईएएस अधिकारी के कार्यालय में जाकर एक दलित को नमस्कार करना पड़ेगा और एक सच ये भी है कि बाहर निकलते ही उस दलित अधिकारी को जातिसूचक गालियां भी दी जाती हैं।

हमारे देश से इतर दूसरे देशो में भी अलग-अलग रूपों और ज़रूरत के मुताबिक आरक्षण है। इस देश में इस आरक्षण की ज़रूरत जातीय मानसिकता और समानता को लाना था। आरक्षण के आकड़ों पर गौर करें तो अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग आंकड़ें हैं।

प्राचीन प्रथाओं के अनुसार पंडित का बेटा पंडित ही बनेगा, साहूकार का बेटा साहूकार, यह निर्धारण, जाति का उस व्यक्ति के कुल के आधार पर था। यह देश का दुर्भाग्य है कि आज भी कोई ऐसा है जो माँ के पेट से निकलते ही पीएम पीएम चिल्लाता है तो कोई 2 जून की रोटी के लिए तरसता है।

माना कि आज समाज में वे जातियां जो पहले उठ नहीं सकी आज अपने बूते पर उठ गई हैं। उनके आरक्षण पर विचार करने की ज़रूरत है और जो उठे हुए थे आज वो निचले तबकों में अपनी आर्थिक वजहों से गिने जाते हैं। क्यूंकि पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने एक शब्द जोड़ा था “ममता” इसका मतलब जो बीमार हैं उसे भोजन दो, पानी दो, फल दो, कई पौष्टिक आहार दो और फिर ताक़तवर हो जाए तो वो सब वापस ले लो।

आरक्षण इसी सिद्धांत की छवि रहा है। इसपर विचार की ज़रूरत है, लेकिन कोई इसे खैरात कहकर कलंकित करे या नाकामी की परिभाषा बतलाये उसे ये समझ लेना चाहिए की संविधान से बड़ा कोई नहींं। आरक्षण को हटाना है तो पहले आदर्श समाज की ज़रूरत है। ऐसा समाज जो दलितों को दलित न समझे उसके साथ वही बर्ताव करे जो अपने जात के लोगों के साथ करता हो।

समाज चिंतक भी मानते हैं कि इसे ख़त्म करने से इनका हक़ फिर से छीन लिया जायेगा। एक कड़ी सच्चाई ये भी है कि इसके बावजूद ब्राह्मणवाद अपनी नकारात्मक विचार से जड़े जमाए हुए है। वो हमें मेहनत करने से डरने वाला कहते हैं। मैं कहना चाहूंगा कि सदियों से कौन मेहनत करके कमाता रहा है और कौन उसे खैरात समझ कर लूटता आया है? किस कम्पटीशन की बात करते हो? अरे हमारे लिए तो स्कूलों के लिए दरवाजे बंद थे, किसी तरह वहां पहुंचे तो हमें अलग लाइन में बैठा दिया जाता था। तुम इसे पढ़ने के बाद विरोधी बन जाओ और ये भी सोचो कि इसी काबिल है हम।

यही हमारी औकात है। तो एक ही बात कहना चाहूंगा कि तुमने हमें कभी मौका नहीं दिया क्यूंकि तुम डरते हो। हम करेंगे मुकाबला मेरिट से भी तुम्हारे, लेकिन उसके लिए सभी की रेसिंग लाइन एक होनी चाहिए। जाओ पहले छोड़ आओ अपनी पुस्तैनी हवेली, करोड़ो की ज़मीन, जायदात। आओ हमारे साथ किराये के उस मकान में, उस झोपड़पट्टी में, हमारी ज़िंदगी चखो, फिर करेंगे मुकाबला और जब तक तुम अपनी विरासत की खैरात नहीं छोड़ते, तब तक हम भी आरक्षण को खैरात मानकर मुकाबला करेंगे।और जब-जब हमें मौका मिला हमने मुकाबला किया।

मैं तैयार हूं इस विरासत को छोड़ने के लिए, लेकिन तुम भी छोड़ो आज और अभी। अगर वो विरासत तुम्हारे पास नहीं तो हमारे पास भी कइयों के हालात भी वही हैं जो पहले थे। मत भूलो की आज़ादी के बाद मौका मिला तो दुनिया का सबसे बड़ा संविधान लिख डाला, जिसे हम सब आज मानते हैं और यह संविधान ही इस देश की पहचान है।

मैं स्वामी विवेकानंद, राम मोहन राय से लेकर आज के उन युवा, बुजुर्ग, उन तमाम उच्च जाति के लोगों एवं महापुरुषों को नमस्कार करता हूं जिन्होंने इस क्रांति में योगदान दिया। उन सभी को जिन्होंने इस दर्द एवं पीड़ा को समझा और साथ दिया एक खूबसूरत समाज बनाने के लिए। हमें ना इस देश की किसी भी जाति से नफरत है और ना हमारी किसी से लड़ाई है। हमें तो खुद समानता चाहिए, लेकिन जब-जब बात आरक्षण को खैरात कहने की होगी तो इन तमाम शब्दों के बीच ये कहना होगा कि किसी ने क्या खूब कहा है  “किसी  को  घर  से  निकलते  ही  मिल  गयी  मंजिल …कोई  हमारी  तरह  उम्र  भर  सफर  में  रहा।”

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