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राष्ट्रपति चुनाव में हो रही है जाति की मार्केटिंग

तमाम अख़बारों, न्यूज़ चैनल्स और सोशल मीडिया पर विगत दो दिनों से जो नाम सर्वाधिक चमक रहा है, वो है – बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद का। मीडिया में रामनाथ कोविंद के नाम की यह वृहत उपस्थिति राष्ट्रपति चुनावों में NDA की तरफ से उनकी उम्मीदवारी की वज़ह से है। बीजेपी पार्लियामेंट्री बोर्ड की लगभग 2 घण्टे तक चली मीटिंग के बाद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने यह घोषणा की। इस घोषणा को अब तक मिली जुली प्रतिक्रिया मिली है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि राष्ट्रपति पद के लिए कोविंद से बेहतर नाम मौज़ूद हैं जबकि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फैसले का स्वागत करते हुए खुशी जताई।

राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार घोषित होने के बाद कोविंद

रामनाथ कोविंद की जाति को किया जा रहा है हाइलाईट

प्रतिक्रियाओं का अंतर वाजिब है और स्वीकार्य भी, लेकिन प्रतिक्रियाओं का जातिगत आधार शर्मनाक है। और जैसा कि हम जानते हैं, प्रतिक्रियाएं, क्रियाजनित होती हैं तो इस शर्मनाक आधार को बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने तैयार किया था, कहना ग़लत नहीं होगा। घोषणा करते हुए अमित शाह ने रामनाथ कोविंद के “दलित” होने को खूब हाइलाईट किया। बस फिर क्या था, न्यूज़रूम से लेकर सड़क पर चलने वाले आम लोग और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी सब राष्ट्रपति उम्मीदवार से हटकर दलित उम्मीदवार पर टिक गए। चर्चाएं दक्षता और योग्यता के ऊपर नहीं बल्कि जाति के उपर हुई।

विपक्ष में दरार

बसपा अध्यक्ष मायावती ने घोषणा के बाद कहा यदि विपक्ष किसी अन्य बड़े दलित नेता को नहीं उतारती है, तो उनका समर्थन भाजपा उम्मीदवार के साथ रहेगा। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कोविंद बीजेपी दलित मोर्चा के एक नेता होने के कारण ही राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर चुने गए हैं। उन्होंने कहा कि विपक्ष के कई नेता इस घोषणा से हैरान हैं। उन्होंने यह भी कहा कि देश में कई अन्य बड़े दलित नेता हैं। उद्धव ठाकरे ने घोषणा के बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं बोला।

राजनीतिक गलियारों में राष्ट्रपति उम्मीदवार की जाति को आधार बनाकर बयानबाज़ी करना चिंतनीय है। समझ नहीं आ रहा कि ये लोग राष्ट्रपति उम्मीदवार की बात कर रहे हैं या दलितों के सबसे बड़े प्रतिनिधि की। बहरहाल, कुछ विश्लेषक कोविंद के नाम की घोषणा को 2019 में होने वाले लोकससभा चुनावों से जोड़कर देख रहे हैं। जातिगत राजनीति अपने चरम पर है।

रामनाथ कोविंद – परिचय

ख़ैर, रामनाथ कोविंद के बारे में जानना ज़रूरी है। कानपुर कॉलेज से वकालत करने के बाद उन्होंने IAS की तैयारी की और अपने तीसरे प्रयास में सफलता अर्जित की। हालाँकि ALLIED SERVICES के लिए चुने जाने के कारण उन्होंने वकालत को पेशे के तौर पर अपनाया।

मोरारजी देसाई के निजी सचिव थे कोविंद

बीजेपी में जुड़ने से पूर्व उन्होंने 1977 में मोरारजी देसाई के निजी सचिव के रूप में काम किया।

पद जो कोविंद ने संभाले 

कोविंद 1998-2002 तक बीजेपी दलित मोर्चा के अध्यक्ष रहे। 1994-2000 और 2000-2006 तक दो बार उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के सांसद भी चुने गए। सन् 2002 में संयुक्त राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली को संबोधित भी किया।

सन् 2012 में राजनाथ सिंह ने चुनाव प्रचार के दौरान रामनाथ कोविंद को अपने साथ रखा, खासतौर पर दलित बहुल क्षेत्रों में। 2015 में वो को बिहार के गवर्नर बने जिसकी पूर्व सूचना न मिलने की बात करते हुए नीतीश कुमार ने विरोध भी किया। लेकिन गवर्नर बनने के बाद बीजेपी के विरोधी नीतीश कुमार और RSS से जुड़े कोविंद के बीच के रिश्ते, बक़ौल नीतीश कुमार, अच्छे रहे।

कोविंद की कमज़ोरी

इन सब बातों के साथ हमें सिक्के के दूसरे पहलु के बारे में भी सोचना चाहिए। रामनाथ कोविंद बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता की भूमिका भी अदा कर चुके हैं। लेकिन इसके बावज़ूद शायद ही कभी न्यूज़ चैनल्स पर इन्हें देखा गया।

राजनीति के मैदान में कभी भी बहुत ज्यादा मुखर नहीं रहे। शायद इसी कारण 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रचार हेतु राजनाथ के साथ काम किया लेकिन लोकप्रियता नहीं मिली।

रामनाथ कोविंद ने अन्य धर्मों के पिछड़े वर्गों के आरक्षण के मुद्दे पर बोलते हुए नई दिल्ली में सन् 2010 में इसाई और मुस्लिमों को एलियन बताया था।

मुमकिन है, कोविंद की उम्मीदवारी उनके शांत स्वभाव और बीजेपी के साथ पुराने संबंधों के कारण हुई हो। विदित हो कि अमित शाह और नरेंद्र मोदी दोनों को ही इस तरह के लोग पसंद आते हैं। बहरहाल, रामनाथ कोविंद के पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ तर्क हैं। वो निश्चित ही, योग्य, बुद्धिमान और अनुभवी हैं। लेकिन इसके साथ ही वे कम मुखर हैं और अन्य मज़हबों के प्रति उदार नहीं। इन बातों को आधार बनाकर राष्ट्रपति उम्मीदवार के उपर चर्चाएं की जा सकती है।

लेकिन दुर्भाग्य चर्चाएं उनकी योग्यता, बुद्धिमत्ता, अनुभव आदि के उपर नहीं बल्कि उनकी जाति के उपर होगी। राजनैतिक मानसिकता राष्ट्रपति चुनाव को दलित प्रतिनिधि चुनाव की तरह प्रचारित कर रही है।

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