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चुनाव में अपनी जमानत जब्त होने पर खुश होने वाले चाचा ‘धरती पकड़’

हार-जीत ज़िंदगी का हिस्सा है। यह ज़रूरी नहीं कि हर मोर्चे पर व्यक्ति को जीत ही मिले। चुनाव भी इन्हीं मोर्चों में से एक है, जिसमें एक जीतता और बाकी हारते हैं। इसमें लोग किसी को चुनते हैं, तो उनमें उम्मीदें देखकर या उनके कामकाज से खुश होकर। अन्य मोर्चों पर हार की तुलना में चुनावी हार बेहद मारक होती है और कई बार तो राजनीतिज्ञों को भीतर तक झकझोर देती है। लेकिन, भारत के चुनावी इतिहास में एक चरित्र ऐसा भी है, जिसने करीब 350 बार चुनाव लड़ा, लेकिन एक बार भी जीत का स्वाद नहीं चखा।

इस चरित्र को राजनीतिक गलियारे में ‘धरती पकड़’ उपनाम से नवाज़ा गया। धरती पकड़ का असली नाम था काका जोगिंदर सिंह।

काका जोगिंदर सिंह ने पार्षदी से लेकर विधानसभा, लोकसभा यहां तक कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ भी चुनाव लड़े। इतना ही नहीं वर्ष 1992 में राष्ट्रपति चुनाव में भी उन्होंने हाथ आजमाया।

इस चुनाव में अन्य उम्मीदवार शंकर दयाल शर्मा, जार्ज गिलबर्ट स्वेल और राम जेठमलानी थे। शंकर दयाल शर्मा को कांग्रेस ने मैदान में उतारा था। जॉर्ज गिलबर्ट स्वेल व राम जेठमलानी निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में किस्मत आजमा रहे थे।

बताया जाता है कि इस चुनाव के लिए काका जोगिंदर सिंह ने जब नामांकन दाखिल किया था, तो नामांकन पत्र में गड़बड़ी के कारण कई बार उनका नामांकन रद्द हुआ था था, लेकिन आखिरकार उनका नामांकन पत्र स्वीकार कर लिया गया और उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा। इस चुनाव में 1035 वोटों के साथ वह चौथे स्थान पर थे। इस चुनाव में शंकर दयाल शर्मा की जीत हुई और वह राष्ट्रपति बने। राम जेठमलानी तीसरे स्थान पर थे। उन्हें 2704 वोट मिले थे।

काका जोगिंदर सिंह ने जब भी चुनाव लड़ा, उनकी जमानत जब्त हो गयी, लेकिन उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की। उनका मानना था कि भले ही वह हार जाते हैं, लेकिन जमानत की राशि जब्त होती है, तो वह देश के खजाने में जाती है, जिससे अंततः देश का ही भला होता है।

एक इंटरव्यू में चुनाव को लेकर पूछे गये सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि वह चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं, लेकिन जब भी चुनाव आता है, तो उन्हें कहीं से प्रेरणा मिल जाती है। वह खुद पर काबू नहीं रख पाते हैं और चुनाव लड़ने की तैयारी शुरू कर देते हैं।

राजनीति में दलबदल बेहद पुरानी परंपरा है और नेता अपने फायदे के लिए कई पार्टियां बदल लेते हैं, लेकिन काका धरती पकड़ ने कभी भी किसी पार्टी का दामन नहीं थामा। वह हमेशा निर्दलीय चुनाव लड़े। हालांकि कई पार्टियों ने उन्हें अपने खेमे में लाने की कोशिश की, लेकिन वह अपने निर्णय पर डटे रहे।

काका का जन्म 1934 में गुजरांवाला (अभी पाकिस्तान) में हुआ था। वह अपने 16 भाई बहनों में 14वें स्थान पर थे और उत्तर प्रदेश के बरेली में अपना पुश्तैनी टेक्सटाइल बिजनेस संभालते थे।

चुनाव भी वह इसी बिजनेस के पैसे से लड़ा करते थे। इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकार किया था कि उन्होंने कभी भी चुनाव प्रचार या वोट देने के लिए एक रुपया खर्च नहीं किया। लेकिन, चुनावी घोषणापत्र वह जरूर जारी करते थे। उनके हर घोषणापत्र में कमोबेश एक जैसे प्रस्ताव हुआ करते थे। इनमें विदेशी कर्ज़ा चुकाना, बच्चों का बचपन बचाना व देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बार्टर सिस्टम लागू करना आदि शामिल थे।

उल्लेखनीय है कि बार्टर एक व्यवस्था है जिसके तहत सामान व सेवा के बदले दूसरे सामान व सेवा दिये जाते हैं। इसमें सामान व सेवा के बदले नोटों का आदान-प्रदान नहीं होता है।

खैर, अगर चुनाव जीत जाते, तो निश्चित तौर पर वह अपने घोषणापत्र में किये वादों को पूरा करने की भरसक कोशिश करते, लेकिन हर बार उन्हें हार ही नसीब हुई।

काका जोगिंदर सिंह को 19 दिसंबर 1998 को पैरालाइसिस के अटैक के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 23 दिसंबर 1998 को 80 साल की उम्र में उनकी मौत हो गयी।

चुनाव में उन्हें जीत भले नहीं मिली, लेकिन भारतीय राजनीति में वह अपनी पहचान जरूर छोड़ गये। चुनाव नहीं जाते, लेकिन हार भी नहीं मानी। चुुनाव जीतने के लिए सारे तिकड़म अपनानेवाले हमारे आज के राजनेता काका से बहुत कुछ सीख सकते हैं।

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