भारत जिसकी पहचान आज सिर्फ और सिर्फ शहरों तक ही सीमित रह गई है, उस भारत का शहरी नागरिक पूछ रहा है कि एक दिन तो सबको मर ही जाना है, तो मरते किसान पर इतना हल्ला क्यों है? शहर के ये नागरिक जो अक्सर फेसबुक पर लाइव रहते हैं, व्हाट्सएप से अपने दोस्तों से जुड़े होते हैं और इनका सबसे बड़ा अरमान अमेरिका जाने का है। इन्हें क्या पता कि किसान कौन है? कैसा दिखता है? इसे नहीं पता कि वो दिखता एक आम नागरिक की तरह ही है, लेकिन उसके माथे की लकीरें और उससे बहता पसीना ये कह रहा है कि उसी के देश में उसकी पहचान आज खो चुकी है। उसकी ज़मीन आज कम हो रही है, कर्ज़ बढ़ रहा है, बैंक और साहूकार दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं।
उसकी सामाजिक और आर्थिक प्रतिष्ठा आज हाशिये पर है और इसकी वजह उभरता हुआ भारत ही है, जो आज भी किसान को उसकी लागत के हिसाब से मुनाफा नहीं दे रहा। आनाज का न्यूनतम मूल्य भी उसे नहीं मिल रहा है, जिसका वचन सरकार ने दिया था। आज अगर किसान ज़िंदा है तो भी यकीनन वो एक चलती-फिरती लाश से ज़्यादा का मोल नहीं रखता। वो अपनी पारिवारिक और सामाजिक जवाबदेही को निभाने में पूरी तरह असमर्थ है। आज किसान मर रहा है, खासकर कि छोटा और मध्यमवर्गीय किसान।
उभरते हुए भारत का नागरिक जो अक्सर गूगल करता है, उसे पता नहीं होगा कि कितने किसान बीते कुछ वर्षों में आत्महत्या कर चुके हैं। अगर थोड़ा गूगल भी करेंगे तो पता चलेगा कि आज क्यों पूरे देश में किसान आंदोलन कर रहे हैं? खासकर जब आज़ाद भारत में हर सरकार और पिछले तीन वर्षों से सत्ता में मौजूद मोदी सरकार ने किसान के हालात को सुधारने का वादा पूरे जोर-शोर से किया था। लेकिन आज जब फसल अच्छी हुई है, तब भी किसान मर रहा है और जो निराश है, ज़िंदा है- वह आंदोलन कर रहा है।
कुछ दिनों पहले दिल्ली के जंतर-मंतर पर तमिलनाडु से आए किसान, कर्ज़ माफी की मांग के लिये प्रदर्शन कर रहे थे। इस प्रदर्शन में उन्होंने कुछ ऐसे लोकतांत्रिक तरीके अपनाए जिससे बिना कहे वह अपनी मांग देश और सरकार के सामने रख सकें। लेकिन ये दौर ही कुछ ऐसा है जहां सभी को शक की नज़र से देखा जाता है। इसी के चलते सोशल मीडिया पर ये वायरल हो रहा थी कि ये किसान नहीं हैं और ये प्रदर्शन राजनीति से प्रेरित है।
कुछ दिन पहले इन्ही मांगो को लेकर मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के किसान भी सड़कों पर आंदोलन कर रहे थे, जहां सरकारी गोली चलने से मध्यप्रदेश में 5 किसानों की मौत हो गई। वहीं प्रदर्शन के दौरान महाराष्ट्र में इसी प्रदर्शन से जुड़े एक किसान ने ख़ुदकुशी कर ली थी। महाराष्ट्र सरकार ने तो किसानों की कर्ज़ माफी की मांगे मान ली हैं लेकिन मध्यप्रदेश की सरकार अभी भी किसानों के प्रति कोई नीति गठित करने में कामयाब नहीं रही है। ये भी खबर है कि आने वालों दिनों में कर्ज़माफी के लिये गुजरात और पंजाब के किसान भी आंदोलन कर सकते हैं।
इसी बीच वित्त मंत्री अरुण जेटली का एक चर्चित बयान आया कि किसानों को दी जा रही कर्ज़ माफी का भुगतान खुद राज्य सरकारें करेंगी और इसमें किसी भी तरह से केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक मदद नहीं दी जाएगी। ये बयान 2014 के चुनावी वादों पर एक कटाक्ष ही है जो सबका साथ-सबका विकास और अच्छे दिनों की बात करते हैं। लेकिन जुमलो से कहां किसी का पेट भरता है। जो अन्नदाता अनाज उगाता है, उसकी खेती की लागत हर दिन बढ़ रही है, वहीं खेती के व्यवसाय में मुनाफा काफी कम होता जा रहा है। इसी कारण किसान आज कर्ज़ माफ़ी के लिये सड़क पर दुहाई दे रहा है। उभरते भारत का नागरिक लहराते हुये हरे खेतों को देख ये सवाल कर रहा है कि आखिर सोना उगलती मिट्टी आज घाटे का सौदा कैसे बन गई है?
अगर मेरे ही गांव की बात करूं तो बहुत कम ऐसे घर हैं जो खेती में सफल हैं, बाकी पूरे गांव में मध्यम या छोटे किसान ही हैं। छोटा किसान 1 या 2 एकड़ का मालिक होता है जो अपने पशुओं और घर के आनाज के लिये ही खेती करता है। वहीं पारिवारिक व्यवसाय खेती होने से मध्यमवर्गीय किसान उस नाव पर सवार नाविक की तरह है जो मझधार में है। ना खेती छोड़ सकता है और ना ही इसमें उसे फायदेमंद रोज़गार नज़र आता है।
खेती भी किसी अन्य व्यवसाय की तरह पहले लागत मांगती है, लेकिन मुनाफा होगा या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। मसलन खेती के औज़ारों की ही बात करें तो ट्रेक्टर, ट्राली, हल आदि ज़रूरी हैं। साथ ही पानी के लिये खेत में ट्यूबबेल, बिजली का कनेक्शन होना भी ज़रूरी है। मेरे गांव में 300 फ़ीट से ज़्यादा की गहराई पर पानी उपलब्ध है, इन सब औज़ारों और संसाधनों के लिए कम से कम 5-6 लाख रुपये चाहिए और अगर ट्रेक्टर नया लेना है तो कम से कम 10 लाख रुपये।
साल के इस समय जब हम गर्मी से बचने के उपाय कर रहे होते हैं, तब जून के महीने के अंत तक कपास और चावल की बोआई हो जाती है। कपास के खेतों में अतरिक्त घासफूस जो कपास की बढ़त को रोकती है, इस तपती गर्मी में भी उसे हटाता हुआ किसान खेतों में दिखाई देगा। चावल के लिये पानी की पूर्ति के लिए खेत में चल रहा जरनेटर, डीज़ल लागत में बढ़ोतरी के साथ किसान की उम्मीद को भी जला रहा होता है क्यूंकि वहां बिजली अक्सर नाराज़ रहती है।
अब बोआई से लेकर कटाई तक- बीज, कीटनाशक, यूरिया, मजदूरों की मजदूरी ये सब खेती का खर्चा बहुत ज़्यादा बढ़ा देते हैं। वहीं किसान और उसके परिवार द्वारा की गयी मेहनत कभी भी खेती की लागत में गिनी ही नहीं जाती। अब जब फसल प्राकृतिक आपदा से बचते बचाते बिकने के लिये मंडी आती है, तब सही मायनों में हमारी दिशाहीन और तर्कहीन व्यवस्था के दर्शन होते हैं। यहां अगर मंडी के अफसर की नज़र आप पर पड़ गयी तो ठीक, नहीं तो कुछ रातें अक्सर किसान खुले आसमान के नीचे बिताता है। इस दौरान अगर हल्की सी बूंदाबांदी हो गयी तो ये फसल तब तक नहीं खरीदी जाएगी जब तक ये सूख नहीं जाती।
कई बार न्यूनतम अनाज दर से भी कम दाम पर किसान फसल को बेचने के लिये मजबूर होता है। जहां चंद रुपयों में क्विंटल का दाम तय होता है, वहीं आनाज एक प्रोडक्ट बनकर इससे कई गुना ज़्यादा दाम पर बाज़ार में बेचा जाता है। फसल बिकने के बाद भी किसान को नकदी की जगह एक पर्ची मिलती है, जिसका भुगतान कुछ दिनों बाद सरकार आढ़तिये या साहूकार के माध्यम से करती है।
किसान के घर में अगर शादी हो तो कर्ज़ लिया जाता है, अगर कोई दुःख बीमारी हो तो कर्ज़ लिया जाता है, बच्चों की उच्च शिक्षा के लिये भी कर्ज़ लिया जाता है। अमूमन ऐसे हर हालात में कर्ज़ ही लिया जाता है। एक किसान की ज़िंदगी में ऐसे दिन कभी नहीं आते कि खेती के कारण उसकी जेब नोटों से भरी हो। हां, बैंक द्वारा जारी किया गया भुगतान का नोटिस अक्सर इसकी जेब में मिल जाता है या घर के दरवाजे पर लगा दिया जाता है, नौबत ज़मीन की कुर्की तक भी आ सकती है।
आज सामजिक, आर्थिक, पारिवारिक हर दृष्टिकोण से छोटा और मध्यमवर्गीय किसान जिसका व्यवसाय मात्र खेती है, निराश है और उसे कहीं कोई उम्मीद नहीं दिखाई दे रही है। वह खुद के वर्चस्व को बचाने के लिये आज सड़क पर आंदोलन कर रहा है। लेकिन आज का भौतिकतावादी और स्वार्थी समाज और राजनीतिक तंत्र इस अन्नदाता की अनदेखी कर रहा है, जिसका स्थान समाज में सबसे आगे होना चाहिए। उसकी समस्याओं पर पैर रखकर उभरता हुआ भारत, शायद आज भी अंजान है और उसे ये भी नहीं पता कि किसान मर रहा है।