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पर्यावरण तो यार मानो ‘Holy Cow’ बन गया है

पर्यावरण दिवस आया और चला गया, कुछ समय पहले एक दोस्त ने कहा था कि “पर्यावरण तो यार मानो ‘Holy Cow’ बन गया है।” लेकिन इस पर कुछ भी कहना अजीब सा ही है– पेड़ लगाओ तो ऑक्सीजन मिलेगी, हरे-भरे पेड़ मत काटो विश्व में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। जंगली जानवर कम हो गए हैं – देखो शेर, और चीता और हाथी…उफ़! जैसे ऐसा कुछ तो कभी सुना ही ना हो। क्या फिर से क, ख, ग से शुरू करना होगा? सांस लेने के लिए शुद्ध हवा चाहिए पीने के लिए शुद्ध पानी और खाने के लिए ज़मीन से फसल…

इन्ही शहतीरों पर खड़ी होगी आपके और हमारे विकास की इमारतें

क्या ये बेकार की प्रकृति वाली रट लगाए रहते हो? दुनिया सिर्फ मुनाफे के लिए चलती है, फिर एक पेड़ कटने पर क्यों इतना विलाप कर रहे हो? पेड़ नहीं काटेंगे तो तुम्हारी ये नयी मेज़ कैसी बनेगी? और उन तख्तों का क्या होगा जिस पर तुमने दुनिया भर का ज्ञान सजा रखा है? अनाज की चिंता ना करो, हमारे किसान बहुत मेहनती हैं, हमारी धरती तो सोना उगलती है।

हां, शायद ये सही भी हो…

वैश्विक स्तर पर बड़े सम्मेलनों में पर्यावरण पर समझौते होते आ रहे हैं, लेकिन ये विचारणीय है कि उनसे होना क्या है? हाल ही में पेरिस समझौते से बाहर आते हुए अमेरिका ने डपटकर कहा कि जाओ मैं नहीं मानता तुमने क्या कहा था– तुम पहले अपने कारखाने बंद करो, हम क्यों करें? हमारे लोगों को विकास की ज़रूरत है! अपने देश के बजट के बड़े हिस्से जब बेमतलब के युद्ध करने में खर्च कर दिए जाते हैं – तब पहली हो या तीसरी, हर दुनिया के ये नुमाइंदे देश की गरीबी और विकास की ज़रूरत का ही हवाला देते हैं।

इन भावनाओं पर खेलने वाले लोग, समूह और संस्थाएं मसलन खनन कम्पनियां या बिजली बनाने वाली कम्पनियां या फिर कोई और, उनके काले कारनामों को कानून तोड़-मरोड़ कर छुपाया जाता है। सरकारी तंत्र की मानसिकता में औद्योगिक विकास के लिए खेती, पशुपालन और ज़मीन-जंगल को बर्बाद कर देने को मान्यता देना जायज़ सा है, इन्हें कुछ ज़्यादा फर्क पड़ना नहीं है। वैसे भी बड़े स्तर पर शहर या गांव में जल-स्रोत सूखते जा रहे हैं, जो बचे हैं उन्हें रेत और मिट्टी खोदने के कारण उपयोग से बाहर कर दिया गया है। अब ज़िम्मेदारी वहां के लोगों की है कि कितना श्रमदान करके वो अपने मोहल्लों में चेक-डैम बना पाएं या तालाब खोदकर बारिश के पानी को रोक पाएं या कम से कम पानी में ही बम्पर फसल उगा लें। हर-रोज ध्यान से बिजली-पानी बचाएं, खूब सारे पेड़ लगाएं!

सामाजिक न्याय के सपने से सजा इस देश का संविधान इन मामलों में बेअसर सा ही लगने लगा है, खासकर जब मंत्रालयों में घूसखोर और कमज़ोर लोग बैठे हैं। जिन्हें बेशर्मी से दलाली करने के अलावा ज़्यादा कुछ आता नहीं है। जिन्होंने देश की संपदाओं को निजी मुनाफे के पलड़े में हल्का पाया है, मानो वजन कहीं और बढ़ता जा रहा है। अगर दो और दो जोड़ें तो शायद ये गुमनाम स्विस बैंक के खाते इतने गुमनाम से भी नहीं होंगे। लेकिन कितने महान हैं हमारे देश के गरीब और मजदूर – देखो कितना कुछ सहते हैं, फिर भी हिम्मत रखते हैं। इन्हें ज़रूर अगले जन्म में ईश्वर के साक्षात दर्शन करने को मिलेंगे… थोड़ी कच्ची शराब और 3 मुर्गे देवता पर चढ़ा दें फिर तो इस जन्म में ही शायद ईश्वर मिल जाएं… बाबा की मण्डली चकल्लस करते हुए, गले में गेरुआ चादर डाले और मन में मैल भरे गाती जाती है।

पिछले कुछ सालों मैंने ऐसे कई सवाल देखें हैं। वन-विभाग जिसे जंगलों के रख-रखाव, बचाव और बेहतर करने के काम करने होते हैं, वो आज देश के सबसे बड़े ज़मींदार बने हुए हैं। 2006 के वन अधिकार कानून में जिस ऐतिहासिक अन्याय का ज़िक्र है, उसका आदिवासी और वनवासी समाज के लोगों के दैनिक जीवन में क्या असर पड़ा होगा? क्या दारु और मुर्गे का इंतज़ाम उन्हें नहीं करना पड़ा है? क्या वो सिर्फ गोरे अंग्रेज़ थे जो आए और हमारे देश को लूट कर ले गए? क्या उसके आगे-पीछे, इतिहास के महाबलियों ने लोगों के जीवन के ऊपर ही अपने बड़े-बड़े साम्राज्य नहीं बनाए? क्या इन गौरव-गाथाओं के अलावा हमें इतिहास ने बाकी लोगों का पक्ष बताया? या इतिहास को तोड़-मोड़ कर पेश करना हमेशा से ही सामान्य व्यवहार रहा है? क्या ये लोग, जिन्हें हम ‘वंचित’ कह कर पुकारने लगे हैं, पूरे इंसान नहीं हैं? क्यों आज अपने घर, ज़मीन और जंगल की लड़ाई माओवाद या आतंकवाद से प्रेरित कही जाने लगी है? जीवन जीने की आशा करना क्या अब व्यर्थ सा है? क्या राष्ट्र-राज्य के नाम पर लूटेरों की टोलियां हमें बताएंगी कि कैसे जीना है?

जंगलों में लग रही आग में क्या हमारी कोई भूमिका नहीं है?

प्राकृतिक आपदाओं से जूझना और उसकी तैयारी रखना हमारी आज की ज़रूरत है। पर जब अच्छी चौड़ी सड़कों की जगह पहाड़ों पर फोर-लेन बनाने को विकास का नाम दिया जाता है, उसके पर्यावरण और लोगों की ज़िंदगी पर असर को नज़रंदाज़ किया जाता है। बाघ-चीते बसाने के नाम पर संरक्षित वन बनाए जा रहे हैं, ताकि जानवरों को बचाया जा सके। उसके लिए एक बार में 200 गांव विस्थापित करने के लिए प्रशासन मुस्तैदी से काम करता है। कोई नहीं सोचता कि जब सदियों से जंगलों में जानवर और इंसान साथ रहते आ रहे थे तो इसका अर्थ यही है कि दोनों एक दूसरे के पूरक से हैं। इस नए बनावटी विकास से ना जानवर बच रहे हैं और ना इंसान। इस पर क्या लोगों ने आवाज़ भी नहीं उठाई?

बहुत ज़ोरों से उठाई, बहस-बेबाकी सब किया। पर खोदने-बनाने वाले लोगों ने उन आवाज़ों को बहुत पहले कुचल दिया, कितनों पर तो देश के दुश्मन होने के आरोप लगा दिए गए। कई लोग आज भी सालों पुराने केसों के लिए तहसील के चक्कर लगते मिल जाएंगे। कितनी ही आम सभाओं में गैर-कानूनी कंपनियों को रोकने के प्रस्ताव जिला मुख्यालय में जमा रहते हैं। हमेशा ऊपर से आदेश आए हुए होते हैं – देखो भैया, वो सब तो ठीक है लेकिन तुम्हे क्या पता है कि तुम्हारी तरक्की कैसे होगी! तुम्हे कुछ नहीं पता, चुपचाप जाकर बैठ जाओ। जी हुजूरी करना मजबूरी है, तभी तो खाने-पीने को मिल पायेगा ना!!

कितने ही देश-विदेश के संस्थानों में अध्ययन हुए हैं, कई आगे भी होने वाले हैं। प्रयास होता है कि जन-मानस में इन मुद्दों पर रूचि बढ़े, आप समझ पाएं और मैं समझ पाऊं कि कैसे हमसे हज़ारों मील दूर जंगलों, पहाड़ों में इन तरीकों से सरकारी विकास लाने के प्रयास हमारे ही जीवन को खतरे में डालते जा रहे हैं। पर होना क्या है, “यू नो, ये तो देश ही ऐसा है, ऑल आर सो करप्ट!”

मैं नहीं मानता कि हम इससे कई बेहतर हैं, हां हो ज़रूर सकते हैं। प्रकृति आपसे-हमसे, देश से, हर चीज़ से बड़ी है। इससे खिलवाड़ का हक ना हमें है, ना हमारी सरकारों को, ना उनके आकाओं को और ना उनके ठेकेदारों को है।

शायद अगले पर्यावरण दिवस तक हम इन पर साथ आकर और सक्षम रूप से लड़ पाएंगे और आने वाले बच्चों के लिए थोड़ी ज़िंदगी बचा पाएंगे। शायद पर्यावरण ‘Holy Cow’ नहीं होना चाहिए और अब तो बिल्कुल भी नहीं!

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