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भारत अब खरीद रहा है वो फाइटर जेट्स जो पाकिस्तान के पास 34 सालों से हैं

कारगिल युद्ध के दौरान जब पाकिस्तानी घुसपैठियों के ख़िलाफ़ वायुसेना के इस्तेमाल का फ़ैसला हुआ तब भारत के पास सुखोई-30 विमान थे लेकिन उनको इस्तेमाल नहीं किया गया। इसकी दो प्रमुख वजहें थी, पहली ये कि सुखोई-30 तब एयर टू ग्राउंड अटैक के लिये पूरी तरह सक्षम नहीं था। दूसरी ये कि इसको वायुसेना में शामिल हुए 4 साल ही हुए थे और एयर सपोर्ट रोल में सुखोई को उतारना महंगा साबित हो सकता था। दूसरी वजह को विस्तार से समझने की ज़रूरत है क्योंकि महज़ विमान की उपलब्धता किसी भी वायुसेना को शक्तिशाली नहीं बनाती। जिस तरह एक घुड़सवार को घोड़े को समझने की और उससे रिश्ता बनाने की ज़रूरत होती है, ठीक वही रिश्ता एक पायलट और लड़ाकू विमान का होता है।

सुखोई 30 एमकेआइ फाइटर जेट

एक लड़ाकू विमान बहुत ही पेचीदा मशीन होती है जिसकी ख़ूबी-कमियों को समझने के लिए सालों का अनुभव चाहिये। वक़्त के साथ एक पालयट अपने विमान के दायरे और उसकी ताक़त को समझकर उस पर महारथ हासिल करता है। रूसी सुखोई को भारत में आए 20 साल से ऊपर हो चुके हैं। आज भारतीय वायुसेना इसे उड़ाने में उतनी ही पारंगत हैं जितनी रूस की वायुसेना है। हाल में भारत की टाटा एयरोस्पेस और अमेरिकी लॉकहीड मार्टिन के बीच एफ-16 विमान को लेकर हुए क़रार को पाकिस्तान और चीन के ख़िलाफ़ गेमचेंजर कहा जा रहा है। इसे रक्षा क्षेत्र में मेक इन इंडिया का भविष्य बताया जा रहा है। हालांकि इस पर अंतिम फ़ैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगामी अमेरिकी दौरे पर होने का अनुमान है, लेकिन सवाल है कि क्या भारत को वाक़ई इस अमेरिकी विमान की ज़रूरत है।

पेरिस में हुई टाटा और लॉकहीड मार्टिन की डील के मुताबिक़ एफ-16 जिसका उत्पादन अमेरिका में क़रीब-क़रीब ख़त्म हो चुका है, आने वाले वक़्त में ना सिर्फ़ भारत में बनाया जाएगा बल्कि भारतीय वायुसेना इन्हें बड़ी तादाद में इस्तेमाल करेगी और इसे निर्यात भी किया जाएगा।

भारत के लिये एफ-16 फिट क्यों नहीं है?

एफ-16 फाइटर जेट

चौथी पीढ़ी का एफ-16 ,अमेरिका का अब तक का सबसे कामयाब लड़ाकू विमान हैं। अब तक क़रीब चार हज़ार एफ-16 विमानों का उत्पादन हो चुका है जो 26 देशों की वायुसेनाओं का हिस्सा हैं। 4 दशक पुरानी इस मशीन को लगातार अपग्रेड किया जाता रहा है और अमेरिका ने भारत को एफ-16 के सबसे आधुनिक वर्ज़न ब्लॉक 70 देने की पेशकश की है। ये एक बहुउद्देशीय विमान है जिसने कई मोर्चों पर ख़ुद को साबित किया है। माना जाता है कि इज़रायल और पाकिस्तान ऐसे दो देश हैं जिनके पायलट एफ-16 को उतनी ही ख़ूबी से उड़ाना जानते हैं जितना कि अमेरिकी वायुसेना।

पाकिस्तान ने 1983 में एफ-16 विमान अमेरिका से ख़रीदे थे, फिलहाल उसके पास कमतर वर्ज़न ब्लॉक-50 के 76 एफ-16 हैं। क्षमता में भले ही पाकिस्तानी एफ-16 ब्लॉक-70 से दोयम दर्जे के हैं लेकिन पाकिस्तान के पायलट इन विमानों की रग-रग से वाक़िफ़ हैं। अगर क़रीब 200 मिग-21 और मिग-27 विमानों की जगह बड़ी तादाद में एफ-16 भारतीय वायुसेना में शामिल होंगे तो इनको पूरी तरह समझने में ही हमारे पायलट 5-6 साल लगा देंगे। वैसे भी भारतीय वायुसेना रूसी तकनीक को बेहतर समझती है, जबकि एफ-16 एक अमेरिकी लड़ाकू विमान है।

इस दलील को आसानी से समझने के लिये मोटरसाइकिल का उदाहरण देता हूं। बजाज पल्सर चलाने वाले एक बाइकर को रॉयल एनफील्ड यानी बुलेट चलाने और उसे समझने में ही महीनों लग जाते हैं, ये तो फिर करोड़ों डॉलर का लड़ाकू विमान है। डील के समर्थक इस बात की दलील देंगे कि अब एयर टू एयर कॉम्बैट में तकनीक अहम मायने रखती है और ब्लॉक-70 पाकिस्तान के ब्लॉक-50 पर हावी रहेंगे। वो बियॉंड विज़ुअल रेंज (BVR) हवाई युद्ध का हवाला देते हैं, जिसमें विमान का रडार और इलेक्ट्रॉनिक्स का रोल अहम होता है। यानी दुश्मन के विमान को सैकड़ों किलोमीटर दूर से निशाना बनाया जा सकता है। लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच हवाई युद्ध BVR में होने की संभावना कम है, सीमा के दोनों तरफ़ हवाई अड्डे इतनी दूरी पर हैं कि जंग के दौरान विमान टेकऑफ के कुछ मिनट बाद ही दुश्मन के इलाक़े में होंगे।

भले ही इस डील को भारत में मेक इन इंडिया के तहत निजी क्षेत्र में रक्षा उद्योग की बुनियाद रखने की तरह देखा जा रहा है लेकिन कुल मिलाकर हम उस विमान को भविष्य बना रहे हैं जो अमेरिका का अतीत है। क्या ये भारत में पुराने हथियार डंप करने जैसा नहीं है? क्योंकि अमेरिकी वायुसेना अपने क़रीब 900 एफ-16 विमानों की जगह 5वीं पीढ़ी के एफ-35 शामिल कर रही है। इसलिए पाकिस्तान को नज़र में रखकर एफ-16 का सौदा मूर्खतापूर्ण फ़ैसला साबित हो सकता है। भारतीय वायुसेना के लिये पाकिस्तान और चीन यानी अलग-अलग मोर्चे के लिये कई तरह के विमान ख़रीदना समझदारी वाला निर्णय नहीं होगा।

ज़ीरो डिफेंस प्लानिंग से जूझ रहीं देश की सेनाएं

फ्रेंच फाइटर जेट राफेल

1996 में सुखोई आने के बाद भारत में अब तक कोई नया लड़ाकू विमान नहीं आया है। 2019 में पहला राफेल फ्रांस से आने की संभावना है लेकिन सिर्फ़ 36 राफेल विमानों का सौदा मोदी सरकार की डिफेंस प्लानिंग को दर्शाता है। 36 विमान मतलब दो स्कॉड्रन, यानी सिर्फ़ एक एयरबेस ही इन विमानों से लैस हो पाएगा। वहीं एक बार फिर हम उन विमानों में दिलचस्पी दिखा रहे हैं जिन्हें हमने MMRCA (Medium Multiple Role Combat Aircraft) यानी मध्यम बहुउद्देशीय लड़ाकू विमान के सौदे के दौरान ख़ारिज कर दिया था। मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद MMCRA डील को भी रद्द कर दिया था जिसके तहत दुनिया के 6 सर्वश्रेष्ठ विमानों को सालों तक क़रीब से आज़माया गया। इनमें एक इंजन वाले अमेरिकी एफ-16 और स्वीडन का ग्रीपेन भी शामिल थे और दोनों को ख़ारिज करने के पीछे अलग-अलग वजहें थी। तब वायुसेना दो इंजन वाले विमान तलाश रही थी और इसमें फ्रांस के राफेल को बेहतर पाया गया था।

चाईनीज़ स्टेल्थ फाइटर जेट J-31

MMCRCA डील भी रिटायर होने वाले मिग-21 और मिग-27 के लिये थी। लेकिन अब वायुसेना एक इंजन वाला विमान चाहती है। आख़िर तीन सालों में भविष्य के विमान के लिये वायुसेना के पैमाने कैसे बदल गये? भारत आज दो मोर्चों पर दुश्मनों से घिरा हुआ है। चीन जे-20 और जे-31 जैसे 5वीं पीढ़ी के स्टेल्थ (रडार पर अदृश्य) लड़ाकू विमान बना रहा है, ऐसे में भारत को कमसे कम 4++ पीढ़ी के लड़ाकू विमानों की ज़रूरत है। सुखोई-30 एमकेआई विमान को सुपर सुखोई बनाने की तैयारी चल रही है। भारतीय वायुसेना में 250 से ज़्यादा सुखोई विमान हैं, तादाद और तैनाती के लिहाज़ से इनकी हैसियत अब मिग-21 के बराबर है। लेकिन सुखोई-30 एमकेआई भविष्य नहीं है, भारत को 5वीं पीढ़ी के स्टेल्थ विमान की ज़रूरत है।

अमेरिका, रूस, चीन समेत दुनिया भर की बड़ी वायुसेनाएं 5वीं पीढ़ी के विमान की तरफ़ बढ़ रही हैं। भारत में स्वदेशी तेजस विमान पर अब भी काम जारी है लेकिन नये सौदे के साथ इसका भविष्य भी ख़त्म हो जाएगा। भारत और रूस के बीच 5वीं पीढ़ी के विमान बनाने को लेकर हुआ सौदा भी आगे बढ़ता हुआ नज़र नहीं आ रहा। इसकी वजह सौदे में शर्तों को लेकर विवाद के साथ भारत-अमेरिका रक्षा संबंध भी हैं। अभी 33 स्कॉड्रन के साथ भारतीय वायुसेना क़रीब 250 आधुनिक विमानों की क़मी झेल रही है। ऐसे में जिस ट्रैक पर चलकर सरकार वायुसेना के लिये योजनाएं बना रही है उसे देखते हुए नहीं लगता कि आने वाले 10 सालों में भी ये फासला कम करना आसान होगा।

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