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‘आज’ बर्बाद होते किसानों में शहर अपना ‘कल’ देखना ना भूलें

आजकल भारत में एक किसान-विरोधी शहराती विमर्श बन रहा है, जिसे राजनीतिक वर्ग की शह भी हासिल है। इस विमर्श के अनुसार, देश में अगर पानी का संकट हो तो उसके लिए ज़िम्मेदार किसान है क्योंकि वह ऐसी फसलें उपजाता है, जिनकी सिंचाई के लिए पानी का ज़्यादा इस्तेमाल होता है। दिल्ली जैसे शहर में अगर वायु-प्रदूषण की समस्या है तो वह इसलिए कि हरियाणा और पंजाब के किसान धान की खुत्थी जला देते हैं। यहां तक कि कुछ लोगों का पशु-प्रेम नीलगायों के लिए बेइंतहा उमड़ पड़ता है और नीलगायों को मारने के लिए भी किसान की आलोचना की जाती है। इस पूरे विमर्श में, अगर कोई सबसे उपेक्षित वर्ग है तो वह है हिंदुस्तानी किसान। शहरों की तमाम समस्याओं का कारण।

मध्य प्रदेश में किसानों के हिंसक प्रदर्शन के बाद उन्हें खदेड़ती हुई पुलिस

उदारीकरण के 25 वर्षों में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश आदि में लाखों किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। इस अरसे में, इतने बड़े पैमाने पर हुई मौतों को नरसंहार का ही दर्जा दिया जा सकता है। लेकिन उदारीकरण ने हिंदुस्तान को जो झुनझुना थमा दिया है, वह उसमें व्यस्त है। हिंदुस्तान में उदारीकरण ने एक ऐसी पीढ़ी को जन्म दिया है जिसके जीवन का मंत्र यही है, “अगर मेरी लाईफ सही चल रही है, तो बाकी भाड़ में जाए!” पर सोचने की बात है जिन्हें भाड़ में झोंकने की बात कही जा रही है, वे भी जीते-जागते इंसान हैं। सिर्फ इंसान नहीं, हमारे अन्नदाता भी। एक बात शहराती हिंदुस्तान को समझनी पड़ेगी कि यह तय है कि अगर हिंदुस्तान का किसान मरेगा, तो देर-सबेर मातम शहरों में भी होगा! भले आप पॉश कॉलोनी में रहते हों, आपकी तनख्वाह करोड़ों में हो, लेकिन जब खेत जलेंगे तो आपका भी चपेट में आना तय है।

हमारा मीडिया भी खेती-किसानी के मुद्दों से मुंह मोड़े हुए है, क्योंकि उसके पास और भी ढेर सारे मुद्दे हैं। पर ऐसा नहीं है कि खेती और किसानों की भयावह स्थिति पर कुछ भी लिखा नहीं गया है। पी साईनाथ सरीखे पत्रकारों ने, उत्सा पटनायक सरीखी अर्थशास्त्रियों ने भारतीय कृषि पर मंडराते संकट पर बहुत कुछ लिखा है। टाइम्स ऑफ इंडिया सरीखे समाचार-पत्र ने भी प्रियंका काकोदकर की महाराष्ट्र की फ़ील्ड-रिपोर्टों को अपने पहले पन्ने पर जगह दी है। जयदीप हार्डिकर, पुरुषोत्तम ठाकुर, अशोक गुलाटी और नब्बे की वय वाले एम एस स्वामीनाथन भी खेती और किसानों के मुद्दे पर लिखते रहते हैं। पर नीतिगत स्तर पर कोई बदलाव हुआ हो ऐसा लगता नहीं! और इसके लिए कोई एक राजनीतिक दल नहीं, सभी राजनीतिक दल दोषी हैं।

अक्तूबर 2006 में ही, जब केंद्र में यूपीए की सरकार थी तभी ‘राष्ट्रीय किसान नीति’ का मसौदा राष्ट्रीय किसान आयोग द्वारा तैयार किया गया। आयोग के अध्यक्ष एम एस स्वामीनाथन थे और अन्य सदस्यों में अतुल कुमार अंजान, अतुल सिन्हा, वाई सी सिन्हा, जगदीश प्रधान आदि थे। आयोग ने “जय किसान” शीर्षक से 50 पृष्ठों वाला अंतिम मसौदा 4 अक्तूबर 2006 को सरकार को सौंपा। पर अपने बाकी के 8 साल के कार्यकाल में ना तो कांग्रेस ने किसान नीति के मसौदे पर कोई अमल किया, न ही पिछले 2 सालों में भाजपा सरकार ने।

ऋण की समस्या हो, ब्याज दरों की समस्या हो या फिर उर्वरक, बीजों की उपलब्धता, खाद्यान्न का भंडारण या न्यूनतम समर्थन मूल्य की समस्या हो, हिंदुस्तान का किसान राजनैतिक वर्ग की घोर उपेक्षा झेलने को अभ्यस्त है। वे सार्वजनिक बैंक जो बड़े उद्योगपतियों को लाख करोड़ का ऋण देकर उसे नॉन-परफ़ार्मिंग एसेट का दर्जा देते हैं, वही बैंक किसानों को दी हुई एक लाख रुपये कृषि ऋण के समय पर भुगतान न होने पर गारंटी के रूप में रखी गई ज़मीन को कुर्क कर सकते हैं। और इससे न हमारे नेताओं को कोई असुविधा होती है न न्यायपालिका को।

गेहूं और धान के अलावा दलहन और तिलहन पर भी सरकारों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा कर रखी है; पर उपज होने के बाद शायद ही इस देश के किसान को कभी वाज़िब दाम मिला हो। अक्सर स्थिति यही होती है कि उसे अपनी लागत भी पूरी वसूल नहीं हो पाती। फसल बीमा योजना और एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमिटी एक्ट अब तक महज लुभावनी घोषणाएं साबित हुई हैं, जिनका ज़मीनी हकीकत से कोई वास्ता नहीं है। कुल मिलाकर इस देश में खेती घाटे का सौदा है और कोई भी ग्रामीण अपने बच्चों का भविष्य खेती में तो नहीं ही देखता है।

यह भी पता लगाया जाना चाहिए कि पिछले बीस-तीस सालों में कृषि से जुड़े विषयों में शोध करने के लिए बनाई गई सरकारी संस्थाओं मसलन इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट और इंडियन काउंसिल फॉर एग्रीकल्चरल रिसर्च ने क्या एक भी किसानोपयोगी खोज की है; अगर की है तो क्या उस खोज को किसान तक पहुंचाने की कोशिश की गई। ऐसा तो नहीं कि इन संस्थाओं में हो रहा शोध उपभोक्ताओं और निर्यात के बाजार को ध्यान में रखकर हो रहा है। जैसा कि इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा बासमती चावल की एक प्रजाति पूसा-1509 से पता चलता है, जो एक खास वर्ग के उपभोक्ताओं को ध्यान में रखकर तैयार की गई है। इसी संस्थान ने गेहूं की एक रोगसह प्रजाति एचडी-2967 तो तैयार की, पर अभी भी उसे किसानों की पहुंच में नहीं लाया जा सका है।

क्या इन संस्थानों का यह काम नहीं है कि वे कोई ऐसी विधि तैयार कर सकें जिससे धान की खुत्थी/ठूंठ को बगैर जलाए खेत में कंपोस्ट तैयार करने के लिए या किसी अन्य इस्तेमाल में लाया जा सके। पर विधि ऐसी हो, जिसमें किसान का कोई ख़र्चा न हो! यह काम सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट सरीखी गैर-सरकारी संस्थाओं को भी अपने हाथ में लेना चाहिए। नीलगायों के संबंध में भी क्या कुछ ऐसा ही उपाय नहीं किया जा सकता कि बिना उन्हें मारे या खेत की बाड़ में करेंट दौड़ाए बगैर खेत से दूर रखा जा सके।

पानी के संकट के लिए किसान को दोषी ठहराना किसान के ज़ख़्मों पर नमक छिड़कने जैसा है। नदियों का पानी चूस जाने वाले शहर, ताल-तलैयों को पाटकर बनी कॉलोनियों में रहने वाले लोग, जो वाटर सप्लाई का ठाठ से मजा लेते हैं और फिल्टर्ड पानी पीते हैं, जब किसानों को पानी की समस्या के लिए दोषी ठहराएं तो इसे भारतीय लोकतंत्र की विद्रूपता के रूप में ही देखना चाहिए। वैसे उन शहरी लोगों को मैं यह बताना चाहता हूँ कि जो शुगर-क्यूब वे अपनी ग्रीन टी में डालकर पीते हैं, वह गन्ने के रस से ही बनता है। और गन्ना सिर्फ सिंचाई से नहीं, बेहद श्रम से पैदा होता है।

पूर्वाञ्चल के गांवों में कहा जाता है कि “तीन पानी तेरह कोड़, तब देखा ऊखी क पोर।” गन्ने की सिंचाई में पानी की बर्बादी का रोना रोने वाले लोग कभी शहरों में जल संसाधन के बेजा इस्तेमाल पर चिंतित होंगे कि नहीं, इसका मुझे पता नहीं! पर इतना ज़रूर है कि बड़े उद्योगों से निकलने वाली जहरीली गैसों से वातावरण को दूषित कर देने के बाद और वाहनों के धुएं से उसे लगातार दूषित करते रहने वाले अब सभी लोगों को, धान की खुत्थी में ही वायु-प्रदूषण का एकमात्र कारण नज़र आ रहा है।

आज भारतीय लोकतंत्र में अपनी वाजिब-गैरवाजिब मांगों को मनवाने का एकमात्र तरीका सड़क पर उतरकर शक्ति-प्रदर्शन करना ही है। हिन्दुस्तानी किसान भी सड़कों पर उतरे, वह जत्थों में इन शहरातियों के बीच आए, हिंदुस्तान के लोकतंत्र को, नेताओं को और सबसे बढ़कर शहरी मध्यम वर्ग को ये बताने कि इस देश में किसान भी रहते हैं। वो ये भी बताने आए हैं कि उनकी भी समस्याएं हैं, जिन पर जल्द-से-जल्द कुछ किया जाना चाहिए। आज मध्य प्रदेश की सड़कों पर किसान आ चुका है और अपनी मांगों के बदले में उसे प्रषाशन से बस दमन और गोलियां मिल रही हैं। मैं यह शिद्दत से महसूस करता हूं कि किसानों के कुछ कद्दावर नेता होने चाहिए, चौधरी चरण सिंह या कुछ हद तक महेंद्र सिंह टिकैत की तरह भी, अपनी तमाम कमियों के बावजूद। पर ऐसे नेता जिनमें किसानों का यक़ीन हो और जो किसानों में यक़ीन रखें। बदलाव की एक उम्मीद के साथ, भारत की खेती और भारत के किसान के पक्ष में।

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