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अंग्रेज़ी मीडियम की चुनौती से कैसे पार पाएगा लगभग 100 साल पुराना यूपी बोर्ड?

एक पुरानी अंग्रेज़ों के ज़माने की इमारत, उत्तर प्रदेश की शिक्षा की एक अरसे से नींव तैयार करती आई है। इस इमारत की हर दीवार जो अब पीकदान बन चुकी है, कभी चमकदार और शानदार हुआ करती थी। कोने में पड़ी टूटी हुई कुर्सियों का ढेर, इस इमारत की समृद्धि की कहानी कह रहा है जो अब शायद पुरानी पड़ चुकी है। ये इमारत है यूपी बोर्ड का इलाहाबाद का मुख्य कार्यालय।

इलाहाबाद शहर की तरह ये इमारत भी अपने अल्हड़पन की सौंधी-सौंधी खुशबू आज भी बिखेर रही है। लेकिन आज का ये सच इस इमारत का पूरा सच नहीं है। आज़ाद भारत अब तक कम से कम 5 पीढ़ियां देख चुका है और इस इमारत ने इन पांचों पीढ़ियों की शिक्षा में अहम योगदान दिया है। ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत निर्माण का एक बड़ा श्रेय इस संस्था को भी जाता है। उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद वैसे तो केवल उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था के लिए उत्तरदाई है, किन्तु इसकी कहानी भारत के लगभग हर राज्य के माध्यमिक शिक्षा परिषद की कहानी है।

वैश्वीकरण ने अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी शिक्षा को इस कदर बढ़ावा दिया कि हिंदी पट्टी के प्रदेशों में कुकुरमुत्ते की तरह अंग्रेज़ी माध्यम स्कूलों की बाढ़ सी आ गयी। आज परिदृश्य ये है कि क्रिश्चियन मिशनरी विद्यालयों की तर्ज़ पर विद्यालय खुल रहे हैं। अंग्रेज़ी के नाम पर बचपन से ही बच्चे को प्रणाम-नमस्ते की जगह ‘गुड मॉर्निंग’, गुड ईवनिंग’, ‘हाय-हैलो’ सिखाया जा रहा है।

एक वक्त था जब अखबार में 10वीं या 12वीं के परिणाम आते थे और अनुक्रमांक (रोल न.) के आगे केवल ये लिखा होता था कि कौन सी श्रेणी में पास हैं। ये वो वक्त था जब पास हो जाना भर मुंह मीठा करने के लिए काफी होता था। अब वक्त बदल चुका है अब श्रेणी महत्वपूर्ण नहीं रह गयी है, अब प्रतिशत महत्वपूर्ण हो गया है। दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों की कट-ऑफ सूची ही 99% होती है। यूपी बोर्ड के लिए ये संभव नहीं रह गया था कि समान पाठ्यक्रम और समान मूल्यांकन प्रक्रिया को जारी रखते हुए भी अपने विद्यार्थियों को प्रतियोगिता में बनाए रखा जा सके।

वैश्वीकरण द्वारा थोपी गयी ये आधुनिकता और परम्पराओं की आपसी रंजिश यूपी बोर्ड की गुणवत्ता के लिए घातक साबित हुई। आज यूपी बोर्ड चरणबद्ध तरीके से नित नए बदलावों को अपनाते हुए स्वयं में आवश्यकतानुरूप बदलाव करने की कोशिश में लगा हुआ है। इस कोशिश के अंतर्गत ही साल 2014 से सभी परीक्षाओं का ऑनलाइन पंजीकरण अनिवार्य कर दिया गया। पाठ्यक्रम में मूलभूत बदलाव किए गए, शिक्षार्थी केन्द्रित पाठ्यचर्या का स्वरूप तैयार किया गया और सीबीएसई की तर्ज़ पर एक समरूप पाठ्यक्रम अपनाने का भरसक प्रयास किया गया। कहा ये भी जा सकता है कि बोर्ड अभी संक्रमण की अवस्था से गुज़र रहा है, जिसे एक लंबा सफर तय करना है और समाज निर्माण के उद्देश्य में अपनी महती भूमिका सुनिश्चित करनी है।

उत्तर प्रदेश एक समाज के तौर पर समरूप समाज का उदाहरण कभी नहीं रहा, यह हमेशा से विविधता को धारण किए रहने वाला समाज रहा है। शिक्षा क्षेत्र भी उसी अनुरूप विविधतापूर्ण रहा है। उत्तर प्रदेश का शिक्षा से हमेशा ही सघन जुड़ाव रहा है, सीखने-सिखाने की परंपरा का वाहक रहा है उत्तर प्रदेश। संस्कृत काल की शिक्षा व्यवस्थाओं से लेकर गुप्त-काल तक ‘पालि’ भाषा शिक्षा का माध्यम रही। इसी भाषा में प्राचीन से मध्यकालीन ज्ञान का संकलन मिलता है जो हिन्दू-बौद्ध-मुस्लिम शिक्षा-व्यवस्था के रूप में निखर कर सामने आता है। शिक्षाविदों का मानना है की इस काल के बाद ही ब्रिटिश शिक्षा व्यवस्था के आविर्भाव से इस मौलिक भारतीय शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तनकारी तत्वों का प्रभाव आना शुरू हुआ।

आज़ादी के बाद उत्तर प्रदेश की सरकारों ने शिक्षा पर निवेश जारी रखा और समय के साथ आशातीत सफलता हासिल की। उत्तर प्रदेश भारतीय शिक्षा जगत में शिखर स्थान रखने लगा। आज़ादी से पहले ही स्थापित इलाहाबाद विश्वविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसी संस्थाओं ने प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था की मजबूत नींव की तरह काम किया जिस पर भविष्य की मजबूत इमारत खड़ी हो सकी।

सरकारों की लगातार पहल और प्रयासों का ही परिणाम रहा कि नामांकन की प्रतिशतता में लगातार वृद्धि हुई। जब भारत सरकार ने ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के तहत अनिवार्य शिक्षा कार्यक्रम का आगाज़ किया तो उत्तर प्रदेश इस कार्यक्रम को सफलता पूर्वक लागू करने वाले अग्रणी राज्यों में से एक रहा। 1981 में जहां साक्षरता दर 32.65% थी, वहीं ये दर 1991 में बढ़कर 40.71% तक पहुंच गयी। किन्तु फिर भी पुरुष साक्षरता दर और महिला साक्षरता दर के बीच एक गहरी खाई मौजूद रही। 1991 के आंकड़ो की ओर देखें तो हम पाते हैं कि पुरुष साक्षरता दर उस वक़्त 56% थी, जबकि महिला साक्षरता दर 25% थी। दूसरी ओर 2001 के आंकड़े ये बताते हैं की पुरुष साक्षरता दर बड़ी छ्लांग लगाते हुए 68.82% पर पहुंच गई थी, जबकि महिला साक्षरता दर 42.22% ही थी।

वर्तमान परिदृश्य पर नज़र दौड़ाएं तो हम पाते हैं कि ग्रामीण अंचल में शिक्षा का प्रसार आज भी आशानुरूप नहीं हो पाया है। उच्च शिक्षा की तरफ रुझान अब भी उस स्तर तक नहीं पंहुच सका है जिससे सामाजिक कल्याण का सहजबोध विकसित हो पाए। इस सहजबोध के विकास में सबसे महत्वपूर्ण चरण के रूप में स्कूली शिक्षा को देखा जा सकता है क्यूंकि स्कूली शिक्षा ही वह ज़मीन या कहें कि आधारभूत समझ पैदा करती है जो स्वयं के विकास और समाज कल्याण के लिए जागरूकता को बल प्रदान कर पाती है। उत्तर प्रदेश के विशेष संदर्भ में देखा जाए तो (प्राथमिक और माध्यमिक) विद्यालय स्तर तक माध्यमिक शिक्षा परिषद, उत्तर प्रदेश इस ज़िम्मेदारी को बखूबी संभालता आया है।

आमतौर पर ‘यूपी बोर्ड’ के नाम से जाना जाने वाला यह परिषद प्रदेश के लिए समाज निर्माण का काम करता है। बोर्ड के इतिहास पर नज़र डालें तो हम पाते हैं, माध्यमिक शिक्षा परिषद, उत्तर प्रदेश का गठन, संयुक्त प्रांत विधान परिषद (United Provinces Legislative Council) के एक एक्ट द्वारा 1921 में इलाहाबाद में हुआ था। परिषद ने पहली बार 1923 में परीक्षाओं का आयोजन करवाया। यह भारत का पहला बोर्ड था, जिसने शुरुआत से ही परीक्षा की ‘10+2 व्यवस्था’ अपनाई। बोर्ड के अनुसार 10 साल की औपचारिक शिक्षा के बाद विद्यार्थी को 10वीं की परीक्षा देनी होगी जो ‘हाइस्कूल’ कहलाएगी, और दो साल बाद 10+2 यानि ‘इंटरमीडिएट’ की परीक्षा देनी होगी।

1923 के पहले ये दोनों परीक्षाएं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के निर्देशन में हुआ करती थी। वर्तमान में बोर्ड परीक्षा में शामिल होने वाले परीक्षार्थियों की संख्या के लिहाज़ से यह दुनिया का सबसे बड़ा शैक्षणिक मंच है।

लगातार बढ़ते हुए कार्यभार को देखते हुए इसे केंद्रीकृत तरीके से इलाहाबाद से संचालित करना कठिन होता जा रहा था इसलिए साल 1973, 1978, 1981 और 1987 में क्रमशः मेरठ, बनारस, बरेली और इलाहाबाद में भी क्षेत्रीय कार्यालय खोले गए। इस तरह प्रशासनिक कार्यभार का विकेंद्रीकरण किया गया।

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