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रेलवे के सेकेंड क्लास में सफ़र करने वाले थर्ड क्लास लोगों की ‘प्रभु’ भी नहीं सुनते

ये सफर है रेलवे के सेकंड क्लास डब्बे का, जहां गरीबी और उसके साथ जकड़ी मजबूरियां खुल कर तांडव करती है। ये कहानी है उन यात्रियों की जो स्लीपर और रेलवे के वातानुकूलित डब्बे के शीशे में से झांक कर उसमें सफर करने का सपना संजोते हैं। ये कहानी है आर्थिक असमानता की, ये कहानी है भेदभाव की और ये कहानी है मजबूरियों की।

आदरणीय सुरेश प्रभु जी,

मुझे पता है कि आपको भेजे गए पत्रों का क्या हश्र होता है और मुझे ये भी पता है कि कैसे आप अभूतपूर्व तरीके से ट्विटर और सोशल मीडिया पर झटपट लोगों की समस्याओं का निपटारा करते है। लेकिन ये समस्या है ऐसे तबके की जो ट्विटर के विज्ञान और फॉलो अनफॉलो की तिकड़म से कोसों दूर गरीबी और असमानता से लड़ते हुए जीवन जी रहे हैं। ऐसे में उनकी समस्याओं को ट्विटर पर ज़ाहिर करना उनका मज़ाक उड़ाना होगा, इसलिए मैं आपको ये खुला पत्र लिख रहा हूं।

कुछ दिनों पहले मैं दिल्ली से बिहार जा रही ट्रेन में सफर कर रहा था, जल्दबाजी में मैं ट्रेन के जिस डिब्बे में घुसा, उसमें भरी खचाखच भीड़ और बाथरूम के दरवाजे तक बैठे लोगों को देखकर मुझे ये समझ आ गया कि मैं ट्रेन के सेकेंड क्लास डब्बे में सफर कर रहा हूं। इस डिब्बे में भीड़ ऐसी भयंकर कि आप अपनी गर्दन घुमाने भर के लिए सोचेंगे। एक बार अदंर घुसे तो बाहर निकलने के लिए भी आपको जद्दोजहद करनी पड़ेगी। भीड़ और भीड़ में रोते छोटे बच्चे, मोबाइल पर ऊंची आवाज पर चल रहे गाने और जगह के लिए होती लड़ाईयां सफर को आनंददायक बनाने की बजाय उसे सजा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे।

इन दृश्यों को देख जब मैंने थोड़ा सोचा तो मुझे ये अनुभूति हुई कि गरीबी और आर्थिक अक्षमता ही दो कारण थे, जिसकी वजह से वो यात्री सफर में भी अपनी गरीबी के कारण यातनाएं सहने पर मजबूर हैं। मैं सुरेश प्रभु जी द्वारा सफर को आंनदमय बनाने की दिशा में किये जा रहे कामों की सराहना करता हूं। हाल ही में चली तेजस एक्सप्रेस इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, 1 जुलाई से वेटिंग लिस्ट टिकट को ख़त्मकर रेलवे, स्लीपर क्लास के सफर को आरामदायक बनाने जा रही है। लेकिन आपके किए गए कार्यों से और आपके निर्णयों में मुझे सामाजिक भेदभाव नज़र आता है।

आपने एसी, स्लीपर के सफर को आरामदायक बनाने में महत्वपूर्ण कदम लिये हैं, पर आप उस तबके को भूल गए जो अपनी आर्थिक अक्षमता के कारण भेद बकरियों की तरह सफर करने को मजबूर हैं। उड़ान: उड़े देश का आम नागरिक मुहीम के तहत आपका हर नागरिक के हवाई उड़ान का सपना पूरा करने का अवसर उपलब्ध कराने का उद्देश्य तारीफ के काबिल तो है। लेकिन शायद ये उस तबके के मुंह पर तमाचा है जो 100 रूपये की कमी के कारण इस भयावह डिब्बे में सफर करता है। जहां इंसान और कूड़े के ढेर मे कोई फर्क नहीं रह जाता, ऐसे तबके के लिए स्लीपर कलास में सफर करना ही हवाई यात्रा के समान है।

गोपाल बिहार के जोगबनी जिले के रहने वाले हैं और दिल्ली की शकूरपूर बस्ती में रिक्शा चलाते हैं। उनसे बात करने पर इस स्थिति की सारी अकंगणित, अर्थशास्त्र समझ आ जाती है। गोपाल दिल्ली में हर महीने 6000 रूपये तक कमा लेते हैं, 2000 किराया और 2000 खाने का खर्च निकालने के बाद हर महीने 1500 रूपये घर भेजते हैं। इस महीने गांव में शादी होने के कारण उन्हें गांव जाना है। स्लीपर डब्बे में दिल्ली से जोगबनी का किराया 625 रूपये है जो कि गोपाल बचे 500 रूपयों से नहीं चुका सकते इसलिए 331 रूपये में सेकंड क्लास डब्बे की टिकट ही एक मात्र चारा बचता है। लगभग 1400 किलोमीटर और 25 घंटे के इस सफर में गोपाल को 25000 बार दर्द से कराहना होगा और लाखों बार अपनी गरीबी को भी कोसना होगा और अपनी गरीबी के कारण इस सजानुमा सफर को काटना होगा।

प्रभु जी इस लोकहितकारी राज्य जहां आर्थिक दृष्टिकोण से किसी के साथ हो रहे भेदभाव को अनुचित बताया जाता है, वहीं दूसरी ओर उन्हें उनकी आर्थिक कमजोरी के चलते जानवरों जैसा सफर करने पर मजबूर किया जा रहा है। इस सेकंड क्लास में सफर कर रहे लोगों को थर्ड क्लास मानकर उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। सुरेश प्रभु जी अब समय आ गया है कि एसी, हवाई यात्रा, बूलेट ट्रेन आदि से थोड़ा ध्यान हटाकर इस तबके को भी इंसानी सफर मुहैया करवाने की दिशा में भी कोई पॉलिसी लाई जाए।

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