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ये कैसा राष्ट्रवाद है जो सांप्रदायिक सौहार्द को ही ख़त्म कर रहा है?

ईद की खरीदारी कर लौट रहे जुनैद की हत्या ने एक बार फिर से हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या धर्म इंसानियत से बड़ा है? इसमें कोई दो राय नहीं है कि विगत वर्षों में कुछ ऐसा माहौल तैयार हुआ है जिसने लोगों के बीच एक खाई बना दी है। कुछ लोगों लिए ये एक सामान्य घटना हो सकती है पर देश के वर्तमान हालातों में इन घटनाओं का सामाजिक सौहार्द और देश पर एक व्यापक असर हो सकता है। आज राष्ट्रवाद के नाम पर हो रही हिंसा के आए दिन कई मामले सामने आते रहते हैं लेकिन इन पर गंभीरता से विचार नहीं किया जाता।

राष्ट्रवाद का मूल उद्देश्य है राष्ट्र को एकजुट करना। देश को सशक्त बनाने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है जिसे नकारा नहीं जा सकता पर आज इसके मायने बदलते जा रहे हैं। चाहे वो राष्ट्रगान का मुद्दा हो या बीफ बैन का, देश में ही लोग कई खेमों में बंट रहे हैं जिसके ऐसे कई उदाहरण हैं। सवाल ये है कि क्या ये मुद्दे राष्ट्रवाद से जुड़े हैं? ज़ाहिर है बिलकुल भी नहीं। इन सभी विवादों का हल है विविधता में एकता, और यह एकता ही राष्ट्रवाद का परिचायक होना चाहिए न कि वो बातें जो हमें आपस में तोड़े।

हमारा देश अभी बड़े नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है। जहां कश्मीर में हमारी सेना को शांति बहाल करने में खासी मशक्कत करनी पड़ रही है वहीं आये दिन सांप्रदायिक मतभेद उभर कर सामने आ रहे हैं। ऐसे में एक सच्चा राष्ट्रवाद वही है जो हमें आपस में जोड़े। गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों में कई ऐसे मौके आये जिन्होनें धार्मिक असंतोष को जन्म दिया। जैसे अनुच्छेद 370 या बीफ बैन जैसे कई मुद्दा। ये सभी राजनीति से जन्मे विवाद हैं जिन पर चर्चा एक अलग विषय है। ज़ाहिर सी बात है कि धार्मिक मामलों में छेड़छाड़ किसी भी धर्म से जुड़े लोगों में असंतोष तो पैदा करती ही है। 1857 के विद्रोह में भी चर्बी वाले कारतूस और विदेश यात्रा को पाप मानने वाले मुद्दे थे। अंतर बस इतना है कि तब उन घटनाओं ने राष्ट्रहित में लोगों को जोड़ने का काम किया और यही मुद्दे आज हमें तोड़ने का काम कर रहे हैं।

अब प्रश्न ये है कि क्या ये मुद्दे प्रासंगिक हैं? कुछ मुद्दे तो वाकई प्रसांगिक हैं। मसलन ज़बानी तीन तलाक का मुद्दा जो कहीं ना कहीं महिला अधिकार से जुड़ा एक पक्ष रखता है, जिसे चरणबद्ध तरीके से और आम सहमति से हल करने की ज़रुरत है। अन्य मुद्दे जैसे बीफ बैन या राम मंदिर, ये सिर्फ धर्म से जुड़े मुद्दे है न कि किसी मानवाधिकार से जुड़े प्रश्न। पर इस देश की विडम्बना यही है कि यहां चुनाव, धार्मिक और जातीय तुष्टिकरण के आधार पर लड़े जाते हैं, जिसके प्रमाण चुनावी घोषणा पत्रों में दिख जाएंगे।

हमें ये समझना होगा कि ऐसे उन्माद से हम आपस में एक दरार पैदा कर रहे हैं। इसी का फायदा उठाकर पड़ोसी देश और कुछ आंतकवादी संगठन हमारे देश के लोगों को देश विरोधी कार्यों में इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे में हमें ये तय करना है कि कैसे सांप्रदायिक असंतोष को कम किया जाए ताकि एक वास्तविक राष्ट्रवाद की भावना पैदा की जा सके जिसका इस्तेमाल देश की उन्नती में हो।

एक बात महत्वपूर्ण ये भी है कि विगत वर्षों में मीडिया भी कई खेमो में बंटा है, जैसे कुछ लोगों ने राष्ट्रवाद के मुद्दे को काफी तवज्जो दी। स्पष्ट है कि आज मीडिया अपने वास्तविक पक्ष से हट कर काम कर रहा है। गंभीर और वास्तविक मुद्दों को छोड़कर मीडिया अन्य खबरों का ज़्यादा महत्व देने लगा है। वहीं सोशल मीडिया के भी कई गैरप्रासंगिक पक्ष उबर कर सामने आये हैं।

बहरहाल संकट जितना जटिल है समाधान भी उतना ही जटिल होगा। देश जिस संकट की घड़ी से गुज़र रहा है उसका एकमात्र उपाय है सामाजिक समरसता को बनाना। इसके लिए ज़रुरी है कि हम धर्म आधारित राजनीति से दूर रहें और उन मसलों पर जो धर्म से जुड़ें हैं उन्हें ज़्यादा तव्वजो ना दें।

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