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जिस जगह से सभ्य भारत नाक बंदकर गुज़रता है वहां बसती है कुछ जनजातियां

nomadic rabari tribe of rajasthaan
राजस्थान की रबाड़ी जनजाति के लोग। फोटो आभार: flickr

उस दिन दिल्ली के महाराणा प्रताप अन्तरराज्यीय (आइ.एस.बी.टी. कश्मीरी गेट) बस अड्डे से हरिद्वार के लिए उत्तराखंड परिवहन निगम के बस ली, गर्मी कुछ खास नहीं थी तो सामान्य बस में ही बैठा था। वैसे किराया भी कम लगता है और छात्र जीवन में आदत है सामान्य बस में खिड़की के पास की सीट लेने की। दिल्ली के ट्रैफिक से बाहर निकलते ही बस गाज़ियाबाद और मोदीनगर के पास पहुंची ही थी कि हल्की-हल्की बारिश होने लगी, बड़ा मज़ा आ रहा था।

शहर खत्म होते ही कूड़े के ढेरों के पास कुछ अर्धनग्न बच्चे बारिश के बूंदों के साथ मस्ती कर रहे थे। उन्हीं कूड़े के ढेरों के बीच में कुछ तम्बू दिख रही थी जिन पर कुछ लोग प्लास्टिक (तिरपाल) डाल रहे थे शायद वो उनका घर था, मुश्किल से 3-4 तम्बू रहे होंगे वहां पर। इस तरह के नज़ारे तकरीबन हर शहर के बाहर दिखे। मेरठ, मुज़फ्फरनगर, खतौली, रूड़की और हरिद्वार तक ऐसा ही देखने को मिला। कहीं ये तम्बू कूड़े के ढेरों पर थे तो कहीं खुले मैदानों में तो कही सड़कों के किनारों पर। ये लोग घुमंतू (खानाबदोश) थे!  तीसरी-चौथी कक्षा की हिंदी की किताब में पहली बार ये शब्द पढ़ा था।

ये लोग तकरीबन सभी शहरों की सीमाओं पर 3-4 के समूह में तम्बू लगाये हुए, पत्थरों पर शिल्पकारी करते हुए, गर्म लोहे पर हथौड़ा बरसाते हुए या फिर किसी भीड़ में खुद के शरीर पर कोड़े बरसाते हुए दिख जाएंगे। अमूमन इनके बच्चे अर्धनग्न ही दिखते हैं, किसी भी नुक्कड़, चौराहे पर हमसे बिना कुछ बोले खाने के पैसे मांगते  हुए। इनके लिए सारे मौसम एक से होते हैं, सारे त्यौहार सामान्य दिनों की तरह। न ईद, न होली फिर भी ये हंसते-मुस्कुराते हुए दिखते हैं, पता नहीं कैसे? जीडीपी-जीडीपी के खेलों में ये कहीं खो से गए हैं क्योंकि खानाबदोश जनजातियों के लिए हमारे विकास में कोई जगह नहीं है।

गुज्जर जनजाति का एक परिवार। फोटो आभार: flickr

भारत में शहरीकरण के बीच इन्हें शहर की वो जगह नसीब हुई जहां हम अपनी नाक बंद कर लेते हैं, जहां पर हमारा कूड़ा-कचरा फेंका जाता है। क्या इन्हें डेंगू या मलेरिया जैसी बीमारी नहीं होती है? स्वच्छ भारत अभियान क्या इनके लिए नहीं है? क्या लोकतंत्र में इनकी भागीदारी नहीं है? मैंने सालों से इनके बीच किसी नेता को आते नहीं देखा, इनके साथ सेल्फी लेते हुए या फिर इनके आसपास सफाई अभियान का प्रचार करते हुए कोई नहीं दिखता। शायद ये वोट-बैंक नहीं हैं। इनके स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार जैसी बुनयादी चीज़ों पर संसद में भी बहस होते नहीं सुनी। इनमें लगभग सभी अनपढ़ होते हैं, इनके बच्चों का मौलिक अधिकार भी इन्हें नहीं मिलता है। इनके पास न ही दिल्ली का कथित राष्ट्रीय मीडिया पहुंचता है और न ही हमारी सरकार की योजनाएं।

घुमंतू (खानाबदोश) जनजातियां

भारत में बंजारा, नट, गाड़िया, कालबेलिया (सपेरा), कुचबंदा, कलंदर, बहुरूपिये, गुज्जर, रबाड़ी आदि बहुत सी घुमंतू जनजातियां है। कुछ जगहों पर लोग सभी को पहाड़ी भी बुलाते हैं। ये मुख्य रूप से मनोरंजन, लोहे का सामान बनाना, मवेशी पालना, मिट्टी के खिलौने और मूर्तियां बनाना, सांपों का खेल दिखाना और जादू और भालू का खेल दिखाने जैसे पेशों से जीवन-यापन करते हैं।

विकाशसील भारत में इसकी जगह

बढ़ते उद्योगों और कारखानों ने इनके परंपरागत कामों को खत्म कर दिया है, मनोरंजन की जगह इन्टरनेट और टीवी ले चुका है। लेकिन इनमें से कई जनजातियां जीवन-यापन के लिए उन्हीं पारम्परिक कामों पर निर्भर हैं। लेकिन कम आमदनी और बेरोज़गारी के कारण कुछ जातियों के लोग अपराधिक गतिविधियों में शामिल हो गए और  बीते कुछ सालों में अपराधों के साथ इनका नाम भी खूब जोड़ा गया। जिस कारण हमारे मुख्यधारा के समाज ने पहले से मौजूद इन जनजातियों से और दूरियां बढ़ा ली है। हम इनसे घृणा करने लगे हैं।

इनमें से कई जनजातियां अब कस्बों और गांवों से सिमटकर शहरों के कूड़े के ढेर तक सिमट गयी हैं। वन अधिनियम और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के बाद इनमें से कई जनजातियां बेरोज़गार हो गई। इन पर ना तो सरकार की नज़र गई ना ही समाज की, इनकी हालत अवांछित कूड़े की ढेर जैसी हो चुकी है।

केंद्र सरकार ने साल 2005 में रेन्के आयोग का गठन किया था, इस आयोग ने 2008 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपते हुए कुल 76 सुझाव दिये थे। लेकिन इन सुझावों और इस रिपोर्ट पर आगे कोई कार्रवाही नहीं हुई और शायद होगी भी नहीं। ये अपनी ऐसी ही ज़िंदगी जीने के लिए विवश रहेंगे!! ‌

हमें याद रखना चाहिए कि भारत में इनकी भी एक पहचान है, इनका भी योगदान है। जब सबके मौलिक अधिकारों की बात कर रहे हैं तो इनके मौलिक अधिकारों की भी बात कर लीजये! कभी सड़कों के किनारे गाड़ी रोककर देखिएगा इन अर्धनग्न बच्चों को गंदी पानी पीते और सर्द रातो में ठिठुरते हुए।

शायर असराल-उल-हक़ मजाज़ ने क्या खूब कहा है-

“बस्ती से थोड़ी दूर, चट्टानों के दरमियां, ठहरा हुआ है ख़ानाबदोशों का कारवां
उनकी कहीं ज़मीन, न उनका कहीं मकां, फिरते हैं यूं ही शामों-सहर ज़ेरे आसमां”

रात 2 बजे का समय था और अब आंखें जवाब देने लगी थी उन बच्चों का सोचकर, जो अर्धनग्न कूड़े के ढेर पर अपनी जिंदगी तलाश रहे हैं। अपने वर्तमान पर मुस्कुराते हुए ये बच्चे शायद हमारी तरह किसी प्राइवेट नहीं तो कमसकम सरकारी स्कूल में ही जा पाएं अपनी नई पहचान बनाने के लिए!

फोटो आभार: getty images 

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