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क्यूं मेरे लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार को भुला पाना मुमकिन नहीं है

अप्रैल, 1986-  गर्मियों की छुट्टियों में पंजाब जाने का एक अलग ही आनंद था। मेरे लिए पंजाब का मतलब था मेरा गांव, हमारे खेत और हमारा बड़ा सा घर। मेरे लिये पंजाब का मतलब बस यही था, लेकिन घर में कुछ और ही बातें चल रही थी। मुझे मेरी मां ने बताया कि हम हमेशा के लिये पंजाब जा रहे हैं, इससे ज़्यादा वो कुछ नहीं बोली। पिता जी भी गुमसुम थे, लेकिन मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था।

बहुत सारा सामान होने के कारण हम ट्रेन से नहीं जा रहे थे और इसी सिलसिले में एक रिश्तेदार के ट्रक हमारे शहर आया हुआ था। सफर की शुरुआत रात को हुई और ट्रक में ही सामान के साथ हमें सुला दिया गया। ट्रक के साथ-साथ आसमान के तारे भी हमारे साथ चल रहे थे, ट्रेन के 24 घंटे का सफर सड़क से हमने 3 दिनों में पूरा किया, सफ़र काफी थकाने वाला था लेकिन गांव पहुंचने पर मानो सारी थकान उतर गयी। घर में दादी ने बाहें फैलाकर हमारा स्वागत किया और कुछ दिन यूं ही हंसते-हंसते निकल गये। कुछ दिनों बाद पिता जी शहर वापस लौट गए।

मेरा दाखिला गांव के सरकारी स्कूल में करवा दिया गया, लेकिन स्कूल की हालत बहुत खराब थी। कुछ ही दिनों में मुझे समझ आ गया कि वो स्कूल, स्कूल ना होकर बस एक इमारत थी। ना टीचरों को पढ़ाने में कोई दिलचस्पी थी और ना बच्चों को पढ़ने में। पढ़ाई का ये स्तर था कि मेरे सहपाठियों को ठीक से लिखना भी नहीं आता था।

उस समय पंजाब में शाम होते-होते सड़कें सुनसान हो जाया करती थी। 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद हुए सिख विरोधी दंगों के चलते भय का माहौल चारों और मौजूद था। ड़र का ये माहौल ऐसा था कि मरीज को अस्पताल ले जाने के लिये भी सुबह का इंतजार करना पड़ता था। आम सड़कों पर भी जहां किसी कस्बे की आबादी एक या दो हज़ार थी, वहां भी सेना मौजूद थी। अक्सर सड़क पर चलते हुये सेना या सी.आर.पी.एफ. की गाड़ियों का काफिला मिल ही जाता था।

आंतकवादियों की पहचान उनकी पगड़ी के रंग से की जाती थी। गहरे नीले, केसरिया या काले रंग की पगड़ी बार-बार पहनने से आप मुखबिरों की नज़रों से होते हुए पुलिस की हिटलिस्ट में आ सकते थे। वैसे भी उन दिनों अखबारों की सुर्खियों में एनकाउंटर छाए रहते थे। इनके पक्ष में एक ही बात कही जाती थी कि चरमपंथी ने पहले गोली चलाई और जवाबी पुलिस फायरिंग में सभी चरमपंथी मारे गए।

पंजाब में उस समय राष्ट्रपति शासन और आर्मी का AFSPA कानून लगा हुआ था, जहां किसी भी सवाल-जवाब की गुंजाइश नहीं थी। इसी तरह से एक साल निकल गया। गांव का स्कूल पांचवी तक ही था और मेरी आगे की पढ़ाई के लिए मां ने पिता जी के साथ विद्रोह कर दिया। नतीजन हम वापस शहर आ गए, मेरे लिए वापस पढ़ाई में निपुण होना बहुत मुश्किल था लेकिन मैं कामयाब रहा। पर मेरे भाई की कभी भी पढ़ाई मैं रूचि नहीं रही, वह दसवीं के बाद आगे नहीं पढ़ा।

आज जब मां से पूछता हूं कि हम गांव क्यों गये थे, तो वह ब्लू स्टार और उसके बाद के सिख दंगों को कारण बताती हैं। ब्लू स्टार एक ऐसी घटना थी जिसका खामियाज़ा पूरे सिख समाज को भुगतना पड़ा। इस घटना और इसके बाद के 10 सालों ने सिख समुदाय की एक पूरी पीढ़ी को समय की रफ्तार से कोसों दूर पीछे धकेल दिया।

लेकिन विडम्बना ये है कि ब्लू स्टार को देश की सुरक्षा के साथ इस तरह जोड़ दिया गया कि हमें इस पर अपनी राय रखने का भी हक नहीं रहा। आज भी पंजाब के नौजवान सेना से जुड़ने का ख़्वाब देखते हैं। सिख समुदाय में सेना का सम्मान हमेशा से सर्वोपरि रहा है और रहेगा, एक आम सिख अपने देश से उतना ही प्रेम करता है जितना कि कि कोई और भारतीय नागरिक। लेकिन हमें इस सवाल का जवाब तो मिलना ही चाहिये कि क्या ब्लू स्टार जरूरी था? क्या इसका और कोई विकल्प नहीं था?

पता नही मेरी तरह कितने हरबंस ना जाने कितने शहरों से पंजाब लौटे होंगे उनकी कहानी भी शायद मेरी तरह ही रही होगी। यूं तो इस घटना को अब 30 साल से भी ज़्यादा हो चुके हैं और लोग कहते हैं कि सब सामान्य हो गया है भूल जाओ। लेकिन ऐसी दरारें कभी भरती नहीं है, एक छोटी सी आह, एक छोटी सी आवाज़ अक्सर इसके ज़ख्म को हरा कर देती है। जिस तरह से आज भारत को एक कट्टर हिंदू देश बनाने की कोशिश की जा रही है, मैं इससे चिंतित भी हूं और भयभीत भी, क्यूंकि अब मुझमे एक और 1984 या 2002 देखने की हिम्मत नहीं है।

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