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अंग्रेज़ों भारत छोड़ो से मंदिर वहीं बनाएंगे तक, बदलते नारों के साथ बदला भारत

मंच से जनता की भीड़ और मुद्दों के शोर में नेताओं के नारे ही तो हैं जो उनकी छवि हमारे ज़हन में गढ़ देते हैं। कई नारे ऐतिहासिक बन जाते हैं और कई जी का जंजाल। कई नारों से हकीकत में हमारा देश बदला है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा, स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और अंग्रेज़ों भारत छोड़ो का नारा हर दौर में क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों को बल देने का काम करता रहा।

1947 के बाद आराम हराम है का नारा दिया गया जो एक नये भारत की भूमिका बनाने में मददगार साबित हुआ। 1965 के समय लाल बहादुर शास्त्री ने जय किसान जय जवान का नारा दिया, ये नारा इतना मज़बूत था कि इस समय भारत और पाकिस्तान के दरम्यान हुये युद्ध में इसी नारे की बदौलत पूरा भारत एक माला में पिरोये हुये मनकों की तरह शास्त्री जी के साथ खड़ा रहा। इस नारे की राजनीतिक ईमानदारी ही है कि आज भी मेरे गाँव में ट्रेक्टर-ट्रॉली के पीछे जय जवान-जय किसान लिखाया जाता है।

भारत जब सकारात्मकता के लिए नए मौके तलाश रहा था तभी एक नारा और आया गरीबी हटाओ, जो कहीं ना कहीं गरीबी को ज़हन से दूर करने में तो कामयाब रहा।

इस तरह के राजनीतिक नारों की एक विशेषता ये थी कि पूरा भारत बिना किसी संदेह या सवाल के इन नारों में मौजूद था। ये नारे लगभग हर भारतीय के लिए एक उम्मीद थें। भारत लगातार नए रास्ते तलाश कर उभर रहा था। 1971 में भारत विश्व के नक्शे पर एक नये देश के रूप में उभरा।

अब धीरे-धीरे भारत ताकत के साथ-साथ अमीर भी हो रहा था, यहां नारों की शक्ल भी बदल रही थी वहीं भारत किसका है इस सवाल ने भी जन्म ले लिया था। जहां समाज का एक तबका अपना मालिकाना हक इस पर जता रहा था वहीं समाज का दूसरा, तीसरा, चौथा तबका अपने आपको ठगा हुआ महसूस कर रहा था। उसका तर्क था कि जब भारत निर्माण में हमने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया फिर इस नए भारत में हमें पराया क्यों किया जा रहा है?

इमरजेंसी के बाद 1977 के चुनाव के समय भारतीय जनसंघ और बाकी की क्षेत्रीय पार्टियों ने मिलकर जनता पार्टी की नींव रखी। इस गठजोड़ ने काँग्रेस को परास्त भी किया। 3 साल के भीतर ही आपसी कलह के चलते 1980 में जन संघ ने जनता पार्टी से अलग होकर, एक नई राजनीतिक पार्टी, भारतीय जनता पार्टी का निर्माण किया। कहने की ज़रूरत नहीं है कि इस पार्टी को राष्ट्रीय जन संघ का पूरा समर्थन था। ऐसा कहें कि भाजपा, आरएसएस का ही चुनावी विंग था तो भी गलत नहीं होगा।

1984 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के दो सांसद ही लोकसभा तक अपनी पहुंच बना सके थे लेकिन काँग्रेस में इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी उस राजनीति में परिपक्व नहीं थे जिसके लिये इंदिरा गांधी जानी जाती थी। श्रीमती गांधी ने अपने समय काल में ना कांग्रेस के भीतर और ना बाहर किसी नेता को उभरने का मौका दिया था, लेकिन राजीव गांधी के समय काल में 1984 के सिख विरोधी दंगे, भोपाल गैस कांड, बोफोर्स, इत्यादि मुद्दों से जहां काँग्रेस सरकार अक्सर घिरी रहती थी। इस समय काल में भाजपा ने उभरने का मौका तलाश ही लिया और मुद्दा बना बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि। यहां भी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं का नारा जैसे जय श्री राम, राम लल्ला हम आएंगे,मंदिर वही बनाएंगे दिया गया।

लेकिन ये वो नारे थे जो आज़ाद भारत में पहली बार देश को दो हिस्सों में बाट रहे थे। पहली बार एक समुदाय इसे हर्ष उल्लास के साथ बोल भी रहा था और अपनी मुठ्ठी को बंद करके, इसे हवा में लहराकर अपनी ताकत का प्रदर्शन भी कर रहा था। वही मुस्लिम समुदाय इस नारे के भय से परिचित हो रहा था।

इस नारे का असर भी हुआ, समाज का बहुसख्यंक वर्ग भाजपा को पसंद कर रहा था और 1989 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने वी.पी. सिंह की सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाई। वहीं सत्ता के इस सुनहरी दौर में लालकृष्ण आडवाणी का रथ गुजरात के सोमनाथ से भारत दर्शन के लिये रवाना हुआ, नारा यही था, मंदिर वही बनेगा। देश में धर्म की राजनीति का सफर शुरू हो चुका था।

1992 की 6 दिसंबर को अयोध्या में बाबरी मस्जिद को जबरन कार्यसेवकों ने ढाह दिया, अभी तक ये मुद्दा अदालत में है। आज आडवाणी जी हाशिये पर चले गये हैं। वहीं एक ज़माने में आडवाणी के शिष्य रहे नरेंद्र मोदी इन्हीं नारों के उद्घोष से गुजरात में एक दशक से ज़्यादा सत्ता में रहे और। 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी का नारा बदला सबका साथ, सबका विकास नारे ने मोदी को दिल्ली की सत्ता भी दिला दी।

1980 के समय काल से जिस नफरत के बीज को हमारे समाज की बुनियादी जड़ में डाला गया था वह वृक्ष भी फलों से भरपूर, अपने यौवन पर है। आज धर्म की राजनीति का बोल बाला है। व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया पर नफरत की राजनीति का हो रहा फैलाव, समाज की बिखरती नैतिकता, भाईचारे के सौंदर्य और ईमानदारी को ताड़-ताड़ कर रहा है। इसी 40 सालों में भारत देश भी बहुत फला-फूला है। अब यह सवाल अक्सर हमारे सामने, खासकर अल्पसंख्यक वर्ग से किया जाता है कि यह देश किसका है? क्योंकि बहुसंख्यक समाज के देश पर मालिकाना हक को कोई चुनौती नहीं दे सकता।

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