1986 में मेरा दाखिला गांव के स्कूल की पांचवी कक्षा में करवा दिया गया, कुछ ही दिनों में शहर और गांव के स्कूल का फर्क भी पता चल गया था। मसलन शहर के स्कूल में बेंच थे और यहां ज़मीन पर खुद का बिछोना बिछाकर बैठना पड़ता था। स्कूल के हैंडपंप को एक हाथ से चलाना और दूसरे से पानी पीना और शौचालय के नाम पर दीवार के साथ खड़े हो जाना। धीरे-धीरे इन सब की आदत सी पड़ गयी थी। गांव के इस सरकारी स्कूल में टीचर तो थे, लेकिन कोई पढ़ाई नहीं थी। विद्यालय से विद्या ही नामौजूद थी, यकीनन ये स्कूल से ज्यादा बस एक ईमारत थी।
एक महिला टीचर बगल के गांव से आती थी, दो तीन हमारे ही गांव से थी। एक पुरुष टीचर जो की पीटी टीचर थे बगल के गांव से आते थे और हमारे गणित के टीचर जो प्रिंसिपल भी थे करीब 20 कि.मी. दूर एक कस्बे बधनीकला से आते थे। स्कूल में इनकी महफ़िल जमती थी, महिला टीचर अलग और पुरुष टीचर अलग। ऐसा भी नहीं था कि स्कूल में बिल्कुल भी पढ़ाई नहीं होती थी, थोड़ा पढ़ाया भी जाता था।
हमारे गांव में सभी के घरों में भैंसे थी और इसका पूरा फायदा हमारे पुरुष टीचर उठाते थे, खासकर जो बगल के गांव से आते थे। उनका कोई भी मित्र आ जाये, तो चाय बनाने के लिये दूध हमारे ही घरों से मंगवाया जाता था। एक बार उनके मित्र जो खुद बगल के गांव में टीचर थे, हमारे स्कूल में आए लेकिन इस बार उनकी फरमाइश कुछ अलग थी जो थी देसी मुर्गे की। हमारे पुरुष टीचर ने दो-तीन लड़कों को पूरे गांव में चक्कर लगवा दिया, पर उस दिन कही भी कोई मुर्गा नही मिला। भला कौन सस्ते में अपने मुर्गे को मरवा देता, लेकिन ऐसी फरमाईशों का दौर चलता ही रहता था। स्कूल ना होकर ये टीचरों के लिये दूध मार्किट, चिकन मार्किट सब था।
ऐसी ही एक फरमाइश मुझसे भी की गयी। प्रिंसिपल सर ने मुझे अपने पास बुलाकर कहा कि, “शहर में छतरी बहुत अच्छी मिलती है, वो जो बटन दबाने से खुलती है। वह क्या है छोटी छतरी मेरे बैग मैं भी आ जाएगी, बड़ी छतरी को उठा कर चलना मुश्किल सा लगता है, तुम अपने पिता जी को कहकर एक छतरी मंगवा दो।” उन्हे इतना यकीन था कि मैं ना नही बोलूंगा इसलिये आर्डर दिया था। मैंने घर पर बात की, माँ ने कहा कि “मंगवा देंगे, अगर नहीं मंगवाई तो कहीं तुम्हे वह फ़ैल ना कर दे!”
कुछ दिनों बाद छतरी आ गयी, सर जी मेंरे साथ ही हमारे घर में आए। छतरी रखकर कहने लगे “वैसे दाम बता देते, लेकिन अगर निशानी के तौर पर देना चाहते हो तो ज़्यादा अच्छा होगा।” गणित के टीचर जल्दी से हिसाब किताब लगा लेते है और 100 रुपये को 0 कैसे करना है उन्हें पता था। फेल होने के डर से घरवालो ने सर जी को छतरी बतौर निशानी दे दी। अब छतरी की चर्चा स्कूल भर में छिड़ गयी थी। एक टीचर जो मेरी क्लास में नहीं पढ़ाती थी, उन्होंने तक मूझे छतरी का ताना मारा। अब छतरी देने के बाद से अचानक मेरे गणित के सवाल सही होने लग गए थे।
लेकिन हमारे गणित के टीचर एक छतरी से संतुष्ट नही थे और उन्होंने एक और छतरी मंगवाने का अॉर्डर दे दिया। लेकिन इस बार घरवाले कोई समझौता नही करना चाहते थे। तब 100 रुपये की कीमत बहुत ज़्यादा थी, घर से संदेशा दिया गया कि पिता जी का तबादला शहर से कहीं और हो गया है, लेकिन सर जी कहा मानने वालों में से थे। अब मेरे गणित के सवाल गलत होने शुरू हो गए जो की लगातार एक हफ्ते तक गलत ही होते रहे। शायद ये छतरी के लिये हां करवाने का एक बहाना था, लेकिन बात बनते ना देख एक दिन सर जी ने मुझे चांटा भी लगा दिया। अब घरवाले भी परेशान कि कहीं मुझे फेल ना कर दिया जाए लेकिन मेरी माँ नही मानी। अब तक गणित के टीचर को भी ये समझ आ गया था कि कहीं नई छतरी के प्रलोभन में पुरानी भी हाथ से ना चली जाए और फिर वापस मेरे गणित के सवाल ठीक होने शुरू हो गये।
परीक्षा में हम सबसे 5-5 रुपये लिए गये और परीक्षा रूम में ही संचालक बोर्ड पर सवालों के जवाब लिखकर हमें नकल करवा देता था। मेरे गांव में स्कूल की उस इमारत का रंग रोगन करवा दिया गया है, कक्षा भी पांच से ज्यादा बढ़ा दी गयी है लेकिन विद्या आज भी उस स्कूल से गायब है। आज भी चाय के लिये दूध विधार्थियो के घर से ही मंगवाया जाता है, कुछ परिवर्तन नही आया है हां सरकारी कागजों में परिवर्तन ज़रूर दिखाई दे जाता है।
वैसे शहर के स्कूलों में भी ट्यूशन के नाम पर अक्सर गणित के सवाल गलत कर दिये जाते हैं। मुझे दसवीं क्लास में और मेरे भाई को तीसरी क्लास में बुरी तरह से पीटा गया था, कारण ये कि हमने ट्यूशन टीचर से नही लगवाए थे। आज भी ये बदस्तूर जारी है। अब जब शिक्षा ही भ्रष्टाचार को जन्म दे रही है तो व्यवस्था में नैतिकता की आशा कैसे कर सकते है। शिक्षा किसी भी समाज की रचना का काम करती है पर जब इसकी ही बोली लगा दी जाए तो कौन ऐसा होगा जिसकी कीमत नही लगेगी या जिसकी बोली नही लगाई जायेगी?
फोटो प्रतीकात्मक है।