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स्कूली बच्चों में अशिक्षा फैला रही है रमन सरकार: भूपेश बघेल

राज्य की भाजपा सरकार को किसी क्षेत्र में असफल हो जाने के बाद भी उसे प्रचार माध्यमों के द्वारा सफल बताने की कुटिल महारत हासिल है। राज्य सरकार द्वारा निरंतर यह दुष्प्रचार किया जा रहा है कि विगत 14 वर्षों में राज्य द्वारा सभी क्षेत्रों में हुई प्रगति से देश के विकसित राज्य भी चकित हैं। छत्तीसगढ़ राज्य की बदहाल शिक्षा व्यवस्था के भी कसीदे कढ़ना भाजपा के इस करतब का ज्वलंत उदाहरण है। वास्तविकता तो यह है कि रमन सरकार के लाख प्रयासों के बाद भी विगत 14 वर्षों से राज्य में शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा चुकी है। भाजपा सरकार की दोषपूर्ण नीतियों का ही यह परिणाम है कि राज्य के शासकीय स्कूलों की आम जन के बीच स्वीकार्यता समाप्त हो चुकी है। विकल्प एवं साधनों के अभाव में राज्य की गरीब जनता स्तरहीन शिक्षा ग्रहण करने को विवश है, जिससे सम्पूर्ण पीढ़ी का भविष्य अंधकारमय हो चुका है।

राज्य के सभी नागरिकों को गुणवत्तायुक्त शिक्षा नि:शुल्क उपलब्ध कराना राज्यों का संवैधानिक दायित्व है। इसके लिये प्रथम आवश्यकता स्वीकृत पदों के अनुरूप योग्य एवं प्रशिक्षित शिक्षकों की व्यवस्था करना है। विधानसभा में शासन द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार, राज्य में शिक्षकों के 2.40 लाख स्वीकृत पदों के विरुद्ध लगभग 50 हज़ार पद रिक्त हैं। प्रधान पाठक एवं प्राचार्यों के स्वीकृत पदों के लगभग 50% पद रिक्त हैं। इतनी बड़ी संख्या में महत्वपूर्ण विषयों के शिक्षकों की अनुपलब्धता से ही यह प्रामाणित हो जाता है कि सरकार शिक्षा की गुणवत्ता के प्रति ज़रा भी गंभीर नहीं है।

गुणवत्तायुक्त शिक्षा के विकास के लिये शिक्षकों को समुचित प्रशिक्षण भी अत्यावश्यक है। वर्तमान में शिक्षाकर्मियों के सहारे राज्य की समूची शिक्षण व्यवस्था संचालित की जा रही है। हायर सेकेण्ड्री शालाओं एवं महाविद्यालयों से पास होकर निकलने वाले अभ्यर्थियों को परीक्षा में उनके द्वारा प्राप्त अंकों के आधार पर नियुक्ति दी जा रही है। इन नवनियुक्त शिक्षाकर्मियों को पढ़ाने का कोई अनुभव नहीं हैं। इनके दीर्घकालीन एवं गुणवत्ता युक्त प्रशिक्षण के बिना इन्हें सीधे बच्चों को पढ़ाने भेजना बच्चों के साथ घोर अन्याय है।

दुर्भाग्य यह है कि शिक्षाकर्मियों के सहारे मात्र शिक्षा व्यवस्था संचालित करने वाली सरकार शिक्षाकर्मियों की सेवा शर्तों/पदोन्नति नियमों/स्थानीयकरण/नियमितीकरण इत्यादि महत्वपूर्ण समस्याओं का निराकरण विगत 13 वर्षों में नहीं कर पायी है। परिणाम यह है कि शिक्षाकर्मी वर्षों से स्कूलों में पढ़ाने के स्थान पर सड़कों पर हैं। इससे गरीब बच्चों के भविष्य के बारे में आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है।

शिक्षा के प्रति राज्य सरकार की गंभीरता का पता इसी बात से लगता है कि शासन को राज्य में सरकारी शालाओं की कुल संख्या के बारे में स्पष्ट जानकारी भी नहीं है। राज्य सरकार विभिन्न अवसरों पर शालाओं की कुल संख्या के बारे में भिन्न-भिन्न जानकारी दे रही है। विधानसभा में दिनांक 29 मार्च 2017 को तारांकित प्रश्न क्रमांक 3013 के उत्तर में शासन द्वारा जानकारी दी गयी कि राज्य में 30371 प्राइमरी, 13117 मिडिल, 1940 हाईस्कूल एवं 2380 हायर सेकेण्ड्री स्कूल हैं। यानी कि कुल स्कूलों की संख्या 47808 बताई गयी थी । राज्य सरकार की अपडेटेड वेबसाइट में राज्य के कुल स्कूलों की संख्या 56,166 बताई जा रही है। 10 जून 2017 को राज्य सरकार द्वारा समाचार पत्रों में जारी विज्ञापन में राज्य में 36,992 प्राइमरी स्कूल, 16692 मिडिल स्कूल, 2603 हाईस्कूल एवं 3715 हायर सेकेण्ड्री स्कूल (कुल 60008 स्कूल) बताए गये हैं। यह स्थिति अत्यंत शर्मनाक और संदेह पैदा करने वाली है। राज्य सरकार से अपेक्षा है कि इस ओर संवेदनशीलता दिखाते हुये सर्वप्रथम यह स्पष्ट करे कि राज्य में वास्तव में शासकीय स्कूल हैं कितने?

राज्य सरकार इतने वर्षों में स्कूलों की नियमित मरम्मत एवं रख-रखाव की व्यवस्था भी नहीं बना सकी है। शिक्षा विभाग, पंचायत संस्थाओं एवं नगरीय निकायों के मध्य भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि वास्तव में स्कूलों को दुरुस्त रखने कि ज़िम्मेदारी है किसकी। इसी का परिणाम है कि प्रतिवर्ष शैक्षणिक सत्र आरम्भ होते ही सभी समाचार पत्रों की सुर्खियों में ऐसी खबरें प्रकाशित होती हैं कि शालायें खुल तो गयी हैं किन्तु उनकी छतों, दीवारों, रंग-रोगन, फर्नीचर, फर्श इत्यादि की स्थिति दयनीय है। कहने को तो आठवीं तक के सभी बच्चों को निशुल्क यूनिफॉर्म तथा पाठ्य पुस्तकें उपलब्ध करायी जा रही हैं लेकिन सत्र आरम्भ होने तक यह कार्य भी अभी तक आधा-अधूरा ही है। लाखों बच्चे अभी तक यूनिफॉर्म एवं पुस्तकों से वंचित हैं। आधे-अधूरे पुराने यूनिफॉर्म, चप्पलों और जूतों के बिना अक्सर हमको हमारे बच्चे स्कूल में दिखते हैं। बालिकाओं की साइकिलों का वितरण भी नहीं हुआ है। 13 सालों में बच्चों की असल ज़रूरतों को भी पूरा कर सके, ये फर्ज़ भी इस सरकार ने नहीं निभाया।

सरकार में दृष्टि व नीति की कमी के कारण प्राइवेट स्कूलों के बच्चों के सामने हमारे सरकारी स्कूलों के बच्चे अपने को दोयम दर्ज़े का पाते हैं। ये सरकार एक नयी पौध खड़ी कर रही है जो छत्तीसगढ़ के मूल रहवासियों को अप्रतिस्पर्धी और निर्णयक्षमता विहीन बना रही है।

वर्ष 2017 में मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा राज्य की कक्षा आठवीं तक की शिक्षा व्यवस्था की समीक्षा में यह पाया गया कि राज्य के 46% स्कूलों में आवश्यक संख्या में विषय विशेषज्ञ शिक्षक नहीं हैं। आठवीं तक की कक्षाओं के लिये कुल 48506 शिक्षकों के पद रिक्त हैं। आठवीं कक्षा के भाषा, गणित एवं विज्ञान के क्रमशः 37%, 7% एवं 10% बच्चे ही 50% से अधिक अंक प्राप्त कर सके हैं। एक सर्वेक्षण बताता है कि राज्य के तीसरी कक्षा के 77% बच्चों को जोड़ना-घटाना भी नहीं आता।

अखबार में छत्तीसगढ़ के स्टूडेंट्स को लेकर छपी रिपोर्ट

पहले भी यह रिपोर्ट आ चुकी है कि पांचवी कक्षा के बच्चे, दूसरी कक्षा की किताब भी नहीं पढ़ पा रहे हैं। लगभग आधे स्कूलों में खेल मैदान एवं बाउंड्री वॉल निर्मित नहीं हो सकी है। 2012-13 की तुलना में वर्ष 2017 तक की अवधि में प्राथमिक शालाओं में बच्चों की दर्ज संख्या में 21% तथा मिडिल स्कूल स्तर तक 10% तक कमी आई है। विद्यार्थियों की दर्ज संख्या में इतनी बड़ी कमी आना सर्वाधिक चिंता का विषय है। किन्तु शासकीय शालाओं में जो अव्यवस्था का आलम है, उसमें यह स्वाभाविक ही है कि गरीब पालक भी अपने बच्चों की शिक्षा हेतु निजी स्कूलों में प्रवेश के लिए विवश हो रहे हैं। उक्त सभी अव्यवस्थाओं के कारण राज्य की जनता का राज्य के सरकारी स्कूलों पर विश्वास समाप्त हो चुका है ।

एक विश्वसनीय सूत्र के मुताबिक राज्य की शालाओं में गणित, भौतिकी, रसायन, विज्ञान, अंग्रेजी एवं वाणिज्य विषयों के शिक्षकों की उपलब्धता मात्र 23% है। राज्य सरकार का कहना है कि उसके हर संभव प्रयासों के बाद भी राज्य में इन विषयों के पोस्ट-ग्रेजुएट अभ्यर्थी नहीं उपलब्ध होने के कारण रिक्त पदों के विरुद्ध शिक्षकों की भर्ती करना संभव नहीं हो पा रहा है। विडम्बना देखिये कि एक तरफ राज्य सरकार विज्ञापन के माध्यम से यह जानकारी दे रही है कि भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद राज्य में शासकीय विश्वविद्यालयों की संख्या 3 से बढ़कर 8 तथा महाविद्यालयों की संख्या 116 से बढ़कर 214 हो गयी है। इसके बाद भी स्नातकोत्तर पास विषय विशेषज्ञ शिक्षकों की अनुपलब्धता यह प्रमाणित कर देती है कि हमारे राज्य में महाविद्यालयों की शिक्षा का स्तर कितना लचर और चिंताजनक है।

विषय विशेषज्ञ शिक्षकों की व्यवस्था में पूर्णतः विफल सरकार ने राज्य में शिक्षकों की भर्ती आउट सोर्सिंग के माध्यम से करने का एक अजूबा प्रयोग किया है। बस्तर एवं सरगुजा संभाग में गत वर्ष लगभग 2000 विषय विशेषज्ञ शिक्षकों की भर्ती 30,000/- माह की दर से आउट सोर्सिंग के माध्यम से की गयी है। राज्य के नागरिकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि आउट सोर्सिंग के माध्यम से नियुक्त किये जा रहे शिक्षकों के लिए न तो आरक्षण के प्रावधान का पालन किए जाने की आवश्यकता है और न ही उनका राज्य का मूल निवासी होना अनिवार्य है। यह राज्य के बेरोज़गार युवकों विशेषकर अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के विरुद्ध एक बड़ा षडयंत्र है। क्योंकि इसके माध्यम से उन्हें रोज़गार से वंचित किया जा रहा है। इन शिक्षकों की भर्ती में आरक्षण नियमों का पालन न किया जाना अपराध की श्रेणी में आता है। इससे आरएसएस के आरक्षण खत्म करने की मंशा भी पूरी होती है।

राज्य सरकार का यह कथन है कि यह व्यवस्था अस्थायी है तथा जल्द ही शिक्षकों के रिक्त पदों के विरुद्ध स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति कर ली जायेगी। राज्य की मंत्रिपरिषद की हुई पिछली बैठकों में इस विषय पर घमासान मचा हुआ है। सभी मंत्रिगण यह मांग कर रहे हैं कि बस्तर एवं सरगुजा के अलावा राज्य के अन्य सभी संभागों में भी आउट सोर्सिंग के माध्यम से ही शिक्षकों की व्यवस्था की जाये। यह आरोप सही प्रतीत होता है कि कुछ निजी एजेंसियों को उपकृत करने के उद्देश्य से शिक्षकों की आउटसोर्सिंग की जा रही है। इसमें एक बड़ी विसंगति यह भी है कि शासन द्वारा आउट सोर्सिंग से नियुक्त शिक्षकों को 30,000/- प्रति माह भुगतान किया जा रहा है जबकि निजी कंपनियां शिक्षकों को मात्र 15,000/- प्रति माह भुगतान कर रही हैं। इस तरह 2000 शिक्षकों पर प्रतिमाह 3 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भुगतान कर भारी पैमाने पर भ्रष्टाचार किया जा रहा है। यह भी कमीशनखोरी का मामला दिखता है।

जो सरकार पिछले 14 वर्षों में गणित, अंग्रेज़ी, विज्ञान इत्यादि विषयों के स्नाकोत्तर पास अभ्यर्थी तैयार नहीं कर सकी, उससे यह आशा बेमानी है कि आगामी एक दो वर्षों में राज्य के मूल निवासियों के माध्यम से तथा आरक्षण के नियमों का पालन करते हुये शिक्षकों की स्थायी व्यवस्था कर लेगी। राज्य सरकार के झूठ प्रचारित करने की पराकाष्ठा है कि विगत वर्ष से लगभग 2000 शिक्षकों की आउट सोर्सिंग से नियुक्ति के बाद भी विधानसभा के मार्च 2017 के सत्र में शिक्षा मंत्री द्वारा यह जानकारी दी गयी कि राज्य में आउट सोर्सिंग द्वारा शिक्षकों की कोई भर्ती नहीं की गई है। इस तरह के तदर्थवाद एवं प्रयोगवाद से राज्य के छात्रों को गुणवत्तायुक्त शिक्षा तो दूर, बल्कि मूलभूत शिक्षा उपलब्ध कराने की कल्पना भी दिवास्वप्न की तरह दिख रही है।

वर्ष 2013 में हुए विधानसभा चुनावों के पूर्व भाजपा द्वारा जारी घोषणा पत्र में शिक्षा के क्षेत्र में सुधार हेतु कई घोषणाएं की गई थी। उनमें कॉलेज के प्रथम वर्ष के सभी छात्र-छात्राओं को टेबलेट/लैपटॉप वितरण, उच्च शिक्षा हेतु सभी छात्रों को एक प्रतिशत पर ऋण, सभी 146 ब्लाक मुख्यालयों में अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल, विकासखण्ड स्तर पर मॉडल स्कूल, स्कूलों में कम्प्यूटर की अनिवार्य शिक्षा, आठवीं तक के बच्चों को मध्यान्ह भोजन के साथ उच्च शक्ति युक्त सोया मिल्क वितरण आदि प्रमुख हैं। रमन सरकार का कार्यकाल बीतने जा रहा है। अभी तक इन घोषणाओं के क्रियान्वयन हेतु कोई प्रयास नहीं किये गए हैं जिससे राज्य की जनता स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रही है।

राज्य की भयावह शिक्षा व्यवस्था पर मनन-चिंतन करने से मन में भय और आशंका पैदा होती है। राज्य के शासकीय स्कूलों में पढ़ रहे 50 लाख से अधिक बच्चे इस राज्य के भविष्य एवं आशा के प्रतीक हैं। क्यों सरकार इन बच्चों के साथ इतना बड़ा षडयंत्र कर रही है? ऐसा लगता है कि भाजपा सरकार एक सोची-समझी साज़िश के तहत यह अनैतिक कार्य कर रही है इससे एक तो यह लगता है कि सरकार छत्तीसगढ़ के बच्चों को सिर्फ मज़दूर बनाना चाहती है। दूसरा षडयंत्र यह दिखता है कि सरकार चाहती है कि राज्य के विद्यार्थी अज्ञान के अंधेरे में डूबे रहें। उनमें जागृति न आ सके तथा भाजपा उनकी जागरूकता के अभाव में पुनः सत्ता प्राप्त कर सके। सरकार को यह समझ आ जाना चाहिये कि या तो वह राज्य के विद्यार्थियों के साथ सौतेला व्यवहार करना बंद करे और शिक्षा व्यवस्था में गुणात्मक सुधार लाये अन्यथा राज्य की जनता उन्हें सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा देगी।

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