एक कहावत है, “जैसा बोओगे वैसा काटोगे”- ये कहावत वर्तमान नितीश सरकार या यूं कहें बिहार पर बिलकुल सटीक बैठती है। अभी हाल ही में आए इंटरमीडीएट की परीक्षाओं के परिणाम के बीज की बुआई नितीश सरकार ने करीबन 11 साल पहले 2006 में कर दी थी। आज पूरा बिहार उस बुआई की ही फसल काट रहा है। कुछ लोग इसे भले ही पिछले साल के रूबी राय तथा बच्चा यादव कांड से जोड़कर देख रहे हों। लेकिन इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता है कि इस बीज की बुआई खुद बिहार के मुख्यमंत्री ने 2006 में की थी। आज वो पौधा बन चुका है और परिणाम भी देने लगा है।
शिक्षातंत्र के पिछड़ा होने का प्रत्यक्ष सुबूत इस बार का इंटरमीडिएट का परिणाम है, जो मेहनती तथा IAS का हब कहे जाने वाले राज्य बिहार पर एक बुरे धब्बे जैसा है। इस साल साइंस में फेल होने वाले बच्चों की संख्या लगभग 70 फीसदी रही है, वहीं आर्ट्स में ये संख्या 62.87 फीसदी तो वाणिज्य में 26.24 फीसदी रही है।
बिहार में लालू के शासन को उखाड़ फेंकने के बाद, तब के नितीश कुमार के नेतृत्व वाली NDA सरकार ने बिहार के चौमुखी विकास के लिए कई योजनायों का शुभारम्भ किया। इनमें से एक योजना नए सिरे से शिक्षक बहाली की भी थी। सालों से बंद पड़ी बहाली के कारण पूरा शिक्षा विभाग शिक्षकों की कमी से जूझ रहा था, तभी उस समय की NDA सरकार ने, मौलिक शिक्षा व्यवस्था में व्यापक सुधार के लिए संविधान की धारा 21 A के तहत नियोजन (प्लानिंग) का कार्य शरू किया।
बेरोज़गारों की लम्बी तादाद जो सालों से बैठी थी, के अन्दर शिक्षक बनने की कम और रोज़गार पाने की ज़्यादा उम्मीद जागी। उस भागादौड़ी में किसी ने ये तक नहीं सोचा कि जो आदमी कल तक घर के दालान में बैठा मक्खी मारता था, जो महिला कल तक बस चूल्हा-चौकी ही कर रही थी आज वो अचानक शिक्षक और शिक्षिका बन तो गए लेकिन पढाएंगे क्या? देश के लाखों नौनिहालों के भविष्य का क्या होगा?
शादाब आलम जो के ख़ुद एक शिक्षक हैं बताते हैं, “राज्य में गिरे शिक्षा स्तर के लिए सरकार के साथ-साथ अभिभावक भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं।” वो आगे कहते हैं, “सरकार काग़ज़ पर तो बहुत कुछ करती है लेकिन धरातल पर कुछ नहीं। सरकार नहीं चाहती कि ग़रीबों के बच्चे शिक्षा ग्रहण करें और आगे बढ़ें, सरकार सिर्फ़ अपने वोट बैंक पर ध्यान देती है।”
विद्यालय शिक्षा का मंदिर कहा जाता है, लेकिन सरकार की उदासीनता तथा अभिभावकों की अज्ञानता के कारण ये अब मात्र एक मंदिर बन गया जहां लोग सिर्फ़ प्रसाद लेने आते हैं। अर्थात बच्चे सिर्फ़ मिड डे मील खाने और शिक्षक सिर्फ़ वेतन लेने, ना बच्चों में सीखने की ललक होती है और ना शिक्षकों में सिखाने की चाह।
शिक्षक नियुक्तियों का आधार था नंबर, जिसके ज़्यादा नंबर उसकी नौकरी पहली। पैसों का खेल भी खूब चला, जिनके पास पैसे नहीं थे उनके पास कम नम्बरों वाली डिग्री थी, जिनके पास पैसे ज़्यादा थे उनके पास अच्छे नम्बरो वाली डिग्री भी थी और नौकरी भी।
इसी बीच सरकार ने कई बार टेस्ट भी करवाए लेकिन वो भी सिर्फ दिखावटी थे। सरकार बहाल हुए सभी नए शिक्षको को तीन मौके देती है पास होने के, जो कि अब मात्र एक मज़ाक बनकर रह गया है। इन तीनों परीक्षाओं में फेल होने वाले किसी भी टीचर को आज तक निलंबित नहीं किया गया। जबकि 2013 में लगभग 10000, 2012 में 151 और 2014 में लगभग 2700 शिक्षक फेल हुए। बावजूद फ़ेल होने के वो आज भी शिक्षक पद पर बने हुए हैं और प्रदेश के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं।
इस शिक्षक बनने की होड़ ने शिक्षक होने का मतलब तक बदल कर रख दिया है। अब शिक्षकों को बच्चो से कोई मतलब तक नहीं होता। इतना ही नहीं इस तंत्र ने बिहार में कई अन्य बीमारियों को भी जन्म दिया है, जिसका अनुमान शायद तत्कालीन मुख्यमंत्री को भी नहीं रहा होगा। मसलन रिश्वत लेने-देने का प्रचलन बढ़ा है, छोटे-बड़े शिक्षा माफियाओं का जन्म भी हुआ।
अगर यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं जब बिहार साक्षर तो होगा लेकिन शिक्षित नहीं होगा। शिक्षा देश की रीढ़ होती है। माता-पिता हमें जन्म देते हैं, लेकिन जीवन के मार्गदर्शक शिक्षक होते हैं। लेकिन जहां मार्गदर्शक को ही मार्ग का पता न हो तो उस देश का अन्धकार में डूबना तय है।
नए स्कूल तो खुल गए लेकिन शिक्षक ग़ायब हैं, हाई स्कूल को +2 लेवल तक तो कर दिया लेकिन वहां उस लेवल के शिक्षक नहीं हैं। जब बेसिक और प्राइमरी स्तर पर बच्चों को कुछ पढ़ाया नहीं जाएगा, कुछ सिखाया नहीं जाएगा तो उनसे 10वीं बोर्ड और 12वीं बोर्ड में अच्छे अंक की उम्मीद किस आधार पर रखी जा सकती है? और वो भी जहां शिक्षक नदारद हों। शिवहर जिले के कई शिक्षकों ने सरकार पर गैरज़रूरी कामों में उलझाकर रखने का आरोप भी लगाया।
दरअसल पूरे शिक्षा तंत्र की कहानी उस वक़्त शरू होती जब एक रेगुलर और योग्य अभ्यार्थी की नियुक्ति सिर्फ इसलिए नहीं हो पता है क्यूंकि उसके पास नंबर कम होते हैं। जबकि दूसरा अभ्यार्थी जिसने कभी कॉलेज का दरवाज़ा नहीं देखा, मनचाहे नंबर वाली मार्कशीट तय किये हुए दाम में खरीदता है और शिक्षक बन जाता है। जिन्होंने 10 – 15 साल से कुछ पढ़ा नहीं, पढ़ाया नहीं वो अचानक शिक्षक तो बन गए लेकिन पठन-पाठन से कोसों तक इनका कोई नाता रिश्ता नहीं होता है। ऐसे में ये बच्चों को क्या ज्ञान देंगे और वो बच्चों का क्या भला करेंगे?
Get Started
Do more with Youth Ki Awaaz: Sign up to comment, login to share a story, reach a community that cares, take part in campaigns and more.
If you sign up with Google, Twitter or Facebook, we'll automatically import your bio which you will be able to edit/change after logging in. Also, we'll never post to Twitter or Facebook without your permission. We take privacy very seriously. For more info, please see Terms.