ये सन 2000 की बात है, मैं शायद उस वक्त पहली क्लास में रही होंगी जब मैंने पहली बार अपने पूरे परिवार के साथ “हम साथ-साथ हैं” फिल्म देखी थी। हालांकि मैं उस वक़्त फिल्म की कहानी को समझने के लिए बहुत छोटी थी, लेकिन मैंने एक बात जो समझी वो ये थी कि किस तरह से मेरे परिवार के सभी उम्रदराज़ लोग फिल्म को बहुत ध्यान से देख रहे थे। वो कभी भावुक हो जाते तो कभी संस्कारों और परिवार की बात होने पर पूरे उत्साह के साथ सहमति जताते।
और इन्हीं में छुपी है सूरज बड़जात्या की फिल्मों की सफलता- ये फ़िल्में पुरानी और पितृसत्तात्मक सोच वाले उच्च जाति के हिन्दू परिवारों की भावनाओं का इस्तेमाल करती हैं। ये फ़िल्में उन्हें विश्वास दिलाती हैं कि उनके पारिवारिक और नैतिक मूल्य बहुत महत्वपूर्ण और महान हैं। लेकिन सच इससे कोसों दूर है और पिछले कुछ सालों में बड़जात्या की इन फिल्मों ने जो मुझे और मेरी उम्रकी लड़कियों को सिखाया है वो बस बेकार की बातें हैं। यहां मैं उन 6 चीज़ों के बारे में लिख रही हूं जो अगर इन फिल्मों ने मेरे उम्र की युवा लड़कियों को ना सिखाई होती तो बेहतर होता।
1)- सभी परिवार हिन्दू हैं
सूरज बड़जात्या जैसे निर्देशक जो ‘साफ-सुथरी और पारिवारिक फिल्में’ बनाने का दावा करते हैं, उनके लिए परिवार का अर्थ काफी संकुचित नज़र आता है। हम साथ साथ हैं फिल्म में इकलौता नज़र आने वाला मुस्लिम किरदार है ‘अनवर भाईजान’। फिल्म के आगे बढ़ने के साथ दिख जाता है कि ये किरदार भी बस नाम के लिए ही शामिल किया गया है। इस किरदार में भी मुस्लिम समुदाय की पहचान से जोड़कर देखी जाने वाली आम धारणाओं को इस किरदार से जोड़ा गया है। मसलन ‘अनवर भाईजान’ की भाषा में उर्दू का इस्तेमाल, उनका एक ख़ास टोपी को पहनना और उनका लखनवी पहनावा वगैरह। फिल्म की समीक्षा करते हुए लेखिका ईमान शेख इस किरदार को लेकर लिखती हैं, “महामुस्लिम होने से बस दाढ़ी भर दूर (one beard away from being Super Muslim)।”
2)- एक लड़का और लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते
“एक लड़का और लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते”, ये डायलॉग ‘मैंने प्यार किया’ फिल्म में मोहिनीश बहल के किरदार का और शायद इस फिल्म का भी सबसे मशहूर डायलॉग होगा। ज़ाहिर है कि एक मर्द और औरत के बीच दोस्ती ज़्यादा दिनों तक संभव नहीं है क्योंकि अंत में शारीरिक आकर्षण तो बीच में आ ही जाना है। लेकिन क्या मर्द और औरत के बीच एक प्यार भरी दोस्ती का रिश्ता संभव नहीं है? कम से कम बड़जात्या साहब तो यही सोचते हैं (हो सकता है कि ये उनके लिए असंस्कारी हो)। संभव है कि आज के समय में पॉपुलर हो चुका शब्द ‘फ्रेंडज़ोन’ भी यहीं से आया हो, जो समाज में मर्दों की उस सोच का नतीजा है जिसके चलते वो सोचते हैं कि महिलाओं को उनकी भावनाओं का उसी रूप में जवाब देना ज़रूरी है। यहां महिला क्या सोचती है इसका कोई महत्व नहीं है और दोस्ती उसके प्रेम को पाने के पहले कदम से ज़्यादा कुछ भी नहीं है।
3)- एक औरत के जीवन का मकसद बस शादी करना है
बड़जात्या साहब के मुताबिक एक औरत को तो बस इंतज़ार होता है कि उसके सपनों का राजकुमार आए और उसे अपने साथ ले जाए नहीं तो जब तक घर वाले शादी ना करा दें तब तक वो इंतज़ार करती रहे। बड़जात्या कि किसी भी फिल्म में आपको कोई सशक्त और अपने पैरों पर खड़ी महिला नहीं दिखेगी, और अगर दिखी भी (जैसे प्रेम रतन धन पायो में)- तो उसके महत्व पर उसका शादीशुदा जीवन या शादी हावी नज़र आएगी। अगर उनकी फिल्मों में शिक्षित और बुद्धिमान नायिकाएं होंगी भी जैसे ‘हम साथ साथ हैं’ में हैं, तो वो भी आदर्श बेटी, बहु और पत्नी के (समाज द्वारा निर्धारित किए गए) गुणों की जीती जागती तस्वीर नज़र आएंगी, उनके किरदार का विस्तार यहीं पर आकर ख़त्म हो जाता है। और रही मर्दों की बात तो इन बुद्धिमान नायिकाओं के पति व्यवसाय या परिवार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते नज़र आएंगे।
4)- सांवली या गहरे रंग की लड़कियों के लिए रिश्ते नहीं आते
अगर विवाह फिल्म की बात करें तो मुख्य नायिका की छोटी बहन ‘छोटी’ जो कि एक सांवली लड़की है, को पूरी तरह से नज़रंदाज़ कर दिया जाता है। पूनम (फिल्म की मुख्य नायिका) के गोरेपन और उसके सुन्दर होने की बात फिल्म में कई बार की गई है, वहीं ‘छोटी’ के सांवलेपन को मा-बाप के लिए एक चिंता के विषय के रूप में दिखाया गया है। फिल्म के एक सीन में तो छोटी की मां को उसे गोरा बनाने के लिए बहुत ज़्यादा पाउडर का इस्तेमाल करते हुए भी दिखाया गया है। 2006 में आयी इस फिल्म को एक तरह से देखें तो ज़्यादा समय नहीं हुआ है, जो इस सोच को पुख्ता करती है कि सांवली लडकियां कमतर होती हैं। वो सुन्दरता की बनी आम परिभाषा में फिट नहीं बैठती।
5)- बाबूजी मतलब घर के बॉस और उनके द्वारा किया जाने वाला लैंगिक भेदभाव हमेशा जायज़ है
ऐसा लगता है कि बड़जात्या को पुरुषवादी सोच के लोग बहुत पसंद हैं। चाहे वो ‘हम साथ साथ हैं’ के मेहनती और विनम्र बाबूजी हों या लम्बे समय से परेशान ‘विवाह’ के बाबूजी इन सभी में सामान रूप से नज़र आने वाली चीज़ है, एक मकसद- और वो है अपने बच्चों की शादी करवाना। लेकिन जब बात घर की बेटियों या बहुओं की हो तो उनकी दोहरी मानसिकता खुलकर सामने आती है। उनकी आदर्श बेटी या बहू मीठा बोलने वाली, शुद्ध (जिसके किसी के साथ शारीरिक सम्बन्ध ना बने हों) हो, और उसके जीवन में मौजूद सभी पुरुषों के लिए समर्पित हो। लेकिन सबसे ज़्यादा ज़रूरी ये है कि वो किसी भी हालत में बाबूजी की बात ना टाले। कोई औरत कैसे अपनी पसंद के किसी मर्द से शादी कर सकती जब तक कि बाबूजी ने उसे अप्रूव ना किया हो।
6)- केवल बाबूजी ही नहीं पति का मतलब भी बॉस है
‘मुझे हक़ है’ फिल्म विवाह के मुख्य नायिका का होने वाला पति जब ये गाना गाता है तो इसमें उस सोच को पुख्ता होते हुए देखा जा सकता है, जो एक औरत के शरीर पर पुरुष का पूरा अधिकार होने की बात कहती है। साथ ही इस गाने का वो भाग जो नायिका गा रही है उसमे वह इस सोच को पूरी तरह से स्वीकार भी करती है। यह गाना बड़जात्या की पति और पत्नी के संबंधों को लेकर उस सोच को दिखाता है जिसके हिसाब से महिला की अपनी इच्छाओं का कोई महत्व नहीं है और पुरुष की इच्छाएं सबसे पहले आती हैं। फिल्म ‘प्रेम रतन धन पायो’ का नायक (जो एक राजकुमार भी है) को भी ऐसा ही हक़ मिला है जिसके तहत वो नायिका को अपने पसंद की एक ड्रेस पहनने उसकी सहूलियत के हिसाब से पहनने को कहता है ताकि वो उसी सहूलियत के साथ उस ड्रेस को उतार कर उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध कायम कर सके। और जब नायिका इसके लिए मन करती है तो उसे गुस्सा आ जाता है, ज़ाहिर है कि यहाँ उसकी हां या ना का कोई महत्व नहीं है।
अपनी फिल्मों के ज़रिये इस तरह के वाहियात सन्देश देने के बावजूद सूरज बड़जात्या बेहद मजबूती से आगे बढ़ते दिखते हैं। हालांकि बॉलीवुड फिल्मों में समय के साथ परिवार को दिखाने के तरीके में बदलाव आया है लेकिन फिर भी टी.वी. पर बड़जात्या की फिल्मों को मिलने वाली जगह परेशान करने वाली है। आज भी मेरे परिवार के बड़े बुजुर्ग बेहद चाव से बड़जात्या की ये फिल्मे देखते हैं जो उन ‘पारिवारिक मूल्यों’ की बात करती हैं जिनसे वो जुड़ा महसूस करते हैं (और शायद उन्हें औरों पर लादते भी हैं)। लेकिन सबसे ज़्यादा परेशान ये बात करती है कि हमारे देश में केवल वो ही ऐसा नहीं कर रहे हैं।
अनुवाद: सिद्धार्थ भट्ट
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