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“हम बहुत पैसे वाले हैं, अब बेटा घर से निकाल दिया तो यहां झाड़ू देने लगे”

गर्ल्स हॉस्टल की बात ही अलग होती है। चारों तरफ लड़कियां, उनकी बातें, हॉस्टल इंचार्ज की बुराई, छोटी-छोटी बातों पर नोंक झोंक, वहां काम करने वाले तमाम लोगों से उलझना…और ना जाने कितना कुछ!!

पांच साल हॉस्टल में रहने के बाद ये अपना पहला घर लगने लगता है। यूं तो यहां काम करने वाले कई लोग हैं जो समय-समय पर बदलते भी रहते हैं। आंटी ( हॉस्टल इंचार्ज) कुछ दिनों के लिए बाहर गई थी। इस बीच झाड़ू-पोछा करने वाली ने काम छोड़ दिया, सुनने में आया कि उनकी जगह कोई और आएगी। एक दिन खुद ही झाड़ू लगाते हुए मैं सोच रही थी कि काश जल्द ही कोई आ जाए, ताकि कमरे की गंदगी से छुटकारा मिले और एक्स्ट्रा ड्यूटी से भी।

तभी कमरे का दरवाज़ा खुला और लगभग पचास की उम्र की एक महिला हमारा दरवाज़ा खोलकर अन्दर झांकने लगी। पीली रंग की साड़ी, गोरा रंग, लंबा कद, कान और नाक में सोने के छोटे छोटे जेवर, चेहरे पर चमक… इससे पहले कि मैं उन्हें और देख पाती, एक मुस्कान के साथ वो कमरे का दरवाजा लगाकर चली गई। मैंने मेरी रूममेट से मज़ाक में कहा “लगता है, आंटी की रिश्तेदार हैं। आंटी से ज़्यादा चमक रही हैं, यही हॉस्टल संभालने आई होंगी।” मेरी रूममेट मेरी तरफ देखकर बोली, “पागल,ये नई झाड़ू लगाने वाली हैं!”

ऐसा बिल्कुल नहीं था कि मैं उनके चेहरे को देखकर ये सोच रही थी कि वो इतनी सुंदर है इसलिए संपन्न लग रही हैं और ये झाड़ू कैसे लगा सकती हैं? मैं सोच में इसलिए थी क्यूंकि उनके चेहरे पर अलग ही चमक थी, कोई बात थी उनमे। मैंने भी सोचा कि जब अगले दिन ये आएंगी तब इनसे पक्का बात करूंगी।

अगली सुबह वो झाड़ू और पोछे की बाल्टी के साथ कमरे में आई और मुझे देखकर मुस्कुराई। उनके झाड़ू लगाने के बाद मैं बोल पड़ी, “आंटी आपने बहुत अच्छा झाड़ू लगाया, इतने दिनों से मुझसे तो ठीक से हो ही नहीं रहा था।”

यह सुनकर उन्होंने मुझसे कहा, “बेटा, अब तो आदत हो गई है। जब से बेटा घर से निकाला है, तब से यही तो काम है।” उनका जवाब सुनकर लगा मानो वो मुझसे चाहती हों कि मैं उनकी पूरी कहानी पूछूं। तो मैंने जिज्ञासा से पूछा “क्या कहा आपने?” ऐसा लगा मानो वो सालों से जिसका जवाब देना चाहती थी, मैंने ऐसा कुछ पूछ दिया हो। भीगी आंखो से उन्होंने मेरी तरफ देखा और मेरे कहने पर बिस्तर पर बैठकर मुझसे कहा, “हम बहुत अच्छे घर से हैं, मेरा बेटा ठेकेदारी का काम करता है। आपके हॉस्टल जितना बड़ा मेरा घर है, बहुत किराया आता है। मेरा पोता लोग दिल्ली में पढ़ता है। पर भाग्य का मार कहिए कि बेटा घर में रखकर भी नहीं रखता। बड़ा बेटा मर गया, नहीं तो वो रहता तो ऐसा कभी नहीं होता। अभी तो जिस बेटे के साथ रहती हूं वो खाना भी नहीं देता है। दूसरे के घर में खाना बनाते हैं, तब खा लेते हैं।”

मैंने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा, “तो आप अपना हक क्यूं नहीं मांगती? लड़ती क्यूं नहीं?”

उन्होंने कहा, “क्या करें बेटा है ना! एक ऐसे भी बीमारी से मर गया। इसको क्या बोले? तेरह साल की उम्र में लड़ के लव मैरेज किया था वो भी करने दिया। अब बीवी के सामने मां कहां दिखती है। शादी के बाद का यही हाल है, इतना दुख है कि क्या बोले। पोता लोग भी उसका ही जानमाल है ना। कभी-कभी सोचते हैं कि जहर खाकर मर जाएं। कल रात तो फांसी लगाने जा रहे थे, पर फिर बेटी का याद आ गया। बहुत पीता है उसका आदमी। हम उसकी भी मदद करते हैं! यही सोचकर बस रो के रह गए।”

थोड़ी देर बाद (मुझे चुप देखकर) वो फिर से बोली, “यहां आपके आने से पहले भी हम काम करते थे। अभी फिर से आए हैं। यहां बोल-बतिया लेते हैं तो मन हल्का हो जाता है!”

इतना बोलकर वो चली गयी। पत्रकारिता की छात्रा होने के नाते मैंने उनमें आग जगाने की अगले कई दिनों तक कोशिश की। लेकिन मातृत्व के आगे मेरी पत्रकारिता फेल हो गई। वो रोज़ आती हैं, मुस्कुराती हैं, कुछ-कुछ कहती हैं…और मेरी पत्रकारिता रोज़ हारती है उनकी ममता के आगे, उनके बेटे के आगे। अगले महीने इस हॉस्टल से मुझे जाना है। उनकी कहानी साझा कर रही हूं, ताकि मन थोड़ा हल्का रहे और भले ही पत्रकारिता बोलकर और समझाकर हारी है, मगर शायद लिखकर नहीं हारेगी!

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