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किन्नरों का समाज

सावन का महीना भक्ति का महीना माना जाता है। हिन्दू धर्म में आस्था रखने वाले लोगों के लिए इस माह के व्रत और पूजा पाठ का बहुत महत्व होता है। सावन में कांवड़ियों की टोली को भगवा रंग पहन कर कांवड़ लेकर देवघर (झारखण्ड) जाते देखना एक आम बात है। सावन का महीना भगवान शिव का महीना माना जाता है। हिन्दू धर्म के अनुयायी बड़ी ही श्रद्धा से भोलेनाथ की पूजा करते हैं। एक ऐसे भगवान जो आदि भी हैं और अन्त भी। भोले भी हैं और बावरे भी, सन्यासी भी हैं और गृहस्थ भी, नारी भी हैं और पुरुष भी।

“अर्द्धनारीश्वर”, देवों के देव महादेव ने यह रूप क्यों लिया था इसकी कहानी हम सबको पता है। एक ऐसा रुप जो ना पूरी तरह पुरूष है और ना ही स्त्री। हमारे समाज में आम बोलचाल की भाषा में इस रूप को हिजड़ा या किन्नर कहते हैं। भगवान शिव ने यह अवतार मजबूरी में लिया था बिल्कुल वैसे ही जैसे हम सब मजबूरी में स्त्री, पुरुष या किन्नर होते हैं। मजबूरन इसलिए क्योंकि अपना लिंग चुनना हमारे हाथों में नहीं होता। मगर एक अच्छे समाज और मानसिकता का चुनाव करना हमारे हाथों में ही है।

इस साल जून में बिहार की राजधानी पटना में दूसरी बार किन्नर महोत्सव का आयोजन किया गया।  इस महोत्सव का मकसद किन्नर समाज को बिहार सरकार द्वारा एक मंच देना था जहां वो अपनी कला का प्रदर्शन कर सकें। यह महोत्सव किन्नर समाज, बिहार सरकार और राज्य सबके लिए एक अलग महत्व रखता है। मुझे नहीं मालूम कि इस महोत्सव के बारे में कितने भारतीयों और मीडिया को जानकारी है और इस बारे में उनकी क्या राय है। सच तो ये है कि मुझे खुद भी इस महोत्सव के बारे में एक आर.जे. के फेसबुक लाइव वीडियो से पता चला, जबकि मैं पटना में ही रहती हूं।

किन्नर समाज का ये महोत्सव एक अच्छी पहल है। क्योंकि कला चाहे स्त्री की हो, पुरूष की हो या किन्नर की- कला की कद्र करना और उसे बढ़ावा देना ज़रूरी है। पर हम और हमारी सरकार कह रही है कि ट्रांसजेन्डर (किन्नर) को हम आम समाज का हिस्सा बनाने के लिए उनसे हो रहे भेदभाव को मिटाने के लिए प्रयासरत हैं। किन्नर समाज के लिए कानून में, समाज में, मानसिकता में बदलाव आया है और आएगा। 

मेरा एक छोटा सा सवाल है खुद से, आपसे, हमारी सरकार और किन्नरों से भी। किन्नरों से खासकर क्योंकि वो आम नहीं हैं, उनका अपना ही एक समाज है। जब आपको शब्दों से ही अलग समाज का हिस्सा बना दिया गया है तो फिर आप आम इंसान कैसे हो सकते हो? कानून, समाज, मानसिकता तभी बदलेगी जब शब्दों से भेद मिटेंगें। 

मैं किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहती। बस एक और सवाल अगर हम भगवान के अर्द्धनारीश्वर रूप का मान कर सकते हैं, उनकी पूजा कर सकते हैं तो अपने आसपास अपने परिवार के अर्द्धनारी रूप को अपनाना इतना मुश्किल क्यों है और उनके होने पर शर्मिन्दगी क्यों है?

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, कोशिश बस ये है कि “ये सूरत बदलनी चाहिए। मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में ही सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।”

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