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पौष्टिक आहार तो दूर साफ पानी तक नसीब नहीं होता है झारखंड के इन आदिवासियों को

झारखंड के कोल्हान क्षेत्र के अंतर्गत सारंडा एवं आस-पास के क्षेत्रों में आदिवासियों की हालत चिंताजनक है। आदिवासियों की स्थिति को नज़दीक से जानने-समझने के लिए मैं इन दिनों झारखंड के नक्सल प्रभावित सारंडा वन क्षेत्र में हूं। मैं यहां गांव-गांव जाकर आदिवासियों के बीच समय बिताकर उनकी स्थितियों का अध्ययन कर रहा हूं, जो कि मेरा एक व्यक्तिगत प्रयास है। मैं झारखण्ड के विनोबा भावे विश्वविद्यालय में एलएलबी का छात्र हूं और आदिवासियों से आत्मीय जुड़ाव के कारण इस कार्य को अंजाम दे रहा हूं। मैं यहां पर पिछले माह (जून) की 21 तारीख से हूं और गांवों का दौरा करने के दौरान जिन आदिवासियों से मिल रहा हूं, उनके दर्द को जानने की कोशिश कर रहा हूं।

पोखरपी पंचायत में कुपोषित बच्चे

सारंडा के जंगलों से यह रिपोर्ट

झारखंड की राजधानी रांची से चाईबासा की दूरी 136 कि.मी. है, वहीं सारंडा लगभग 200 कि.मी. दूर है। चाईबासा झारखंड के कोल्हान प्रमंडल का मुख्यालय है और इस क्षेत्र को पश्चिमी सिंहभूम एवं लोहांचल के नाम से जाना जाता है। इन क्षेत्रों में आदिवासियों की हालत जानवरों से भी बदतर है और यहां के आदिवासी जीविका के लिए तरस रहे हैं।

आदिवासी गांवों के कई बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। बच्चों को शिशुकाल में सही पोषण नहीं मिल रहा है इस कारण बच्चों की हालत चिंताजनक है। गर्भवती महिलाओं को भी पोषण सम्बंधित भयंकर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। लौह अयस्क (iron ore) क्षेत्र होने के कारण लोगों के लिए पीने के पानी एक जटिल समस्या है।

बड़ानंदा पंचायत के सर्बिल गाँव में अपनी 19 माह की कुपोषित बहन को हड़िया पिलाती एक छोटी बच्ची

21 जून से लगातार मैं इस क्षेत्र के तमाम गांवों में वक्त गुज़ारकर इनकी स्थितियों का पड़ताल कर रहा हूं। हर तरफ निराशा और बेबसी है, ऐसा लगता है जैसे इन्हें इनके हाल पर छोड़ दिया गया है। आदिवासियों की जो हालत इस क्षेत्र में है वह रोंगटे खड़ी करती है, यह स्थिति काफी निराशाजनक है। क्षेत्र के किरीबुरू, मेघाहातुबुरु, बदजामदा, गुवा, कोटगढ़, जेटेया, बड़ापसिया, लोकसाई, बालिझरण, दिरीबुरु, बराईबुरु, टाटीबा, पेटेता, पोखरपी, कादजामदा, महुदी, नोवामुंडी समेत कई अन्य गांवों में आदिवासी ज़िंदगी से जद्दोजहद कर रहे हैं।

बच्चे के साथ सारंडा आदिवासी महिला

सरकार – सिस्टम पूरी तरह फेल

आदिवासी परिवारों की हालत देखकर यह कहा जा सकता है कि सरकार और सिस्टम इस क्षेत्र में पूरी तरह फेल हैं। अस्पतालों में डॉक्टर नहीं, स्कूलों में शिक्षक नहीं, गांव का लगभग हर बच्चा कुपोषण का शिकार और जीविका के लिए प्रकृति पर निर्भरता। शासन व्यवस्था से कटे इन गांवों की हालत सरकार एवं नौकरशाही की कार्यशैली पर सवालिया निशान खड़े करती है।

यूनिसेफ और राज्य सरकार के रिपोर्ट में हो चुकी है कुपोषण की पुष्टि

कुपोषित बच्चे

फरवरी 2017 में राज्य सरकार एवं यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि सारंडा क्षेत्र के 20 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। लेकिन इस रिपोर्ट में सही आंकड़ा नहीं पेश किया गया, इस क्षेत्र की ज़मीनी हकीकत बिल्कुल अलग है। 20 प्रतिशत से कहीं अधिक बच्चे यहां कुपोषण के शिकार हैं। बच्चे हड़िया पीकर जीवित हैं और उनके पेट फूले हुए हैं। कई बच्चे बीमारी से मर भी जाते हैं, लेकिन किसी को कुछ पता भी नहीं चल पाता।

सुदूर गांवों में सुविधाएं मयस्सर नहीं

इस क्षेत्र के दूर-दराज़ के गांवों में सरकारी सुविधाओं का बुरा हाल है। ग्रामीणों के सामने पीने के पानी के लाले हैं, बेरोज़गारी चरम सीमा पर है। कई गांवों में बिजली भी नहीं पहुंची है। कई क्षेत्रों में सड़कों की हालत जर्जर है और कुछ ही गांवों में सड़कें बनी हैं।

कोलई (मेफ्लाई) कीड़े को बेचती आदिवासी महिला

पंचायती चुनाव से चुनकर आए जनप्रतिनिधि भी खनन क्षेत्र होने के कारण विकास योजनाओं को जनता तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं। किरीबुरू पंचायत की मुखिया पार्वती कीड़ो ने बताया कि सेल (स्टील अथोरिटी ऑफ़ इंडिया) लीज़ क्षेत्र होने के कारण विकास की राशि वापस चली जाती है। सेल अनापत्ति प्रमाण पत्र प्रदान नहीं करती है, क्योंकि सेल का अपना सीएसआर (कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी) का कार्य होता है। उन्होंने कहा कि इस ओर कई बार पदाधिकारियों का ध्यान खींचा गया लेकिन कुछ नहीं हुआ।

क्या कहते हैं ग्रामीण

क्षेत्र के कोटगढ़ पंचायत के काठिकोडा गांव के संतोष लागुरी कहते हैं, “हम गरीब लोग हैं, सरकार हमारे ऊपर ध्यान नहीं दे रही है। गांव के बच्चे मलेरिया-कुपोषण से पीड़ित हैं, हम लोग अब तंग आ चुके हैं।”

किरीबुरू के जोलजेल बिरुआ दुर्दशा बताते हुए कहते हैं, “सरकार की हर योजना फेल है। हम लोग को कुछ सुविधा कहीं से नहीं मिल रही है।” बडाजामदा के प्रफुल्लो नाकुड़ ने कहा, “हमारे क्षेत्र में विकास का काम भगवान भरोसे है। बच्चे बीमार रहते हैं, अस्पताल में डॉक्टर नहीं आते हैं। हम लोग करे भी तो क्या करें?”

बड़ापासिया पंचायत क्षेत्र में दूषित पानी के कारण आदिवासियों के नाखूनों में हुआ संक्रमण

गुवा के जुदा बोदरा ने कहा, “एक तो हम लोग बेरोज़गार है, ऊपर से सरकार मदद नहीं करती। बच्चों को बीमारियां हो रही हैं, मलेरिया का प्रकोप है। कुछ सुविधा नहीं मिलती, हम बहुत मुश्किल में हैं।”

बड़ापासिया गांव के घनश्याम बोबोंगा कहते हैं, “आदिवासियों की हालत बहुत खराब है। हम लोग निम्न स्तर की ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं। सरकार की सुविधा हम लोगों को नसीब नहीं है। अधिकारी भी इधर कभी नहीं आते हैं। ग्रामीणों ने यह भी बताया कि खराब पानी के कारण हम सभी के पैरों एवं नाखूनों में अलग तरीके का संक्रमण हो गया है।”

facebook से हटाया गया पोस्ट

नोवामुंडी की आदिवासी महिलाओं ने कहा, “हम कोलई नाम के कीड़े को भूनकर खाते हैं और इस कीड़े को भूनकर बेचते भी हैं। अभी के मौसम में यह हमारे भोजन और जीविका का मुख्य साधन है।” और भी कई अन्य गांवों के ग्रामीणों ने भी अपना दुख व्यक्त किया।

मेरे द्वारा जब इस दुर्दशा को facebook पर पोस्ट किया गया तो इसे रिपोर्ट कर दिया गया और बाद में इस पोस्ट को facebook द्वारा हटा दिया गया। लगता है इस सच्चाई से कई लोग घबरा गए हैं

सारंडा एक्शन प्लान छलावा: ग्रामीण

ग्रामीण कहते हैं झारखंड बनने के बाद आदिवासियों के विकास की बात कही गयी। कई वादे किए गए . करोड़ों रुपये खर्च किये गए, केंद्र सरकार ने भी पहल की लेकिन तस्वीर नहीं बदली। पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने भी इस क्षेत्र में दौरा किया था, फिर भी तमाम दावों के बावजूद आदिवासियों की हालत नहीं बदली।

आदिवासी जानवरों की ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं, लोगों की निराशा आक्रोश का रूप धारण कर रही है और व्यवस्था के प्रति इन लोगों में गुस्सा बढ़ा है। पूरे क्षेत्र के हालात खुद बयां करते हैं कि सारंडा एक्शन प्लान एक छलावा बनकर रह गया है।

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