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परिवारवाद में फंसी राजनीति के बीच एक सुखद एहसास है रामनाथ कोविंद होना

President RamNath Kovind In A Function in Delhi

इस बार के राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति चुनाव के लिए भी मीरा कुमार और गोपाल गाँधी जैसे कांग्रेसी परिवार वालों के अलावा विपक्ष को कोई उम्मीदवार नहीं मिला। राष्ट्रपति पद के लिए  रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी की घोषणा ने सबको चौंका दिया। कुछ लोगों ने इसे मोदी का मास्टर स्ट्रोक कहा तो कुछ उनके संघ से होने पर चिंता ज़ाहिर कर रहे थे। कुछ लोगों ने इसे बीजेपी की दलित विरोधी छवि को छुपाने की कवायद बताया। कुछ लोगों ने उनके बारे में गूगल या वीकिपीडिया पर खोज करने की सलाह देकर उनका उपहास भी किया।

खैर कोविंद उम्मीद के अनुसार राष्ट्रपति पद का चुनाव बड़ी आसानी से जीत गए और कल वही मीडिया कानपुर के पास उनके पैतृक गाँव परोख भी हमें ले गयी। जहाँ उनका बाकी परिवार अभी भी रहता है। पूरे गाँव में जश्न का माहौल था। उनके घर में पूरा गाँव उमड़ आया था।कौन परिवार का है और कौन गाँव कोई समझ नहीं सकता। उनके भाइयों का अभिनन्दन हो रहा था। उनके चेहरे पर एक अजब सा तेज़ था। मीडिया से बच्चे और युवा बहुत ही आत्मविश्वास के साथ बात कर रहे थे।

ढोल नगाड़े बज़ रहे थे। घर की महिलाएं भी ढोल की थाप पर बहुत ही देसी अंदाज़ में थिरक रहीं थी। कोविंद की बुज़ुर्ग भाभी भी अपने आप को रोक नहीं पायी और थोड़ा नाची।

गाँव में इसे बधाई नृत्य भी कहा जाता है, जब घर के बड़े आशीष देने के लिए शुभ अवसरों पर थोड़ा नाचते हैं। ये सारा प्रेम जश्न निःस्वार्थ भाव से हो रहा है। इन्हें गर्व हैं की उनके बीच से कोई आज देश का प्रथम नागरिक होने जा रहा है। अगर इन लोगों की कुछ अपेक्षा है तो बस एक बार राष्ट्रपति भवन घूमने की। उससे ज्यादा कुछ नहीं। इन दृश्यों को देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। गाँव की यह सरलता और प्रेम ही भारत की असली पूँजी है।

कोविंद बहुत लम्बे अरसे से राजनीति में हैं और बिहार के राज्यपाल होने से पहले वे तीन बार राज्य सभा के सांसद रह चुके हैं। पर उनका परिवार आज भी सादगी से जीवन जी रहा है। उनके एक भाई सर्विस से सेवानिवृत हो चुके हैं, परिवार के बाकी सदस्य अपना छोटा मोटा व्यवसाय कर रहे हैं। कल टीवी पर जिस तरह का घर-परिवार दिख रहा था और आज अख़बार में जो कुछ पढ़ा उससे लगता है की उनका परिवार निम्न-मध्यम वर्गीय है।

आजकल घर से कोई पंच-सरपंच या पार्षद ही बन जाए तो चंद महीनो में पूरे परिवार की काया पलट हो जाती है। परिवार के हर लोगों को पेट्रोल पंप का लाइसेंस, सरकारी निर्माण कार्य का ठेका या कोई एजेंसी वगैरह दिला दी जाती है। पूरा परिवार बड़ी बड़ी एसयूवी गाड़ियों में घूमता है। घर घर न रहकर फार्म हाउस या बंगला हो जाता है। अचानक आसपास के गाँव की बहुत ज़मीन उनके परिवार के नाम हो जाती है। कोई अगर विधायक या सांसद हो जाए तब तो दो तीन पीढ़ियों का इंतज़ाम हो जाता है। पत्नी, बच्चे, भतीजे सभी राजनीति में आ जाते है। या सब ठेकेदार हो जाते हैं। यहाँ तक की नेताओं की ड्राईवर और चपरासियों तक को बड़ी-बड़ी कंपनियों का डायरेक्टर बना दिया जाता हैं (हालांकि उन्हें खुद नहीं पता होता)।

अभी सुनने में आया की प्रफुल्ल पटेल का ड्राईवर एयरपोर्ट्स पर कार्गो ढुलाई का ठेका लेने वाली एक कंपनी का डायरेक्टर है। चिदंबरम के होनहार पुत्र अनगिनत कंपनियां खोल लेते हैं। वाड्रा को सरकारी ज़मीन सस्ते दामों में मिलने लगती है। लालू, मुलायम के परिवार का तो कहना ही क्या?  ऐसा नहीं है की BJP के राजनेताओं ने अपने परिवार को “सेट” नहीं किया है, या बीजेपी में लोग भ्रष्ट नहीं हैं। मगर कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों के मुकाबले, परिवारवाद के मामले में इनकी स्थिति फिलहाल थोड़ी बेहतर है।

रामनाथ कोविंद की तस्वीरों को देखकर एपीजे अब्दुल कलाम के चुनाव जीतने के वक़्त उनके गाँव और परिवार वालों की याद आ गई।

कलाम साहब देश के सबसे बड़े वैज्ञानिक थे, प्रधानमंत्री और सरकार उनसे सलाह लेती थी, तब भी उनके परिवार के लोग बहुत सादगी से जीवन जी रहे है। फर्क सिर्फ इतना है की कलाम साहब वैज्ञानिक थे और कोविंद जी दो दशकों से सक्रिय राजनीति में हैं। फिर भी कम से कम न्यूज़ चैनल्स में जिस तरह से उनके भाई और परिवार के और लोग दिखे, उसे देखकर तो यही लगता है राजनीति में रहते हुए भी उन्होंने अपने लोगों को कोई अनुचित लाभ नहीं पहुचाया है। ये बहुत बड़ी बात है क्यूंकि भारतीय राजनीति में ऐसे लोग लगातार कम हो रहे हैं।

जनता अक्सर नेताओ के भ्रष्ट होने की शिकायत तो करती है लेकिन अपने परिवार का सदस्य आदर्शवादी हो जाए तो सबसे ज्यादा आलोचना घर वाले ही करते हैं। नौकरी के लिए सिफारिश, तबादला, पदोन्नति, किसी सरकारी योजना का अनुचित लाभ जैसे छोटे मोटे कामों को तो लोग भ्रष्टाचार मानते भी नहीं है। उन्हें लगता हैं की हमारे परिवार या क्षेत्र के नेता को इतना तो अपने वालों के लिए करना ही चाहिए। वरना वोट देने का फायदा क्या? टीवी न्यूज़ चैनल्स में लोग कितनी भी आदर्शवाद की बातें करे लेकिन ज़मीनी हकीकत तो यही है। कोई माने या न माने।

कोविंद ने चुनाव जीतने के बाद कहा कि “उनके जैसे अनेक रामनाथ कोविंद देश में हैं।” जो लोग कोविंद के बारे में गूगल करने की सलाह दे रहे थे, उन्हें अब समझ आ गया होगा कि भारत इतना विशाल है और इतने लोग निःस्वार्थ भाव से जनता के बीच काम कर रहे हैं कि सबकी जानकारी गूगल पर हो ये भी ज़रूरी नहीं। ये भारत की मीडिया और एक वर्ग विशेष की कूप-मंडूक प्रवृति है, जिनके लिए भारत सिर्फ दिल्ली या बाकी महानगरों तक सीमित है। जब कैलाश सत्यार्थी को नोबल शांति पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई तो भारतीय मीडिया को सांप सूघ गया था। गूगल से उठाई कुछ तस्वीरों और जानकारी के अलावा कैलाशजी के बारे में उनके पास कोई जानकारी नहीं थी। तो बिना लाग लपेट के ईमानदारी से सिर्फ अपना काम करने वाले की आज के भारत में कोई पूछ नहीं। आज के समय काम से अधिक प्रचार पर ज़ोर है।
ट्विटर और फेसबुक से परे एक भारत है जहां तक शहरी मीडिया और पार्ट टाइम नेता कभी नहीं पहुँच पाएंगे।

जिस तरह का राजनीतिक माहौल देश में कांग्रेस ने बनाया है उसके बाद हर किसी की अपेक्षा होती है कि नेताओं से जान पहचान का भरपूर लाभ उठाया जाए।

इसीलिए राजनीतिक जीवन में उच्च मूल्यों को बनाये रखना बहुत कठिन है। सच तो यह है कि लोगों को आदर्शवाद की कीमत भी चुकानी पड़ती है। शायद इसीलिए कोविंद जी जैसे लोग जनता के चुनाव में असफल हो जाते हैं।

इसीलिए रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति पद पर पहुँचाना निःस्वार्थ भाव से काम करने वाले ईमानदार व्यक्तियों को प्रेरणा देगा। उम्मीद है एक दिन भारत का समाज और लोकतंत्र इतना परिपक्व हो जाएगा कि कोविंद जैसे व्यक्ति को सिर्फ जाति के चश्मे से नहीं देखा जाएगा।

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